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बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

समीक्षा: दोहा-दोहा निर्मला -अमरनाथ

समीक्षा 
दोहा सलिला निर्मला : संदर्भ ग्रंथ की तरह पठनीय-संग्रहणीय संकलन 
समीक्षक- अमरनाथ, लखनऊ 
दोहा सलिला निर्मला,  सामूहिक दोहा संकलन, संपादक-द्वय श्री संजीव वर्मा ‘सलिल’ एवं डॉ. साधना वर्मा,  २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०/-, प्रकाशक: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, समन्वय प्रकाशन, अभियान, जबलपुर।]
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विषय वस्तु:  
इस संकलन में १५ दोहाकार के दोहे संकलित हैं, जिनमें ४  महिलायें हैं, सुश्री नीता सैनी, रीता सिवानी, शचि भवि, तथा सरस्वती कुमारी। शेष ११ दोहाकार है सर्वश्री- अखिलेश खरे 'अखिल', अरुण शर्मा, उदयभानु तिवारी मधुकर, ओम प्रकाश शुक्ल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. नीलमणि दुबे, बसंत शर्मा, रामकुमार चतुर्वेदी, शोभित वर्मा, हरि फैजाबादी, हिमकर श्याम। इन १५ दोहाकारों में ०७ म.प्र. से, ०२ दिल्ली, ०२ उ.प्र. व एक-एक महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, अरुणांचल तथा झारखंड प्रदेश से हैं। प्रत्येक दोहाकार के लगभग १००-१०० दोहे संकलित किए गये हैं। पहले दो पृष्ठों में प्रत्येक दोहाकार का विस्तृत परिचय दिया गया है। इनमें ११ दोहाकार के १००-१००, दो के ९९-९९ तथा दो के १०१-१०१ दोहे हैं। इस प्रकार पूरी कृति में सहभागियों के १५०० दोहे हैं। १६० पृष्ठीय इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे एक-एक दोहा संपादक द्वारा स्वयं लिखा गया है जो इस पुस्तक रूपी रमणी के पैरों में पाजेब की तरह छनछना रहे हैं। पुस्तक के प्रारंभ में काव्य रसों और दोहे के वैशिष्ट्य पर सुंदर आलेख संपादक द्वारा दिया गया है। मुखावरण बहुरंगी और सुंदर है। मूल्य २५० रुपये है।

इन दोहों में प्रेम के दोनों रूप, नारी सौंदर्य, राष्ट्रीय चेतना, भारतीय कानून, राजनीति, भ्रष्टाचार, आरक्षण, भारतीय देवी-देवता, भक्ति, गंगा-यमुना, जल और जल संरक्षण, प्रदूषण, गुरु महिमा, चाय, योग, वेदांत और अध्यात्म, ऋतुएँ, बरसात, सावन, त्योहार, हिंदी भाषा, रंगमंच, मोबाइल, सामाजिक सरोकार, सामाजिक रिश्ते, सर्वजन हिताय, हितोपदेश आदि विविध विषयों पर कलम सहभागियों की कलम चली है।

भाव पक्षः-
दोहा ही एकमात्र ऐसा छंद है जिसे जितना दुहा जाए, यह उतना ही मक्खन देता है। वीरगाथा काल के दोहों में वीर रस की प्रधानता थी तो भक्ति काल में भक्ति रस और नैतिकता की। रीतिकाल ने श्रृंगार में डुबोया तो इस आधुनिक काल में जीवन की दैनंदिनी, सामाजिक सरोकार,और जीवन की विषमतायें फूट-फूट कर सामने आने लगी हैं। इस पुस्तक के अधिकांश दोहों में वीर, श्रृंगार और भक्ति का तो कहीं-कहीं छींटा मात्र है। सामाजिक समस्याएँ, समुद्री लहरों की तरह उद्वेलित होती हुई नजर आ रही हैं। गिरते हुए नैतिक मूल्य ढोल पीट रहे हैं और प्रदूषण की सुरसा अपना मुख खोले हुए खड़ी नजर आ रही है। अत्यंत उच्चकोटि का भाव संप्रेषण है इन दोहों में। आइए एक-एक रचनाकार को देखते हैं-ं 

१.श्री अखिलेश खरे 'अखिल' 
अखिल जी ने अपने दोहों में विविध रंग बिखेरे हैं। ऋतु, सामाजिक विसंगतियाँ, मानवीय चरित्र, ग्रामीण जीवन, वृ़क्ष संरक्षण नशा आदि को लेखनी का विषय बनाया है। इनके दोहों में शाब्दिक मनोहरता है और प्रेरणा भी।
गाँव, शहर जब से बना, दुआ-सलामी गोल।
गलियों-गलियों पर चढ़े, कंकरीट के खोल।।
श्रम-सीकर से बन गया, कुर्ते पर जो चित्र।
भारत का नक्शा बना, कुर्ता हुआ पवित्र।।
नशे-नशे में हो गई, बहुत नशीली बात।
घूँसों की होने लगी, बेमौसम बरसात।।

२. श्री अरुण शर्माः-
अपवादों को छोड़कर, आपकी भाषा सामान्यतः प्रांजल और संस्कारित है। आपने वेदांत, नैतिकता, परोपकार और मानवीय प्रेम को अपनी रचना का आधार बनाया है। यत्र-तत्र अन्य विषय भी छुए हैं।
अंतर में छलछद्म है, बाह्य आचरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध?
ढल जाएँगें एक दिन, उम्र, रूप मृदु देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, है मिट्टी का गेह।।
राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोच समझकर पैर रख, राह नहीं अनुकूल।।

३. श्री उदयभानु तिवारी मधुकरः-
आप एक मात्र दोहाकार हैं जिन्होंने केवल एक विषय चुना है और वह है कृष्ण रासलीला। बहुत माधुर्य बिखेरा है उन्होंने अपने दोहों में। उनके एक दोहे की बानगी देखिये जिसमें अनुप्रास, यमक और उपमा की बेजोड़ त्रिवेणी बहा दी है।
नृत्यलीन घनश्याम जी, लगते ज्यों घनश्याम।
गोरी सखियाँ दामिनी, सोहें रजनी याम।।

४. श्री ओमप्रकाश शुक्लः- 
आपके दोहों में जहाँ एक ओर सहजता व मधुरता है वहीं व्यंग्य और स्पष्टवादिता भी है। भारतीय राजनीति, भारतीय संविधान, भारतीय रिश्ते, नदी-प्रदूषण, चापलूसी जैसे बिंदुओं पर अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य और अनुप्रास का एक सुंदर उदाहरण देखें।
वाह वाह का दौर है, वाह वाह बस वाह।
झूठ-मूठ की आह है, झूठ-मूठ की चाह।।
भारतीय राजनीति पर आपका व्यंग्य-
लूटें दोनों हाथ से, दोनों पक्ष विपक्ष।
सगा देश का कौन है, प्रश्न बना यह यक्ष।।

५. श्री जयप्रकाश श्रीवास्तवः- आपके दोहों में बिंब, प्रतीक और अलंकारों का समावेश नए ढंग से किया गया है जो नई कविता की ओर इंगित करता है। शहद जैसी मिठास है आपके दोहों में। प्रकृति, ऋतु. पानी, मँहगाई, सामाजिक नैतिक मूल्यों का पतन आदि विषयों को आपने अपने दोहों की देह बनाया है। आपके दोहों की बानगी देखिये।
पानी-पानी हो गया, मौसम पानीदार।
पानी पानी से मिला, पानी सब संसार।।
किरणों की ले पालकी, सूरज बना कहार।
ऊषा कुलवधु सी लगे, धूप लगे गुलनार।।
हवा हो गई बाँसुरी, बादल हुआ मृदंग।
बिजली पायल बाँधकर, नाचे बरखा संग।।

६. सुश्री नीता सैनी:-
माँ, बेटी, गंगा और हिंदी भाषा पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। अन्य विषय भी छुए हैं। सरलता और स्पष्टवादिता आपकी लेखन शैली में है। वसुधैव कुटुम्बकम! की भावना भी दृष्टिगोचर होती है। उपमा और भक्ति के सम्मिश्रण पर उनकी रचना की बानगी देखिये।
माँ गंगा की धार है, तन-मन करे पवित्र।
ममता से बढ़ कौन सा, इस दुनिया में इत्र।।
कन्या-हत्या पर उनका आक्रोश काबिले-तारीफ है।
जो कन्या को मारते, उनका सत्यानास।
जो कन्या को पूजते, वे सच्चे हरिदास।।
हिंदी बिंदी हिंद की, मस्तक की है शान।
झंकृत मन के तार कर, करे शांति का गान।।

७. डॉ.नीलमणि दुबे:-
बसंत, होली, वर्षा, नवसंवत्सर, भ्रष्टाचार, नवदुर्गा, दिन, ग्रामीण जीवन, आदि विषयों पर आपकी विद्वता देखते ही बनती है। आपने बघेली दोहे भी लिखे हैं। भाषा सरल और मधुरिमायुक्त है। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग कुशलता के साथ किया है। अपनी बात को समझाने के लिए नए-नए बिंबों का प्रयोग किया है।
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
गाँव-गाँव पीड़ा बसी, गली-गली संत्रास।
शहर-शहर आतंक है, नयन-नयन में प्यास।।
एक बघेली दोहा भी देखें- 
कनिहाँ टूटै देत माँ, लेत नहीं परहेज।
फइला कोढ़ समाज के, घिनहाँ बहुत सहेज।।

८. श्री बसंत कुमार शर्मा-
हिंदू देवी देवता, धर्मान्धता, आरक्षण, जवान, बारिश, गरीबी, भारतीय जीवन शैली, आदि अनेक विषयों पर आपने अपनी कलम चलाई है। दोहों में छंद विधान को अपनाने में सजगता बरती गई है। अलंकारों का चमत्कारिक प्रयोग किया गया है। यमक की छटा तो देखते ही बनती है।
चाँद निरखता चाँद को, मधुर सुहानी रात।
आपके व्यंग्य की एक बानगी देखें-
नालों के भी आजकल, बढ़े हुए है भाव।
जबरन घर में घुस हमें, दिखा रहें हैं ताव।।

९.श्री राम कुमार चतुर्वेदी- 
आपके दोहे हास्य रस प्रधान है।। मूलतः चमचागिरी पर आपकी कलम विशेष रूप से चली है। आपके जीवन परिचय को पढ़ने पर एक कालजयी व्यक्तित्व के दर्शन हुए। असाधारण जीवट समेटे हुए है यह मटियारी देह।
तिस पर हास्य। ग़ज़ब है, नमन है इस जीवटता को। आपकी रचनाओं में व्यंग्य और हास्य की संतुलित कॉकटेल है। विनोद, चुटीलापन और कचोट की त्रिवेणी बह रही है आपकी रचनाओं में। अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है।
चम्मच जिनके पास है, चम्मच उनके खास।
जिनसे चम्मच दूर है, उनको मिलता त्रास।।
गधे भर रहे चौकड़ी, कुत्ते मारें लात।
दबी फाइलें खोल दें, चम्मच में औकात।।

१०. सुश्री रीता सिवानी:-
हिंदी भाषा, हिंदू देवी-देवता, नारी, जल संरक्षण, मित्रता, योग आदि विषयों पर आपने बड़ी बेबाकी से लिखा है आपने। आपकी रचनायें भावप्रधान और यथार्थ का पुट लिए हुए है। सामाजिक कुरीतियों पर चोट की है।
हिंदी बिंदी हिंद की, सजी हिंद के भाल।
बैठी लेकिन ओढ़ कर, अंग्रेजी का शाल।।
घबराना मत हार से, नींव जीत की हार।
बिना दूध मंथन किए, मक्खन बने न यार।।

११. सुश्री शुचि भविः-
आपने लगभग सभी दोहों में अपने भवि नाम का उपयोग किया है। भ्रष्टाचार, मोबाइल, वेदांत, खाद्य प्रदूषण, संवत्सर, आदि विविध विषयों पर दोहे लिखे हैं। यथार्थ, तथ्य और सत्य को सपाटबयानी से कहना आपकी विशिष्टता है।
नाकाफ़ी इस दौर में, ‘भवि’ जी तोड़ प्रयास।
चाटुकारिता के बिना, रखो नहीं कुछ आस।।
कथनी-करनी है अलग, जिनकी मेरे ईश।
न्याय करेंगे किस तरह, ‘भवि’ वो न्यायाधीश।।

१२. श्री शोभित वर्माः-
माता-पिता, गुरु, वृक्ष संरक्षण, राष्ट्रीय चेतना, राजनीति, कर्म, आयुर्वेद आदि विषयों पर आपने उत्तम श्रेणी के दोहे लिखे हैं। आपकी रचनाओं में संचेतना, प्रेरणा और राष्ट्रीय चेतना भी है।
दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप।
देश बदलना है अगर, यत्नशील हों आप।।
किसे फिक्र है वतन की, बनते सभी नवाब।
रोटी चुपड़ी चाहिए, मिलता रहे कबाब।।
जाति-धर्म के नाम पर, मचते रहे बवाल।
जाति-धर्म इसे क्या मिले, पूछो जरा सवाल।।
दोंहों में कहीं-कहीं भावों का दुहराव भी है।
महाशक्ति भारत बने, (पृष्ठ १२५ पर पर दो बार), दोष न मढ़ सरकार पर, करें न मात्र विलाप। (पृष्ठ १२३),
मढ़ें दोष सरकार पर, करते नित्य विलाप। (पृष्ठ १२६)

१३. श्रीमती सरस्वती कुमारी:-
गुरु, नारी, माँ-बाप, विरह, मिलन, शादी, क्षणभंगुरता आदि विषयों पर आपने दोहे लिखे हैं। श्रृंगार रस में लिखे दोहों को पढ़कर महाकवि बिहारी जी की याद आ जाती है। अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है।
पिया मिलन की रात री! होगा मृदु अभिसार।
घूँघट का पट खोलकर, दूँगी तन-मन वार।।
गुल गुलाब पर है फिदा, गुल गुलाब हैरान।
गुल से गुल है कह रहा, तू ही मेरी जान।

१४. डॉ.हरि फैजाबादी:-
हिंदू देवी-देवता, पारस्परिक व्यवहार, मित्रता,सामाजिक विद्रूपता आदि विषयों पर अपनी रचनाधर्मिता निबाही है। स्पष्टवादिता, सरलता और सादगी के साथ ही भाषा पर पकड़ देखते ही बनती है। आपके दोहों में उर्दू का प्रयोग अधिक है।
कुत्तों को भी आदमी, जैसी ही तकदीर।
कोई जूठन खा रहा, कोई मुर्ग-पनीर।।
रिश्ता यूँ होता नहीं, कोई अमर-बुलंद।
गुल मरते हैं तब कहीं, बनता है गुलकंद।।

१५. .हिमकर श्याम:-
राष्ट्रीय चेतना, वोट, नदी प्रदूषण, धर्म निरपेक्षता, दीवाली, मजदूर, हिंदी भाषा आदि विषयों पर दोहे लिखे हैं। उनके दोहों में सामाजिक विद्रूपता व आक्रोश स्पष्ट झलकता है।
आँखों का पानी मरा, कहाँ बची है शर्म?
सब नेता बिसरा रहे, जनसेवा का कर्म।।
हिंदी हिंदुस्तान की, सदियों से पहचान।
हिंदी जन मिलकर करें, हिंदी का उत्थान।।
भूखे बच्चों के लिए, क्या होली,क्या रंग?
फीके रंग गुलाल हैं, जीवन है बदरंग।।

कला पक्ष:- 
इस पुस्तक के दोहों के भाव उच्च कोटि के होते हुए भी जगह-जगह शिल्प की कमी नजर आती है। चूँकि अधिकांश रचनाकार अभी छंद की सीढ़ियों पर चढ़ ही रहे हैं अतः शिल्प में कमी होना स्वाभाविक है। कहीं-कहीं थोड़े और अभ्यास की जरूरत महसूस हो रही है। इसके विपरीत बहुत सारे दोहे उच्च कोटि के उच्चतम पायदान पर भी हैं। नई शैली, नव कथ्य, नए-नए विषय, नवीन बिंब-योजना, नये-नये उपमान, अलंकारों और रसों के
संतुलित प्रयोग ने इन दोहों को किसी सिद्ध दोहाकार के दोहों से टक्कर लेने योग्य बना दिया है। शिल्प की कमियों में कुछ कमियाँ प्रूफरीडिंग की भी हैं। जहाँ कहीें भी ब्रह्म या ब्रह्मा शब्द का प्रयोग हुआ है, सभी जगह गलत टाइप किया हुआ है। ब्रम्ह या ब्रम्हा ही प्रयुक्त हुआ है। शिल्प की अन्य कमियाँ निम्नवत हैं-

१. दोहे की ११वीं मात्रा लघु न होना- दोहे के दोनों समचरणों की ११ वीं मात्रा को बहुधा दोहाकार लघु रखते चले आ रहे हैं। कतिपय दोहाकार विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु रखने के तर्क को नहीं मानते। श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘भानुकवि‘ ने अपने छंद प्रभाकर में दोहे के विषम चरण के आदि में जगण का स्पष्ट निषेध किया और इसके अंत में ‘सरन‘ अर्थात सगण रगण, नगण के प्रयोग की सलाह दी जिससे स्वतः ही विषम चरण की ११ वीं मात्रा लघु होती ही है। इससें दोहे की लय भी सुधरती है। आगे भी जब भानुकवि ने दोहे के २३ भेदों को समझाते हुए हरेक के उदाहरण स्वरूप दोहे लिखे हैं तो उनमें भी किसी भी दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा दीर्घ नहीं रखी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दोहे के विषम चरण की ११ वीं मात्रा को लघु ही रखने में बेहतर लय प्राप्त होगी। अतः, मेरे विचार में दोहे के विषम चरणों की ११ वी मात्रा को लघु ही रखा जाना चाहिए।

श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- झाड़-फूँक की जड़ें हैं पृष्ठ १३, श्री अरुण शर्मा- दशरथ जैसे पिता सौ पृष्ठ २४, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- थकीं गोपियाँ टिकाया पृष्ठ ३४,  श्री ओम प्रकाश शुक्ल- माँ-माँ करते बिताया- पृष्ठ ४६,  श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव- भोर बाँटती फिरे है पृष्ठ ५३,  रात महकने लगी है पृष्ठ ५७, फागुन तन-मन भिगाता, कान पकड़ कर हवा को पृष्ठ ५८, जिन्हें देखकर जरा भी पृष्ठ ५९,  सुश्री नीता सैनी- हर घर की है जरूरत, पिएँ अतिथि को पिलाएँ पृष्ठ ६५, माँ शारद की कृपा से, आ! चल कचरा उठाएँ , भू में नीचे उतारे पृष्ठ ६९, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे - लील सड़क पुल इमारत पृष्ठ ७५, नहा मगर मन लगा मत, हँस सूरज ढल जाएगा, शस्य श्यामला धरा ने, प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों पृष्ठ ७६, आँसू में बह जाएगा पृष्ठ ७७, चौराहे पर खड़ा हो,  मधुवन-विषधर डँसे री पृष्ठ ७८, श्री रामकुमार चतुर्वेदी भक्ति भाव में रमे है पृष्ठ ९६, नेता चम्मच बताते पृष्ठ ९७, लुढ़के शेयर धड़ाधड़ पृष्ठ ९८, सुश्री रीता सिवानी- स्वार्थ साध बस गया वह पृष्ठ १०७, श्री शोभित वर्मा राम राम जप निरंतर पृष्ठ १२५, राग-द्वेष सब भुला दो पृष्ठ १२७, गीदड़ रहते डरे से,  जनता ने तो चुनी थी-पृष्ठ १२९,  क्या जनमत का सुनेगा, भारत जैसा मिलेगा, घूम रहे हैं विदेशी पृष्ठ १३०, सुश्री सरस्वती कुमारी- नज़र,नज़र से मिली, जब पृष्ठ १३७, स्वस्थ निरोगी सुखी हों पृष्ठ१४०, डॉ. हरि फैजाबादी- तुम्हें एक त्रुटि बताता  पृष्ठ १४४,  श्री हिमकर श्याम- हुए न पूरे अभी तक पृष्ठ १५८, माँ श्री उतरी धरा पर, निरख रही माँ यशोदा पृष्ठ १५९ ने ११ वीं मात्रा लघु नहीं रखी है।

२. मात्रा विचलन- दोहे के प्रत्येक विषम चरण में १३ तथा सम चरण में ११  मात्रायें होनी चाहिए। लेकिन कहीं-कहीं दोहाकार इस विधान से चूके हैं।
श्री अखिलेश खरे 'अखिल'- दुल्हिन सी खेती खड़ी पृष्ठ १५, दरिया दुल्हिन सी सहम पृष्ठ १८, श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- पाकर कृष्ण स्पर्श पृष्ठ ३५, राजन मिला न ल़क्ष्मी पृष्ठ ३६, हरि कर-कमल स्पर्श से पृष्ठ ३७, काम धाम अरु चेष्टा पृष्ठ ३८, श्री ओमप्रकाश शुक्ल- निर्णय करता ईश्वर, मध्य रात्रि घनश्याम पृष्ठ ४६, काजल सो नैनन बस्यो पृष्ठ ५०, श्री जयप्रकाश  श्रीवास्तव- नदी गाय सी मरती पृष्ठ ५६, प्रीत हिंडोला झूलती पृष्ठ ५८, सुश्री नीता सैनी- सौर ऊर्जा काम ले पृष्ठ ६९, संस्कार गायब हुए पृष्ठ ७०, सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे-
कर सिंगार सकुचा गई,  हरसिंगार की डार पृष्ठ ७३,  बुद्धि-चित्त विकृत भ्रमित पृष्ठ ७४, सिझा-सिंका जीवन बहुत, अब अमृत बौछार पृष्ठ ७६, जिव्हा अक्सर फिसलती, रवि तनया स्मृति नवल पृष्ठ ७७, लय अनुसारिणी अथच ज्यों पृष्ठ ७९, अइंठ अइंठ रह जांय पृष्ठ ८०, सुश्री रीता सिवानी- बनाने को मजदूर पृष्ठ १०५, भूली अपनी संस्कृति पृष्ठ १०७, पीड़ित दुख दारिद्रय से पृष्ठ ११४,  सुश्री सरस्वती कुमारी- रंग रंगीली राधिका पृष्ठ १३३, वर्ण, मात्रा मेल से पृष्ठ १३७, श्री हिमकर श्याम- पर्यावरण की सुरक्षा पृष्ठ १५६, बरसे अमृतधार, अमृतमय पय-पान पृष्ठ १५९। 

३. तुकांत दोड्ढ-ंउचय अधिकतर दोहे बहुत अच्छे तुकांत लेकर रचे गये है।लेकिन कहीं-ंकहीं पर समतुकांती बनाने में दोहाकार चूके भी हैं।
श्री उदयभानु तिवारी मधुकर- छुन्न-किन्न, हर्ष-स्पर्श, युक्त,सिक्त, आभास-सकाश पृष्ठ ३४,३५, ४०। सुश्री डॉ.नीलमणि दुबे- घाव-छाँव पृष्ठ ७४। श्री रामकुमार चतुर्वेदी पान-पान, दाँव-अलगाव, बाँट-चाट, देश-कैश पृष्ठ ९३-९४, सुश्री सरस्वती कुमारी मौन-गौण पृष्ठ १४०।

४. भाषागत दोष- यद्यपि सभी दोहों में भाषा की शुद्धता का ध्यान रखा गया है, फिर भी कहीं-कहीं कलम चूकी है। अधिकतर दोहाकारों ने अनुस्वार और अनुनासिक में भेद नहीं किया। रंग और रँग तथा संग और सँग एक ही
अर्थ में प्रयोग किया है। जबकि सँग कोई शब्द ही नहीं है। इसी प्रकार 'रंग' (पेंट) संज्ञा है और रँग (टु पेंट) क्रिया है अर्थात रँगना। रंग में तीन मात्रा है तो रँग में दो। केवल मात्रा संतुलन के लिए ही ऐसा किया गया है।
पृष्ठ ३३ पर दो उदाहरण देखें- सुन्दरता निधि संग से, हुआ मनोरथ पूर्ण।, निज देवी सँग देवगण, प्रकटे दिव्य शरीर।  -श्री उदय भानु तिवारी मधुकर जी।  इन दोनों चरणों में संग और सँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के
लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
पृष्ठ ४३ पर श्री ओमप्रकाश शुक्ल जी का दोहा देखें-  ऊषा फगुवा रँग रँगी, संध्या रँगी बसंत।
इसी प्रकार पृष्ठ ५९ पर श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव जी का दोहा देखें-
फूलों के रँग में घुली, मादकता की गंध।
फागुन लेकर आ गया, रंग अबीर गुलाल।।
यहाँ भी रंग और रँग का अर्थ एक ही है लेकिन मात्रा के लिए दोहे को ही दोषपूर्ण बना दिया गया।
अधिकतर कवियों ने इसी प्रकार दुःख और दुख शब्द के साथ भी खिलवाड़ किया है। जबकि दुःख में तीन मात्रा और दुख में दो मात्रायें है। हिन्दी कविता में जहाँ तक सम्भव हो केवल हिन्दी शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए।
आँचलिक या अन्य भाषाओं के षब्दों को केवल अपरिहार्यता, उस विशेष शब्द की गुणग्राहकता के कारण ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए या उनको हिंदी ने अपना लिया हो। उर्दू,अंग्रेजी या सधुक्कड़ी शब्दों को हिन्दी कविता में अनावश्यक ठूँसने की बलात कोशिश हिंदी के साथ बलात्कार से कम नहीं मानी जानी चाहिए। नीचे कुछ शब्द दिए / उद्धृत किए जा रहें हैं जो हिन्दी भाषा के नहीं हैं।
अंग्रेजी भाषा के शब्द- बेस्ट, टेस्ट, मूड, फूड, रेट, एजेंट, टेंट, कोचिंग, संडे, नेट, सेट, कंट्रोल, फेसवाश, फेस, बेस।
उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग बहुत किया गया है, लेकिन नुक्ते का ध्यान नहीं रखा गया। कत्लेआम, करार, ख्वाब, गुल, गुलशन, जेहाद, दफ्न, दहशतगर्द, नफीस, नबेर, फिदा, बेपर्द, माकूल, मिजाज, वादे, हद। 
नए शब्द जिनका अर्थ नहीं दिया गया-  छुन्नक छुन्न, किन्नक किन्न, मुरंद, अथच, इरखा,
अशुद्ध / शुद्ध शब्द- सानिन्ध्य / सान्निध्य पृष्ठ २५, शुद्धीकरण / शुद्धिकरण पृष्ठ ५९, श्रृंगार / शृंगार पृष्ठ६०, १५९, दारिद्र्य / दारिद्रय पृष्ठ ६७, ११४,  आल्हाद / आह्लाद पृष्ठ ७३, शरीखी / सरीखी पृष्ठ ११०, कलेश / क्लेश पृष्ठ ६८, १२३।

५. जगण दोष- हिंदी कविता में विशेष तौर से प्रारंभ में जगण शब्दों के प्रयोग को अच्छा नहीं माना गया है। एक स्थान को छोड़, कहीं पर भी इस नियम को भंग नहीं किया गया है। इसीलिए सबसे मधुर, है मन का संगीत।
डॉ. हरि फैजाबादी पृष्ठ १४३। 

६. लय भंग- दोहे के १३ मात्रिक विषम चरणों में ४, ४, ३, २ अथवा ३, ३, २, ३, २ तथा सम चरणों में ४, ४, ३  अथवा ३, ३, २, ३  मात्राओं का क्रम अपनाया जाए तथा सम-विषम  और लघु-गुरु नियमों का ध्यान रखा जाए तो लय भंग होने की सम्भावना नगण्य हो जाती है। अधिकतर दोहे पूर्ण लययुक्त हैं लेकिन कहीं-ंकहीं चूक भी हुई है। मूल लय / वैकल्पिक लय चाल फागुनी पवन सी / चाल पवन सी फागुनी पृष्ठ १८,  मिलकर कोशिश यदि करें / यदि मिलकर कोशिश करें या कोशिश मिलकर यदि करें पृष्ठ २९, थोड़ा हर सकते न तो /  हर सकते थोड़ा नहीं? पृष्ठ ४७, ओस-बूँद भागी, भिगा, कली कली का रूप / ओस-बूँद भागी, भिगो,कली कली का रूप  पृष्ठ ५५, आना जाना सतत है / आना जाना है सतत पृष्ठ ७५।
निम्न परिवर्तन  करने से ११ वी मात्रा लघु हो गयी है।
पृष्ठ ७५- नहा,मगर मन लगा मत / नहा, मगर, मन मत लगा पृष्ठ ७८-  चौराहे पर खड़ा हो चौराहे पर हो
खड़ा, पृष्ठ ९६- भक्ति भाव में रमे हैं / भक्ति भाव में हैं रमे, पृष्ठ ९८- लुढ़के शेयर धड़ाधड़ / धड़ाधड़  लुढ़के, पृष्ठ  १०७- स्वार्थसाध बस गया वह / स्वार्थ साध वह बस गया, पृष्ठ १२७- राग-द्वेष सब भुला दो / राग द्वेष  भुला सब दो, पृष्ठ १४०- स्वस्थ,निरोगी सुखी हो / सुखी, निरोगी, स्वस्थ हों। 

७. आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग- कवि का सबसे पहला धर्म यह होता है कि उसकी रचना के किसी भी वाक्य या शब्द से किसी व्यक्ति ,समुदाय, जाति विशेष या धर्म को चोट न पहुँचे। पूरी पुस्तक में दो ऐसे दृष्टांत हैं जो किसी किसी वर्ग विशेष को आहत कर सकते हैं - सर्द हवायें आधुनिक, नारी सी उद्दंड (श्री जयप्रकाश  श्रीवास्तव पृष्ठ ५५) तथा कुल कलंक ही हो गये, हरियाणा के जाट (श्री बसंत कुमार शर्मा पृष्ठ ८५) ऐसे वाक्यों से बचा जाना चाहिए। 
इसी प्रकार श्री उदयभानु तिवारी मधुकर जी का पृष्ठ ३६ पर दोहा थोड़ा  अश्लीलता का पुट लिए है।
हरि के तन से टिक गई, फिर ले उनका हाथ।
निज कुच पर झट रख लिया, झुका लिया लज माथ।।

८. दोहों की पुनरावृत्ति- दो कवियों ने दो-दो दोहे लगभग समान भाव और समान शब्दों को लेकर रचे हैं।
मन के मन में झाँककर, मन से मन की बात। / करो मिलेगी प्रेम की, फिर मनहर सौगात।। श्री उदयभानु तिवारी मधुकर पृष्ठ ४३, , इनका ही पृष्ठ ४५ पर दूसरा दोहा देखें- मन से मन में झाँक कर, कर लो मन की बात।
/ मिल जाएगी आपको, पुनः प्रेम सौगात।।
इसी प्रकार सुश्री शुचि भवि जी के दो दोहे देखें - कृपा सभी पर कीजिए, ईश हमेशा आप। / सद्गुण सबको दीजिये, करे न कोई पाप।। पृष्ठ ११६ एवं ११७।

९. अस्पष्ट दोहा- निम्न दोहे के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है, स्पष्ट  नहीं हो सका।
चाय बिना आती नहीं, खुलती नींद, न राम।
चाय के बिना कवि की नींद नहीं खुलती या नींद नहीं आती? यह स्पष्ट  नहीं हो सका।

१०. अन्य कमियाँ-  व्याकरण सम्बन्धित सामान्य त्रुटियाँ जगह-जगह दृष्टिगत हैं। प्रश्नवाचक, सम्बोधन, आश्चर्यबोधक संयोजक चिह्नों पर अधिकतर असावधानी बरती गयी है। किसी भी कवि ने विषयवार दोहे संकलित नहीं किए। एक विषय पर एक ही कवि द्वारा लिखे गये सभी दोहे एक साथ रखने पर उस विषय को और अधिक गहराई से समझा जा सकता था और तारतम्यता भी भंग नहीं होती। पुस्तक के प्रारंभ मेंदी गई अनुक्रमणिका पर अगर हरेक कवि के नाम के आगे उसके रचित दोहों की संख्या दर्शा दी जाती तो यह स्पष्ट हो जाता कि पुस्तक में कुल कितने दोहे हैं। इसी प्रकार जहाँ पर दोहे प्रकाशित किए गए हैं प्रत्येक दोहे का क्रमांक अंकित होना चाहिए था ताकि किसी विशेष दोहे को उसके क्रमांक के साथ उद्धृत किया जा सके।

उपसंहार- १५ नए और पुराने रचनाकारों को समेटे यह कृति निःसंदेह नवागंतुकों के लिए एक मील का पत्थर है। दोहा लेखन कला से लेकर नवीन बिंब योजना तक है, इस पुस्तक में।
वर्ण, मात्रा मेल से, बनता छंद विधान।
यति गति लय के मिलन से, बढ़ता भाव निधान। (सुश्री सरस्वती कुमारी, पृष्ठ १३७)
चार चरण दो पंक्तियाँ, मात्राएँ चौबीस।
तेरह ग्यारह, बाद यति, दोहा लिखे नफीस।। (श्री बसंत शर्मा, पृष्ठ ८७)

यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय तो है ही, साथ ही नवागंतुकों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ की तरह उपयोगी भी है। इसका स्वागत होना ही चाहिए।
अमर नाथ
४०१ उदयन १ , बंगला बाजार, लखनऊ। 

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