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शुक्रवार, 3 जून 2011

नवगीत : बिना पढ़े ही... --- संजीव 'सलिल'

नवगीत :
बिना पढ़े ही...
संजीव 'सलिल'
*
बिना पढ़े ही जान, बता दें
क्या लाया अख़बार है?
पूरक है शुभ, अशुभ शीर्षक,
समाचार-भरमार है.....
*
सत्ता खातिर देश दाँव पर
लगा रही सरकार है.
इंसानियत सिमटती जाती
फैला हाहाकार है..
देह-देह को भोग, 
करे उद्घोष, कहे त्यौहार है.
नारी विज्ञापन का जरिया
देश बना बाज़ार है.....
*
ज्ञान-ध्यान में भेद कई पर
चोरी में सहकार है.
सत-शिव त्याज्य हुआ 
श्री-सुन्दर की ही अब दरकार है..
मौज मज़ा मस्ती पल भर की
पालो, भले उधार है.
कली-फूल माली के हाथों
होता नित्य शिकार है.....
*
वन पर्वत तालाब लीलकर
कहें प्रकृति से प्यार है.
पनघट चौपालों खलिहानों 
पर काबिज बटमार है.
पगडन्डी को राजमार्ग ने 
बेच किया व्यापार है.
दिशाहीनता का करता खुद 
जनगण अब सत्कार है...
*


 

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