रचना-प्रतिरचना
ग़ज़ल
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी
आभार: ठाले-बैठे
*
साहब
संजीव 'सलिल'
*
खौफ दिल में बसाइए साहब.
लट्ठ तब ही चलाइए साहब..
*
गलतियाँ क्यों करें? टालें कल पर.
रस्म अब यह बनाइए साहब..
वक़्त का खौफ क्यों रहे दिल में?
दोस्त कहकर लुभाइए साहब.
हर दरे-दिल पे न दस्तक दीजे.
एक दिल में समाइए साहब..
शौक तो शगल है अमीरों का.
फ़र्ज़ अपना निभाइए साहब..
नाम बदनाम का भी होता है.
रह न गुमनाम जाइए साहब..
सुबह लाता है अँधेरा ही 'सलिल'.
गीत तम के भी गाइए साहब..
*
ग़ज़ल
नवीन चन्द्र चतुर्वेदी
आभार: ठाले-बैठे
*
खौफ़, दिल से निकालिये साहब|
सल्तनत, तब - सँभालिये साहब|१|
आज का काम आज ही करिए|
इस को कल पे न टालिये साहब|२|
वक़्त कब से बता रहा तुमको|
वक़्त को यूँ न घालिए साहब|३|
सब के दिल में जगह मिले तुमको|
इस तरह खुद को ढालिए साहब|४|
शौक़ हर कोई पालता है, य्हाँ|
कुछ 'भला', तुम भी पालिए साहब|५|
इस जहाँ में बहुत अँधेरा है|
दिल जला, दीप -बालिए साहब|६|
गर ज़माने में नाम करना है|
कोई शोशा उछालिए साहब|७|
सल्तनत, तब - सँभालिये साहब|१|
आज का काम आज ही करिए|
इस को कल पे न टालिये साहब|२|
वक़्त कब से बता रहा तुमको|
वक़्त को यूँ न घालिए साहब|३|
सब के दिल में जगह मिले तुमको|
इस तरह खुद को ढालिए साहब|४|
शौक़ हर कोई पालता है, य्हाँ|
कुछ 'भला', तुम भी पालिए साहब|५|
इस जहाँ में बहुत अँधेरा है|
दिल जला, दीप -बालिए साहब|६|
गर ज़माने में नाम करना है|
कोई शोशा उछालिए साहब|७|
(लाललाला लला लला लाला)
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प्रति-रचना:मुक्तिका:साहब
संजीव 'सलिल'
*
खौफ दिल में बसाइए साहब.
लट्ठ तब ही चलाइए साहब..
*
गलतियाँ क्यों करें? टालें कल पर.
रस्म अब यह बनाइए साहब..
वक़्त का खौफ क्यों रहे दिल में?
दोस्त कहकर लुभाइए साहब.
हर दरे-दिल पे न दस्तक दीजे.
एक दिल में समाइए साहब..
शौक तो शगल है अमीरों का.
फ़र्ज़ अपना निभाइए साहब..
नाम बदनाम का भी होता है.
रह न गुमनाम जाइए साहब..
सुबह लाता है अँधेरा ही 'सलिल'.
गीत तम के भी गाइए साहब..
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