आए हो
संजीव 'सलिल'
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बहुत दिनों में मुझसे मिलने आए हो.
यह जाहिर है तनिक भुला न पाए हो..
मुझे भरोसा था-है, बिछुड़ मिलेंगे हम.
नाहक ही जा दूर व्यर्थ पछताए हो..
खलिश शूल की जो हँसकर सह लेती है.
उसी शाख पर फूल देख मुस्काए हो..
अस्त हुए बिन सूरज कैसे पुनः उगे?
जब समझे तब खुद से खुद शर्माए हो..
पूरी तरह किसी को कब किसने समझा?
समझ रहे यह सोच-सोच भरमाए हो..
ढाई आखर पढ़ बाकी पोथी भूली.
जब तब ही उजली चादर तह पाए हो..
स्नेह-'सलिल' में अवगाहो तो बात बने.
नेह नर्मदा कब से नहीं नहाए हो..
२२-५-२०११
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