मुक्तिका:
नर्मदा नेह की...
संजीव 'सलिल'
*
नर्मदा नेह की, जी भर के नहायी जाए.
दीप-बाती की तरह, आस जलायी जाए..
*
भाषा-भूषा ने बिना वज़ह, लड़ाया हमको.
आरती भारती की, एक हो गायी जाए..
*
दूरियाँ दूर करें, दिल से मिलें दिल अपने.
बढ़ें नज़दीकियाँ, हर दूरी भुलायी जाए..
*
मंत्र मस्जिद में, शिवालय में अजानें गूँजें.
ये रवायत नयी, हर सिम्त चलायी जाए..
*
खून के रंग में, कोई फर्क कहाँ होता है?
प्रेम के रंग में, हरेक रूह रँगायी जाए..
*
हो न अलगू से अलग, अब कभी जुम्मन भाई.
खाला इसकी हो या उसकी, न हरायी जाए..
*
मेरी बगिया में खिले, तेरी कली घर माफिक.
बहू-बेटी न कही, अब से परायी जाए..
*
राजपथ पर रही, दम तोड़ सियासत अपनी.
धूल जनपथ की 'सलिल' इसको फंकायी जाए..
*
मेल का खेल न खेला है 'सलिल' युग बीते.
आओ हिल-मिल के कोई बात बनायी जाए.
****************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
नर्मदा नेह की...
संजीव 'सलिल'
*
नर्मदा नेह की, जी भर के नहायी जाए.
दीप-बाती की तरह, आस जलायी जाए..
*
भाषा-भूषा ने बिना वज़ह, लड़ाया हमको.
आरती भारती की, एक हो गायी जाए..
*
दूरियाँ दूर करें, दिल से मिलें दिल अपने.
बढ़ें नज़दीकियाँ, हर दूरी भुलायी जाए..
*
मंत्र मस्जिद में, शिवालय में अजानें गूँजें.
ये रवायत नयी, हर सिम्त चलायी जाए..
*
खून के रंग में, कोई फर्क कहाँ होता है?
प्रेम के रंग में, हरेक रूह रँगायी जाए..
*
हो न अलगू से अलग, अब कभी जुम्मन भाई.
खाला इसकी हो या उसकी, न हरायी जाए..
*
मेरी बगिया में खिले, तेरी कली घर माफिक.
बहू-बेटी न कही, अब से परायी जाए..
*
राजपथ पर रही, दम तोड़ सियासत अपनी.
धूल जनपथ की 'सलिल' इसको फंकायी जाए..
*
मेल का खेल न खेला है 'सलिल' युग बीते.
आओ हिल-मिल के कोई बात बनायी जाए.
****************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
16 टिप्पणियां:
अति सुन्दर सलिल जी !
आपकी इस कविता पर, कुछ पंक्तियाँ समर्पित-
मेरे अन्दर एक सूरज है,
जिसकी सुनहरी धूप
देर तक मन्दिर पे ठहरकर
मस्जिद पे पसर जाती है
शाम ढले, मस्जिद के दरो औ-
दीवार को छूती हुई मन्दिर की
चोटी को चूमकर
छूमन्तर हो जाती है!
मेरे अन्दर एक बादल है,
जो गंगा से जल लेता है
काशी पे बरसता जमकर
मन्दिर को नहला देता है,
काबा पे पहुँचता वो फिर
मस्जिद को तर करता है!
तेरे-मेरे दुर्भाव को,
कहीं दूर भगा देता है!
मेरे अन्दर एक झोंका है,
भिड़ता कभी वो आँधी से,
तूफ़ानों से लड़ता है,
मन्दिर से लिपट कर वो फिर
मस्जिद पे अदब से झुक कर
बेबाक उड़ा करता है
प्रेम सुमन की खुशबू से
महका बहका रहता है!
मेरे अन्दर एक धरती है,
मन्दिर को गोदी लेकर
मस्जिद की कौली भरती है,
कभी प्यार से उसको दुलराती
कभी उसको थपकी देती है,
ममता का आँचल ढककर
दोनों को दुआ देती है !
मेरे अन्दर एक आकाश है,
बुलन्द और विराट है,
विस्तृत और विशाल है,
निश्छल और निष्पाप है,
घन्टों की गूँजें मन्दिर से,
उठती अजाने मस्जिद से
उसमें जाकर मिल जाती है
करती उसका विस्तार है !
बड़ी-बड़ी बधाई सलिल जी!
आपकी मनमोहक रचना और आपके लिए दुआएं!!
दीप्ति
- ibmital@gmail.com
६/२७/११
पढ़ कर मन भीतर तक भीग-भीग गया.
भक्ति भाव की कैसी अद्भुत अभिव्यक्ति?
इंदिरा
- उद्धृत पाठ दिखाएं -
--
Indira Mital
7912 Fielding Lane
Greendale, WI 53129
Ph: (414)421-8046
achal verma ✆ ekavita
आदरणीय आचार्य ,
शब्दों को आपने कमाल का जामा पहना दिया है
जो उन्हें अत्यंत आकर्षक बना रहे हैं|
हरेक शब्द अपनी अपनी जगह पर चुस्त और दुरुस्त हैं, जो भाव की प्रबलता को उजागर कर रहे हैं |
\अचल \
आ०. आचार्य जी,
भाईचारा और बंधुत्व की दिशा में प्रेरक मुक्तिकाओं के लिये साधुवाद !
सादर
कमल
>मंत्र मस्जिद में, शिवालय में अजानें गूँजें.
>ये रवायत नयी, हर सिम्त चलायी जाए..
बहुत अच्छे सलिल जी ...
अपनी दो पंक्तियां याद आ गई जो मैनें हाल ही में एक हिन्दी-उर्दु मुशायरे में पढी थी ..
आओ मिल जुल कर प्यार की एक रुबाई लिखें
हिन्दी में गालिब सी गज़ल , उर्दु में तुलसी की चौपाई लिखें ।
सादर
अनूप
Anoop Bhargava
732-407-5788 (Cell)
609-275-1968 (Home)
I feel like I'm diagonally parked in a parallel universe.
Visit my Hindi Poetry Blog at http://anoopbhargava.blogspot.com/
Visit Ocean of Poetry at http://kavitakosh.org/
आदरणीय अनूप जी,
धन्य है, ,
" हिंदी में ग़ालिब सी गज़ल उर्दु में तुलसी की चौपाई लिखें "
बहुत खूब हिंदी में ग़ालिब सी ग़ज़ल लिखने के सिवा हिंदी के
कवियों -मैथिलीशरण गुप्त , पन्त, महादेवी ,निराला,प्रसाद
दिनकर, अज्ञेय, से प्रेरणा ले कर लिखने वाले कवियों को
इन महान विभूतियों को तिलांजलि दे कर अब अमर कवि
ग़ालिब जी की शरण में जाना चाहिए | और तुलसी की
चौपाइयों को उर्दु में बांचना चाहिये | यहाँ यही तो हो रहा
है | साथ में फ़िल्मी गीतों को भी हिन्दी कविता में घोल कर
शरबत पिलाने का व्यवसाय भी चमक रहा है | युग-परिवर्तन
की सुन्दर धारा बही है | आपको इस परामर्श के लिये इस
अकिंचन की अनेकानेक बधाइयां !
सादर,
कमल
अनूप जी और आचर्यसलिल जी
आप दोनों को सुन्दर अशआरों के लिये बधाईयाँ।
मुकेश कुमार तिवारी
अग्रिम क्षमायाच्जना सहित
अपनी अपनी सोच बात के अपने अर्थ बना लेती है
दोषी कहलाती है लेकिन शब्दों की ही अक्षमतायें
कितनी बार निहित अर्थों से सोच समझ वंचित रहती है
अपने ही अनुकूल भाव की पगडंदी को मोड़ा जाता
एक शाख जिओ बना सहारा हाथों को छूने लगती है
मोड़ उसी को फिर उस पर से कुछ तीरों को छोड़ा जाता
शब्दकोश सारे मुँहबाये हो अवाक देखा करते हैं
कैसे सहज बदल जाती हैं कुछ शब्दों की परिभाषायें
देती अग्नि यज्ञ को तीली और मंदिरों को दीपक भी
बन सकती है वह चाहे अनचाहे दावानल का कारण
और वही निर्माण कार्य में अद्भुत योग बनी रहती है
आवश्यक बसरखे नियति पर उसकी केवल तनिक नियंत्रण
अपनी खींची हुई लकीरों मेम विचार जब बँध जाते हैं
संभव नहीं किसी के कहने पर वे जरा बदल भी जायें
सादर
राकेश
मुझे नीरज जी की पंक्तियाँ याद आ गयीं,
अब तो इक ऐसा वरक हम दोनों का ईमान हो
इस तरफ गीता हो जिसके उस तरफ कुर'आन हो (स्मृति पर आधारित)
आचार्य सलिल जी को बधाई!
सादर
अमित
mukku41@yahoo.com
आदरणीय संजीव जी, क्या खूब कविता लिखी है.विशेष तौर से -
मेरी बगिया में खिले, तेरी कली घर माफिक.
बहू-बेटी न कही, अब से परायी जाए..
बधाई संजीव जी.
मकैश इलाहाबादी
anoop
bahut sunder two lines.
i love it
umesh rashmi rohatgi
दीप्ति जी, इंदिरा जी, कमल जी, अचल जी, अनूप जी, राकेश जी, मुकेश जी, उमेश जी, अमिताभ जी,
आप सबकी गुणग्राहकता को सादर नमन.
रचना आप जैसे गुणिजनों को रुची तो मेरा कविकर्म सार्थक हो गया.
नेक नीयत से भरा है हर शेर. मुबारक सलिल जी. काश धर्मगुरु और राजनेता ऐसा होने देते.
महेश चन्द्र द्विवेदी
आदरणीय कमल जी,
मैनें अपने मन की बात कही , आप ने अपने मन की । मैने सीधे कही, आप ने व्यंग्य के लहज़े में । चलिये उस में भी आनन्द आया ।
स्पष्ट है कि हमारे विचारों में अन्तर है । मेरी ओर से आप के विचारों को बदलने की चेष्टा व्यर्थ होगी । मेरे भी विचारों के बदलने की सम्भावना नहीं है क्यों कि गलत या सही - वह मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके हैं ।
सादर
अनूप
Anoop Bhargava
732-407-5788 (Cell)
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आ० अनूप जी,
प्रतिक्रिया के लिये साधुवाद |
हम दोनों व्यक्ति ही हैं यही सच है | व्यक्तित्व तो एक ओढा हुआ मुखोटा है
जिससे हम जाने जाते हैं |
Anoop Bhargava ✆ ekavita
आदरणीय कमल जी,
मेरा शब्दज्ञान और वर्तनी दोनो ही कमजोर हैं ।
आप नें ठीक कहा हम दोनों ही व्यक्ति हैं लेकिन यदि व्यक्तित्व का अर्थ ’जिस से मैं जाना जाता हूँ" से है तो मैनें गलत शब्द का प्रयोग किया । मेरा तात्पर्य उन विचारों से था ’जिन से मैं स्वयं अपने आप को जानता हूँ’ ।
सादर
अनूप
Anoop Bhargava
732-407-5788 (Cell)
609-275-1968 (Home)
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