एक रचना:हुआ क्यों मानव बहरा?संजीव 'सलिल'*कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़, न पौधा कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
काट रहे नित पेड़, न पौधा कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?.
कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
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2 टिप्पणियां:
Rizwana
Behad achhee rachana hai!
Manav swarth ke chakkar me nadani nahee chhodega kabhi!
kas is nadani ko hum samajh pate....
jee yahi khud ko bachane ka ekmatra sadhan hai
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