नवगीत:दोहा गीत
समय-समय का फेर है...संजीव 'सलिल'
*
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.
जो है लल्ला आज वह-
कल हो जाता तात.....
*
जमुना जल कलकल बहा
रची किनारे रास.
कुसुम कदम्बी कहाँ हैं?
पूछे ब्रज पा त्रास..
रूप अरूप कुरूप क्यों?
कूड़ा करकट घास.
पानी-पानी हो गयी
प्रकृति मौन उदास..
पानी बचा न आँख में-
दुर्मन मानव गात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
जो था तेजो महालय,
शिव मंदिर विख्यात.
सत्ता के षड्यंत्र में-
बना कब्र कुख्यात ..
पाषाणों में पड़ गए
थे तब जैसे प्राण.
मंदिर से मकबरा बन
अब रोते निष्प्राण..
सत-शिव-सुंदर तज 'सलिल'-
पूनम 'मावस रात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
*
घटा जरूरत करो, कुछ
कचरे का उपयोग.
वर्ना लीलेगा तुम्हें
बनकर घातक रोग..
सलिला को गहरा करो,
'सलिल' बहे निर्बाध.
कब्र पुन:मंदिर बने
श्रृद्धा रहे अगाध.
नहीं झूठ के हाथ हो
कभी सत्य की मात.
समय-समय का फेर है,
समय-समय की बात.....
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3 टिप्पणियां:
bahutkhoob
thanks alot bhaee sanjivji
ऐसी ही जगाने वाली रचनाओं की आज हमें बहुत आवश्कता है |
थी तो कल भी, लेकिन आज का वातावरण उपयुक्त हो गया है |
भारत में ही नहीं, इस नंगापन का नृत्य दुनिया में हर कहीं दीख रहा है |
बन काटे या उजाड़े जारहे हैं, नदियाँ रोकी जारही हैं, कृत्रिम खाद से उपजाऊ जमीन को भी
बेकार बनाया जा रहा है |
ऐसे में आपकी कवितायेँ बहुत ही आवश्यक हो गईं है और जरूरत है की सभी पढ़ें और गुनें |
आपका ढेरो अहसान है समाज पर |
सादर अभिवादन और धन्यबाद ||
Your's ,
Achal Verma
-Thu, 6/16/11, sn Sharma
आ० आचार्य जी,
समय का फेर कविता और साथ ही प्रकाशित कुंडलियों के द्वारा आपने प्रकृति के साथ मानव
द्वारा किया गया अत्याचार के कुफल को बड़े मार्मिक और सटीक रूप में बड़े कौशल से व्यक्त
किया है | आपकी काव्य-प्रतिभा को नमन !
कमल
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