नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बीत गया जो
उसको भूलो.
जीत गया जो
वह पग छूलो.
निज तहजीब
पुरानी छोडो.
नभ की ओर
धरा को मोड़ो.
जड़ को तज
जडमति पछता रे.
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
दूरदर्शनी
एक फलसफा.
वही दिखा जो
खूब दे नफा.
भले-बुरे में
फर्क न बाकी.
देख रहे
माँ में भी साकी.
रूह बेचकर
टका कमा रे...
कौन किताबों से
सर मारे?...
*
बटन दबा
दुनिया हो हाज़िर.
अंतरजाल
बन गया नाज़िर.
हर इंसां
बन गया यंत्र है.
पैसा-पद से
तना तंत्र है.
निज ज़मीर बिन
बेच-भुना रे...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... --आचार्य संजीव 'सलिल'
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गुरुवार, 19 नवंबर 2009
नव गीत : चलो भूत से मिलकर आएँ... -संजीव 'सलिल'
नव गीत :
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
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तेवरी -संजीव 'सलिल'
: तेवरी :
संजीव 'सलिल'
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
****************
संजीव 'सलिल'
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
****************
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 18 नवंबर 2009
नवगीत: सूना-सूना घर का द्वार -संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
भौजाई के
बोल नहीं,
बजते ढोलक-
ढोल नहीं.
नहीं अल्पना-
रांगोली.
खाली रिश्तों
की झोली.
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
माटी का
दीपक गुमसुम.
चौक न डाल
रहे हम-तुम.
सज्जा हेतु
विदेशी माल.
कुटिया है
बेबस-बेहाल.
श्रमजीवी
रोता बेज़ार.
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने,
दिया न हाथ-
गले मिलने.
नातों को
जीता छल ने .
लगी चाँदनी
चुप ढलने.
'सलिल' न प्रवाहित
नेह-बयार.मना रहे
कैसा त्यौहार?...
****************
संजीव 'सलिल'
सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
भौजाई के
बोल नहीं,
बजते ढोलक-
ढोल नहीं.
नहीं अल्पना-
रांगोली.
खाली रिश्तों
की झोली.
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
माटी का
दीपक गुमसुम.
चौक न डाल
रहे हम-तुम.
सज्जा हेतु
विदेशी माल.
कुटिया है
बेबस-बेहाल.
श्रमजीवी
रोता बेज़ार.
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने,
दिया न हाथ-
गले मिलने.
नातों को
जीता छल ने .
लगी चाँदनी
चुप ढलने.
'सलिल' न प्रवाहित
नेह-बयार.मना रहे
कैसा त्यौहार?...
****************
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शनिवार, 14 नवंबर 2009
नवगीत: संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
दवा ज़हर की
सिर्फ ज़हर है...
*
विश्वासों को
तजकर दुनिया
सीख-सिखाती तर्क.
भुला रही
असली नकली में
कैसा, क्या है फर्क?
अमृत सागर सुखा
पूछती कहाँ खो गयी
हर्ष-लहर है...
*
राष्ट्र भूलकर
महाराष्ट्र की
चिंता करता राज.
असल नहीं, अब
हमें असल से
ज्यादा प्यारा ब्याज.
प्रकृति पुत्र है,
प्रकृति का शोषक
ढाता रोज कहर है....
*
दुनिया पूज रही
हिंदी को.
हमें न तनिक सुहाती.
परदेशी भाषा
अन्ग्रेज़ी हमको
'सलिल' लुभाती.
लिखीं हजारों गजल
न लेकिन हमको
ज्ञात बहर है...
*****************
संजीव 'सलिल'
दवा ज़हर की
सिर्फ ज़हर है...
*
विश्वासों को
तजकर दुनिया
सीख-सिखाती तर्क.
भुला रही
असली नकली में
कैसा, क्या है फर्क?
अमृत सागर सुखा
पूछती कहाँ खो गयी
हर्ष-लहर है...
*
राष्ट्र भूलकर
महाराष्ट्र की
चिंता करता राज.
असल नहीं, अब
हमें असल से
ज्यादा प्यारा ब्याज.
प्रकृति पुत्र है,
प्रकृति का शोषक
ढाता रोज कहर है....
*
दुनिया पूज रही
हिंदी को.
हमें न तनिक सुहाती.
परदेशी भाषा
अन्ग्रेज़ी हमको
'सलिल' लुभाती.
लिखीं हजारों गजल
न लेकिन हमको
ज्ञात बहर है...
*****************
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
मेघदूत श्लोक ३१ से ३५
मेघदूत श्लोक ३१ से ३५
भावानुवादक ..प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
प्राप्यावन्तीन उदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान
पूर्वोद्दिष्टाम उपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषैः पुण्यैर हृतम इव दिवः कान्तिमत खण्डम एकम॥१.३१॥
अवन्ती जहां वृद्धजन ग्राम वासी
कुशल हैं कथाकार उदयन कथा के
विशद पूर्व वर्णित पुरी , पूर्ण वैभव
परं रम्य विस्तीर्ण उज्जैन जा के
जिसे पुण्य के क्षीण होते स्वतः के
गये स्वर्गजन ने धरा पर उतारा
कि मानो बचे पुण्य को मोल देकर
लिया पा यहां स्वर्ग का खण्ड प्यारा
दीर्घीकुर्वन पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः
यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिम अङ्गानुकूलः
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥१.३२॥
जहां सारसों का कलित नादवर्धक
सदा प्रात प्रमुदित कमल गंधवाही
कि शिप्रा समीरण सुखद, तरुणियों के
मिटाता सुरति खेद प्रिय सम सदा ही
हारांस तारांस तरलगुटिकान कोटिशः शङ्कशुक्तीः
शष्पश्यामान मरकतमणीन उन्मयूखप्ररोहान
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान विद्रुमाणां च भङ्गान
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस तोयमात्रावशेषाः॥१.३३॥
जहां विपणि में हार अगणित अनेकों
सुखद शंख , सीपी , हरित मणि विनिर्मित
प्रभा पूर्ण मूंगों , तरल मोतियों से
भरेलख , जलधि भास होते प्रवंचित
प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजो ऽत्र जह्रे
हैमं तालद्रुमवनम अभूद अत्र तस्यैव राज्ञः
अत्रोद्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भम उत्पाट्य दर्पाद
इत्य आगन्तून रमयति जनो यत्र बन्धून अभिज्ञः॥१.३४॥
प्रद्योत की प्रिय सुता का , हरण
था यहां पर हुआ वत्स नरराज द्वारा
यहां ताल तरु का लगा बाग था
स्वर्ग निर्मित उसी भूप का , ख्यातिवाला
मदमस्त गजराज नलगिरि कभी
यहां भटका , यहां एक खम्भा उखाड़ा
आगत जनों को जहां विज्ञजन
यों सुनाते कथा , ले विगत का सहारा
जालोद्गीर्णैर उपचितवपुः केशसंस्कारधूपैर
बन्धुप्रीत्या भवनशिख्जिभिर दत्तनृत्योपहारः
हर्म्येष्व अस्याः कुसुमसुरभिष्व अधवखेदं नयेथा
लक्ष्मीं पश्यंल ललितवनितापादरागाङ्कितेषु॥१.३५॥
वहां सूर्य के अश्व सम नील हय हैं
जहां शैल सम उच्च गय मद प्रदर्शी
सुनिर्भीक रणवीर भट अग्रगामी
असिव्रण अलंकृत रुचिर रूपदर्शी
भावानुवादक ..प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
प्राप्यावन्तीन उदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान
पूर्वोद्दिष्टाम उपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषैः पुण्यैर हृतम इव दिवः कान्तिमत खण्डम एकम॥१.३१॥
अवन्ती जहां वृद्धजन ग्राम वासी
कुशल हैं कथाकार उदयन कथा के
विशद पूर्व वर्णित पुरी , पूर्ण वैभव
परं रम्य विस्तीर्ण उज्जैन जा के
जिसे पुण्य के क्षीण होते स्वतः के
गये स्वर्गजन ने धरा पर उतारा
कि मानो बचे पुण्य को मोल देकर
लिया पा यहां स्वर्ग का खण्ड प्यारा
दीर्घीकुर्वन पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः
यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिम अङ्गानुकूलः
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥१.३२॥
जहां सारसों का कलित नादवर्धक
सदा प्रात प्रमुदित कमल गंधवाही
कि शिप्रा समीरण सुखद, तरुणियों के
मिटाता सुरति खेद प्रिय सम सदा ही
हारांस तारांस तरलगुटिकान कोटिशः शङ्कशुक्तीः
शष्पश्यामान मरकतमणीन उन्मयूखप्ररोहान
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान विद्रुमाणां च भङ्गान
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस तोयमात्रावशेषाः॥१.३३॥
जहां विपणि में हार अगणित अनेकों
सुखद शंख , सीपी , हरित मणि विनिर्मित
प्रभा पूर्ण मूंगों , तरल मोतियों से
भरेलख , जलधि भास होते प्रवंचित
प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजो ऽत्र जह्रे
हैमं तालद्रुमवनम अभूद अत्र तस्यैव राज्ञः
अत्रोद्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भम उत्पाट्य दर्पाद
इत्य आगन्तून रमयति जनो यत्र बन्धून अभिज्ञः॥१.३४॥
प्रद्योत की प्रिय सुता का , हरण
था यहां पर हुआ वत्स नरराज द्वारा
यहां ताल तरु का लगा बाग था
स्वर्ग निर्मित उसी भूप का , ख्यातिवाला
मदमस्त गजराज नलगिरि कभी
यहां भटका , यहां एक खम्भा उखाड़ा
आगत जनों को जहां विज्ञजन
यों सुनाते कथा , ले विगत का सहारा
जालोद्गीर्णैर उपचितवपुः केशसंस्कारधूपैर
बन्धुप्रीत्या भवनशिख्जिभिर दत्तनृत्योपहारः
हर्म्येष्व अस्याः कुसुमसुरभिष्व अधवखेदं नयेथा
लक्ष्मीं पश्यंल ललितवनितापादरागाङ्कितेषु॥१.३५॥
वहां सूर्य के अश्व सम नील हय हैं
जहां शैल सम उच्च गय मद प्रदर्शी
सुनिर्भीक रणवीर भट अग्रगामी
असिव्रण अलंकृत रुचिर रूपदर्शी
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
नवगीत: हिंद और/ हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************
संजीव 'सलिल'
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************
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गुरुवार, 12 नवंबर 2009
नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल'
नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
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आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
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मंगलवार, 10 नवंबर 2009
स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'
स्मृति गीत: संजीव 'सलिल'
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
अलस सवेरे
उठते ही तुम,
बिन आलस्य
काम में जुटतीं.
सिगडी, सनसी,
चिमटा, चमचा
चौके में
वाद्यों सी बजतीं.
देर हुई तो
हमें जगाने
टेर-टेर
आवाज़ लगाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
जेल निरीक्षण
कर आते थे,
नित सूरज
उगने के पहले.
तव पाबंदी,
श्रम, कर्मठता
से अपराधी
रहते दहले.
निज निर्मित
व्यक्तित्व, सफलता
पाकर तुमने
सहज पचाई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
माँ!-पापा!
संकट के संबल
गए छोड़कर
हमें अकेला.
विधि-विधान ने
हाय! रख दिया
है झिंझोड़कर
विकट झमेला.
तुम बिन
हर त्यौहार अधूरा,
खुशी पराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
यह सूनापन
भी हमको
जीना ही होगा
गए मुसाफिर.
अमिय-गरल
समभावी हो
पीना ही होगा
कल की खातिर.
अब न
शीश पर छाँव,
धूप-बरखा मंडराई.
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
वे क्षर थे,
पर अक्षर मूल्यों
को जीते थे.
हमने देखा.
कभी न पाया
ह्रदय-हाथ
पल भर रीते थे
युग ने लेखा.
सुधियों का
संबल दे
प्रति पल राह दिखाई..
सृजन विरासत
तुमसे पाई...
*
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सोमवार, 9 नवंबर 2009
भ्रष्टाचार की जय हो !
अव्यंग
भ्रष्ट व्यवस्था के लाभ
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८
मो ००९४२५८०६२५२
भ्रष्टाचार की जय हो ! एक और घोटाला सफलता पूर्वक संपन्न हुआ . सरकार हिल गई . स्वयं प्रधानमंत्री को एक बार फिर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाने की घोषणायें दोहरानी पड़ी . एक और उच्चस्तरीय जांच कमेटी गठित की गई . सी बी आई के पास एक और फाइल बढ़ गई . भ्रष्टाचार यूं तो सारे विश्व में ही व्याप्त है , पर उन देशो में अधिक है जहां आबादी अधिक संसाधन कम , और भ्रष्टाचार के पनपने के मौके ज्यादा हैं , भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सरकारी नियम कमजोर हैं . भारत के संदर्भ में बात करे तो मै समझता हूं कि हम सदा से किसी न किसी से डर कर ही सही काम करते रहे हैं चाहे राजा से , भगवान से , या स्वयं अपने आप से . पिछले सालो मे आजादी के बाद से हमारा समाज निरंकुश होता चला गया . हर कहीं प्रगति हुई , बस आचरण का पतन हुआ . नैतिक शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल जरूर किया गया है पर जीवन से नैतिकता गायब होती जा रही है . धर्म निरपेक्षता के चलते धर्म का , दिखावे का सार्वजनिक स्वरूप तो बढ़ा पर धर्म के आचरण का व्यैक्तिक चरित्र पराभव का शिकार हुआ . यह बात लोगो के जहन में घर कर गई कि सरकारी मुलाजिमो को खरीदा जा सकता है , कम या अधिक कीमत में . हाल के , घोटाले ने भ्रष्टाचार की इस चर्चा को पुनः सामयिक , प्रासंगिक बना दिया है . अपने इस व्यंग लेख में मैं किसी घोटाले विशेष का नाम न लिखकर इसे जनरलाइज करते हुये व्यंग लिख रहा हूं , जिससे कैलेंडर की तारीखें मेरे व्यंग को पुराना न कर सकें . घोटालों का क्या है , औसतन महीने में दो की दर से उच्च स्तरीय ऐसे घोटाले होते ही रहते हैं , जो चैनलों के लिये सनसनी खेज होते हैं ,पत्र पत्रिकाओ के लिये स्कूप स्टोरी बन सकते हैं , जिनमें सरकारों को हिलाने का दम होता है , जो विरोधी पार्टी को नवजीवन और एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका देते हैं . सो मेरा यह आलेख आर्काइव के रूप में संजोया जा सकता है , जिस संपादक को जब मन हो तब इसे प्रकाशित करे , यह सामयिक , तात्कालिक और प्रासंगिक रहेगा .
सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखे , तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशो के बावजूद भी जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है , उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विशव गुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये . हमें दुनियां को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये .पारदर्शिता का समय है , विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं . पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है .स्वयं हमारे प्रधानमंत्री जी स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली से चला एक रुपया , गांवो में पहुंचते पहुंचते १५ पैसे में बदल जाता है ... भ्रष्टाचार करते हुये , सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार की बुराई करने की दोहरी मानसिकता के साथ अब और जीना ठीक नही . जब भ्रष्टाचार के ढ़ेर सारे लाभ हैं तो फिर उन्हें गिने गिनायें और गर्व से यह कहें कि हाँ हम भ्रष्टाचारी हैं ,हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे . भ्रष्टाचार के अनंत लाभ हैं . बिना लम्बी लाइन में लगे हुये यदि घर बैठे आपका काम हो जाये तो इसमें बुरा क्या है ? अब जब ऐसा होगा तो इसके लिये कुछ सुविधा शुल्क भी आप चुकायेंगे . देने वाले राजी , लेने वाले राजी , पर आपकी इस सफलता व योग्यता को देखकर लाइन में लगे बेचारे आम आदमी इस सबको भ्रष्टाचार की संज्ञा दें , तो यह उनकी नादानी ही कही जानी चाहिये . स्कूल कालेज में एडमीशन का मसला हो , नौकरी का मामला हो , नियम कानून को पकड़कर बैठो तो बस परीक्षा और इंटरव्यू ही देते रहो . समय , पैसे सबकी बरबादी ही बरबादी होती है .बेहतर है सिफारिशी फोन करवायें , और पहले ही प्रयास में मन वांछित फल पायें . अब जब मन वांछित फल मिलेगा तो आप मूर्ख थोड़े ही हैं जो प्रसाद न चढ़ायेंगे ? इस प्रक्रिया को जो भ्रष्टाचार मानते हैं उन्हें नैतिकता का राग अलापने दें , ये समय से सामंजस्य न बैठा पाने वाले असफल लोग हैं . जो कुछ जितने में खरीदा जाना है वह तो उतने में ही आयेगा , अब यदि सप्लायर सदाशयी व्यवाहार के चलते आर्डर करने वाले अधिकारी और बिल पास करने वाले बाबू साहब को कुछ भेंट करे तो समझ से परे है कि यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ . शिकायत कर्ता को उसका समाधान मिल जाये , उसके दुख , कष्ट दूर हो जायें और वह खुशी से वर्दी वालों को कुछ दे देवे तो भि भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम चलाने वालों के पेट में दर्द होने लगता है , अरे भैया ! दान , दक्षिणा , भेंट , बख्शीस , आदान प्रदान , का महत्व समझिये .
भ्रष्टाचार के लाभ ही लाभ हैं . परस्पर प्रेम बना रहता है , कामों में सुगमता होती है , निश्चिंतता रहती है . सब एक दूसरे की चिंता करते हैं . सद्भाव पनपता है . भ्रष्टाचार एक जीवन शैली है . इसे अपनाना समय की जरूरत है . इस व्यवस्था में आनंद ही आनंद है . एक बार इसका हिस्सा बनकर तो देखिये , आपकी रुकी हुई फाइल दौड़ पड़ेगी , कार्यालयों के व्यर्थ चक्कर लगाने से जो समय बचे उसे परमार्थ में लगाइये , कुछ भ्रष्टाचार कीजिये किसी का भला ही करेंगे आप इस तरह . गीता का ज्ञान गांठ बांध लीजीये , साथ क्या लाये थे ? साथ क्या ले जायेंगे , अरे कुछ व्यवहार बनाइये . मिल बांटकर खाइये खिलाइये .जियो और जीने दो . जितनी ईमानदारी भ्रष्टाचार की अलिखित व्यवस्था में है उतनी स्टेंप पेपर में नोटराइज्ड एग्रीमेंट्स में हो जाये तो अदालतो के चक्कर ही न लगाना पड़े लोगों को . भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी अविश्वास , संदेह , या गवाही जैसी बकवास चीजो की कोई जरुरत नही होती . यदि कभी कोई भ्रष्टाचारी विवशतावश किसी का कोई काम नहीं कर पाता तो , सामने वाला उसे सहज ही क्षमा करने का माद्दा रखता है , वह स्वयं भ्रष्टाचार कर अपने नुकसान को पूरा करने की हिम्मत रखता है , ऐसी उदारहृदय व्यवस्था ,मानवीयता की वाहक है , आइये भ्रष्टाचार का खुला समर्थन करें , भ्रष्टाचार अपनायें , भ्रष्ट व्यवस्था के अभिन्न अंग बने . जब हम सब हमाम में नंगे हैं ही तो फिर शर्म कैसी ?
भ्रष्ट व्यवस्था के लाभ
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८
मो ००९४२५८०६२५२
भ्रष्टाचार की जय हो ! एक और घोटाला सफलता पूर्वक संपन्न हुआ . सरकार हिल गई . स्वयं प्रधानमंत्री को एक बार फिर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाने की घोषणायें दोहरानी पड़ी . एक और उच्चस्तरीय जांच कमेटी गठित की गई . सी बी आई के पास एक और फाइल बढ़ गई . भ्रष्टाचार यूं तो सारे विश्व में ही व्याप्त है , पर उन देशो में अधिक है जहां आबादी अधिक संसाधन कम , और भ्रष्टाचार के पनपने के मौके ज्यादा हैं , भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सरकारी नियम कमजोर हैं . भारत के संदर्भ में बात करे तो मै समझता हूं कि हम सदा से किसी न किसी से डर कर ही सही काम करते रहे हैं चाहे राजा से , भगवान से , या स्वयं अपने आप से . पिछले सालो मे आजादी के बाद से हमारा समाज निरंकुश होता चला गया . हर कहीं प्रगति हुई , बस आचरण का पतन हुआ . नैतिक शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल जरूर किया गया है पर जीवन से नैतिकता गायब होती जा रही है . धर्म निरपेक्षता के चलते धर्म का , दिखावे का सार्वजनिक स्वरूप तो बढ़ा पर धर्म के आचरण का व्यैक्तिक चरित्र पराभव का शिकार हुआ . यह बात लोगो के जहन में घर कर गई कि सरकारी मुलाजिमो को खरीदा जा सकता है , कम या अधिक कीमत में . हाल के , घोटाले ने भ्रष्टाचार की इस चर्चा को पुनः सामयिक , प्रासंगिक बना दिया है . अपने इस व्यंग लेख में मैं किसी घोटाले विशेष का नाम न लिखकर इसे जनरलाइज करते हुये व्यंग लिख रहा हूं , जिससे कैलेंडर की तारीखें मेरे व्यंग को पुराना न कर सकें . घोटालों का क्या है , औसतन महीने में दो की दर से उच्च स्तरीय ऐसे घोटाले होते ही रहते हैं , जो चैनलों के लिये सनसनी खेज होते हैं ,पत्र पत्रिकाओ के लिये स्कूप स्टोरी बन सकते हैं , जिनमें सरकारों को हिलाने का दम होता है , जो विरोधी पार्टी को नवजीवन और एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका देते हैं . सो मेरा यह आलेख आर्काइव के रूप में संजोया जा सकता है , जिस संपादक को जब मन हो तब इसे प्रकाशित करे , यह सामयिक , तात्कालिक और प्रासंगिक रहेगा .
सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखे , तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशो के बावजूद भी जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है , उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विशव गुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये . हमें दुनियां को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये .पारदर्शिता का समय है , विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं . पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है .स्वयं हमारे प्रधानमंत्री जी स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली से चला एक रुपया , गांवो में पहुंचते पहुंचते १५ पैसे में बदल जाता है ... भ्रष्टाचार करते हुये , सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार की बुराई करने की दोहरी मानसिकता के साथ अब और जीना ठीक नही . जब भ्रष्टाचार के ढ़ेर सारे लाभ हैं तो फिर उन्हें गिने गिनायें और गर्व से यह कहें कि हाँ हम भ्रष्टाचारी हैं ,हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे . भ्रष्टाचार के अनंत लाभ हैं . बिना लम्बी लाइन में लगे हुये यदि घर बैठे आपका काम हो जाये तो इसमें बुरा क्या है ? अब जब ऐसा होगा तो इसके लिये कुछ सुविधा शुल्क भी आप चुकायेंगे . देने वाले राजी , लेने वाले राजी , पर आपकी इस सफलता व योग्यता को देखकर लाइन में लगे बेचारे आम आदमी इस सबको भ्रष्टाचार की संज्ञा दें , तो यह उनकी नादानी ही कही जानी चाहिये . स्कूल कालेज में एडमीशन का मसला हो , नौकरी का मामला हो , नियम कानून को पकड़कर बैठो तो बस परीक्षा और इंटरव्यू ही देते रहो . समय , पैसे सबकी बरबादी ही बरबादी होती है .बेहतर है सिफारिशी फोन करवायें , और पहले ही प्रयास में मन वांछित फल पायें . अब जब मन वांछित फल मिलेगा तो आप मूर्ख थोड़े ही हैं जो प्रसाद न चढ़ायेंगे ? इस प्रक्रिया को जो भ्रष्टाचार मानते हैं उन्हें नैतिकता का राग अलापने दें , ये समय से सामंजस्य न बैठा पाने वाले असफल लोग हैं . जो कुछ जितने में खरीदा जाना है वह तो उतने में ही आयेगा , अब यदि सप्लायर सदाशयी व्यवाहार के चलते आर्डर करने वाले अधिकारी और बिल पास करने वाले बाबू साहब को कुछ भेंट करे तो समझ से परे है कि यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ . शिकायत कर्ता को उसका समाधान मिल जाये , उसके दुख , कष्ट दूर हो जायें और वह खुशी से वर्दी वालों को कुछ दे देवे तो भि भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम चलाने वालों के पेट में दर्द होने लगता है , अरे भैया ! दान , दक्षिणा , भेंट , बख्शीस , आदान प्रदान , का महत्व समझिये .
भ्रष्टाचार के लाभ ही लाभ हैं . परस्पर प्रेम बना रहता है , कामों में सुगमता होती है , निश्चिंतता रहती है . सब एक दूसरे की चिंता करते हैं . सद्भाव पनपता है . भ्रष्टाचार एक जीवन शैली है . इसे अपनाना समय की जरूरत है . इस व्यवस्था में आनंद ही आनंद है . एक बार इसका हिस्सा बनकर तो देखिये , आपकी रुकी हुई फाइल दौड़ पड़ेगी , कार्यालयों के व्यर्थ चक्कर लगाने से जो समय बचे उसे परमार्थ में लगाइये , कुछ भ्रष्टाचार कीजिये किसी का भला ही करेंगे आप इस तरह . गीता का ज्ञान गांठ बांध लीजीये , साथ क्या लाये थे ? साथ क्या ले जायेंगे , अरे कुछ व्यवहार बनाइये . मिल बांटकर खाइये खिलाइये .जियो और जीने दो . जितनी ईमानदारी भ्रष्टाचार की अलिखित व्यवस्था में है उतनी स्टेंप पेपर में नोटराइज्ड एग्रीमेंट्स में हो जाये तो अदालतो के चक्कर ही न लगाना पड़े लोगों को . भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी अविश्वास , संदेह , या गवाही जैसी बकवास चीजो की कोई जरुरत नही होती . यदि कभी कोई भ्रष्टाचारी विवशतावश किसी का कोई काम नहीं कर पाता तो , सामने वाला उसे सहज ही क्षमा करने का माद्दा रखता है , वह स्वयं भ्रष्टाचार कर अपने नुकसान को पूरा करने की हिम्मत रखता है , ऐसी उदारहृदय व्यवस्था ,मानवीयता की वाहक है , आइये भ्रष्टाचार का खुला समर्थन करें , भ्रष्टाचार अपनायें , भ्रष्ट व्यवस्था के अभिन्न अंग बने . जब हम सब हमाम में नंगे हैं ही तो फिर शर्म कैसी ?
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
गत्यात्मक ज्योतिष संगीता पुरी
गत्यात्मक ज्योतिष
संगीता पुरी
मंगल चंद्र की यह युति धनु राशिवालों के लिए खासी बुरी और कुंभ राशिवालों के लिए खासी अच्छी रहेगी !!
आज आसमान में मंगल और चंद्र की एक बहुत ही मजबूत स्थिति बन रही है , जिसका रात्रि साढे नौ बजे के आसपास उदय होगा और रातभर मंगल और चंद्र को आप एक साथ आकाश में चमकता देख सकते हैं। इसके कारण आज और कल का दिन युवाओं के लिए खासकर 24 वर्ष की उम्र से 36 वर्ष की उम्र तक के युवकों युवतियों के लिए बहुत ही निर्णायक होगा , इसलिए वे आज कल में किसी महत्वपूर्ण घटना से संयुक्त हो सकते हैं। वैसे इसका प्रभाव अभी आनेवाले छह महीने तक रहेगा। अधिकांश के लिए यह घटना सुखद हो सकती है , पर कुछ के लिए तो कष्टकर होगी ही। मई 2010 तक इस घटना के विशेष प्रभाव से उन्हें सुख या दुख की अनुभूति होती रहेगी। जहां सुखद प्रभाव महसूस करनेवाले युवक युवतियों को इसकी बधाई देना चाहूंगी , तो दुखद प्रभाव महसूस करनेवालों के लिए मेरे दिल में संवेदनाएं भी हैं। वे अपने धैर्य की परीक्षा देते रहें , आनेवाला कल उनका भी होगा। वैसे इसके बारे में कल ही हल्के फुल्के ढंग से बताया था , पर आज विस्तार से जानकारी प्राप्त करें।
वैसे तो पंचांग में मंगल और चंद्र की यह युति हर महीने आती है , क्यूंकि 28 दिन में ही चंद्रमा हर राशि की परिक्रमा करता है और किसी न किसी राशि में मंगल को होना ही है , इसलिए युति तो हर महीने होगी ही। पर हर महीने की युति को हम नहीं देख पाते , क्यूंकि सूर्य के साथ रहने के कारण वह पृथ्वी के हर भाग में वह दिन में ही उदय और अस्त हो जाता है। वैसे दिखाई न देने से हमपर प्रभाव भी न पडे , यह बात तो ग्रहों के संबंध में कहना तो उचित नहीं होगा। वास्तव में सूर्य से कोणिक दूरी के बढने के साथ ही साथ पृथ्वी से इसकी दूरी अपेक्षाकृत कम होने लगती है। यही कारण है कि इस समय नासा के वैज्ञानिक भी मंगल पर अपने यान भेजने या मंगल पर अन्य प्रकार के परीक्षण करने की शुरूआत करते हैं।
मंगल से संबंधित कई आलेखमैं पोस्ट कर चुकी , जिसमें मैने स्पष्टत: समझाया है कि पृथ्वी से अपेक्षाकृत कम दूरी बनते जाने से ही यह पृथ्वी पर अधिक प्रभावी होने लगता है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह ही चुकी हूं , मंगल युवाओं को काफी हद तक प्रभावित करता है। इस कारण 7 और 8 नवम्बर 2010 को युवा वर्ग के किसी खास घटना से संबंधित होने की संभावना बढ जाती है। यहां ही नहीं आनेवाले कई महीनों में मंगल और चंद्र की इस तरह की युति का प्रभाव वे देख सकेंगे। जहां कुंभ राशिवालोंके लिए यह युति खासी अच्छी होगी , वहीं धनु राशिवालेइस युति के कारण कुछ परेशान भी रह सकते हैं।
युवाओं के अतिरिक्त अन्य लोगों पर भी इसका आंशिक प्रभाव पडेगा , मंगल की इस खास स्थिति के कारण आज के अलावे आनेवाले छह महीनों में सभी लोग मंगल से संबंधित मुद्दों को मजबूत बनाने की कोशिश में लगे रहेंगे। विभिन्न लग्नवाले भिन्न प्रकार के संदर्भों में विशेष ध्यान संकेन्द्रण करेंगे .......
जैसे मेष लग्नवाले स्वास्थ्य और जीवनशैली को , वृष लग्नवाले घर गृहस्थी और खर्च को , मिथुन लग्नवाले लाभ और प्रभाव को , कर्क लग्नवाले संतान और प्रतिष्ठा के वातावरण को , सिंह लग्नवाले किसी प्रकार की छोटी या बडी संपत्ति को प्राप्त करने को , कन्या लग्नवाले भाई बंधु से संबंधित वातावरण को , तुला लग्न वाले अपनी घर गृहस्थी और आर्थिक वातावरण को , वृश्चिक लग्नवाले स्वास्थ्य और प्रभाव को , धनु लग्नवाले अपनी संतान और बाह्य संदर्भों की स्थिति को , मकर लग्नवाले किसी प्रकार की संपत्ति के लाभ को , कुंभ लग्नवाले पारिवारिक और पद प्रतिष्ठा से संबंधित वातावरण को तथा मीन लग्नवाले अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे रहेंगे , उनमें से अधिकांश को सफलता मिलेगी , पर कुछ को असफलता भी हाथ आ सकती है। असफलता हाथ आने का कारण उनकी जन्मकालीन ग्रह स्थिति होगी , तत्कालीन नहीं !!
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संगीता पुरी
मंगल चंद्र की यह युति धनु राशिवालों के लिए खासी बुरी और कुंभ राशिवालों के लिए खासी अच्छी रहेगी !!
आज आसमान में मंगल और चंद्र की एक बहुत ही मजबूत स्थिति बन रही है , जिसका रात्रि साढे नौ बजे के आसपास उदय होगा और रातभर मंगल और चंद्र को आप एक साथ आकाश में चमकता देख सकते हैं। इसके कारण आज और कल का दिन युवाओं के लिए खासकर 24 वर्ष की उम्र से 36 वर्ष की उम्र तक के युवकों युवतियों के लिए बहुत ही निर्णायक होगा , इसलिए वे आज कल में किसी महत्वपूर्ण घटना से संयुक्त हो सकते हैं। वैसे इसका प्रभाव अभी आनेवाले छह महीने तक रहेगा। अधिकांश के लिए यह घटना सुखद हो सकती है , पर कुछ के लिए तो कष्टकर होगी ही। मई 2010 तक इस घटना के विशेष प्रभाव से उन्हें सुख या दुख की अनुभूति होती रहेगी। जहां सुखद प्रभाव महसूस करनेवाले युवक युवतियों को इसकी बधाई देना चाहूंगी , तो दुखद प्रभाव महसूस करनेवालों के लिए मेरे दिल में संवेदनाएं भी हैं। वे अपने धैर्य की परीक्षा देते रहें , आनेवाला कल उनका भी होगा। वैसे इसके बारे में कल ही हल्के फुल्के ढंग से बताया था , पर आज विस्तार से जानकारी प्राप्त करें।
वैसे तो पंचांग में मंगल और चंद्र की यह युति हर महीने आती है , क्यूंकि 28 दिन में ही चंद्रमा हर राशि की परिक्रमा करता है और किसी न किसी राशि में मंगल को होना ही है , इसलिए युति तो हर महीने होगी ही। पर हर महीने की युति को हम नहीं देख पाते , क्यूंकि सूर्य के साथ रहने के कारण वह पृथ्वी के हर भाग में वह दिन में ही उदय और अस्त हो जाता है। वैसे दिखाई न देने से हमपर प्रभाव भी न पडे , यह बात तो ग्रहों के संबंध में कहना तो उचित नहीं होगा। वास्तव में सूर्य से कोणिक दूरी के बढने के साथ ही साथ पृथ्वी से इसकी दूरी अपेक्षाकृत कम होने लगती है। यही कारण है कि इस समय नासा के वैज्ञानिक भी मंगल पर अपने यान भेजने या मंगल पर अन्य प्रकार के परीक्षण करने की शुरूआत करते हैं।
मंगल से संबंधित कई आलेखमैं पोस्ट कर चुकी , जिसमें मैने स्पष्टत: समझाया है कि पृथ्वी से अपेक्षाकृत कम दूरी बनते जाने से ही यह पृथ्वी पर अधिक प्रभावी होने लगता है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह ही चुकी हूं , मंगल युवाओं को काफी हद तक प्रभावित करता है। इस कारण 7 और 8 नवम्बर 2010 को युवा वर्ग के किसी खास घटना से संबंधित होने की संभावना बढ जाती है। यहां ही नहीं आनेवाले कई महीनों में मंगल और चंद्र की इस तरह की युति का प्रभाव वे देख सकेंगे। जहां कुंभ राशिवालोंके लिए यह युति खासी अच्छी होगी , वहीं धनु राशिवालेइस युति के कारण कुछ परेशान भी रह सकते हैं।
युवाओं के अतिरिक्त अन्य लोगों पर भी इसका आंशिक प्रभाव पडेगा , मंगल की इस खास स्थिति के कारण आज के अलावे आनेवाले छह महीनों में सभी लोग मंगल से संबंधित मुद्दों को मजबूत बनाने की कोशिश में लगे रहेंगे। विभिन्न लग्नवाले भिन्न प्रकार के संदर्भों में विशेष ध्यान संकेन्द्रण करेंगे .......
जैसे मेष लग्नवाले स्वास्थ्य और जीवनशैली को , वृष लग्नवाले घर गृहस्थी और खर्च को , मिथुन लग्नवाले लाभ और प्रभाव को , कर्क लग्नवाले संतान और प्रतिष्ठा के वातावरण को , सिंह लग्नवाले किसी प्रकार की छोटी या बडी संपत्ति को प्राप्त करने को , कन्या लग्नवाले भाई बंधु से संबंधित वातावरण को , तुला लग्न वाले अपनी घर गृहस्थी और आर्थिक वातावरण को , वृश्चिक लग्नवाले स्वास्थ्य और प्रभाव को , धनु लग्नवाले अपनी संतान और बाह्य संदर्भों की स्थिति को , मकर लग्नवाले किसी प्रकार की संपत्ति के लाभ को , कुंभ लग्नवाले पारिवारिक और पद प्रतिष्ठा से संबंधित वातावरण को तथा मीन लग्नवाले अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे रहेंगे , उनमें से अधिकांश को सफलता मिलेगी , पर कुछ को असफलता भी हाथ आ सकती है। असफलता हाथ आने का कारण उनकी जन्मकालीन ग्रह स्थिति होगी , तत्कालीन नहीं !!
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व्यंग्य: हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना
व्यंग्य:
हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना
- अविनाश वाचस्पति
हैरान मत होइये। आप नहीं, हवाई जहाज की बात कर रहा हूं उन्हीं से पूछ रहा हूं वे कह रहे हैं कि कल तक हमें गुमान था कि इतनी ऊंचाईयों पर सिर्फ हम ही उड़ते विचरते रहते हैं। काफी नीचे इससे पक्षी उड़ते हैं। पर आप भी इतनी ऊंचाई पर पहुंच जाओगे, हमें विश्वास नहीं हो रहा है। कभी किसी को कमजोर नहीं समझना चाहिए सब्जियों ने कहा। घूरे के दिन फिर जाते हैं फिर हम तो सब्जियां हैं। कॉमनमैन ने हमें कामन कर दिया था पर महंगाई ने हमारी लाज बचा ली है। कॉमन होने की जिल्लत से हमने छुट्टी पा ली है। देखो हम यहां पर अपनी पूरी आन बान और शान से मौजूद हैं।
दे दाल में पानी देकर हमारी मिट्टी इंसान ने खराब कर रखी थी पर जब दाल के ही लाले पड़ जायेंगे तो पानी में डूब कर मरने के सिवाय कॉमनमैन के सामने कोई और रास्ता नहीं बचा है। दालें गर्व से यह अहसास कर फूली नहीं समा रही थीं। दालें आसमान में चारों ओर छितराई हुई थीं और हवाई जहाज उनके बीच में से बच बचाकर उड़ने के लिए मजबूर था। पायलटों को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। चने ही सस्ते हैं। दालें महंगी हैं इसलिए नाक से दाल चबाने की तो पायलट अब सोच भी नहीं सकते हैं। डूबने के लिए कॉमनमैन को पानी भी अब बिसलेरी ही चाहिए होता है, साधारण पानी के कीटाणुओं से मरेंगे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।
कद्दू, घिया, सीताफल अपनी उन्नति पर प्रसन्न नजर आ रहे थे। आलू भी अब इतनी आसानी से हाथ नहीं आते हैं और टमाटरों ने तो सबको लाल कर रखा है। सब्जियों का हरा रंग अब आंखों में हरियाली नहीं लाता है। सब्जियों को देखते ही आंखें मुंद जाती हैं। हाथ अकड़ जाते हैं। उनमें इतनी ताकत नहीं बचती कि जेब की तरफ बढ़ने की सोच सकें और जीभ तो उनकी कीमतें सुनकर ही तालू से ऐसी चिपकती है कि जैसे गरीबी कॉमनमैन से चिपकने के लिए अभिशप्त है। जैसे अमीरी नेताओं की जेब में रहती है। गाजर मूली भी अब मामूली सब्जियां नहीं रही हैं। वे भी आसमान में कुलांचें भर रही हैं। खूब खुश हैं। मूली डर से सफेद नहीं होती खरीदने वाला कॉमनमैन उनकी कीमत जानकर डर से सफेद हो जाता है और जब गाजर को खरीदने में असफल होता है तो शर्म से उसका मुंह लाल हो जाता है। सब्जियों के रंगों के अब निराले ढंग हैं।
सेब को आज अपने सेब होने पर शर्म आ रही थी वो शर्म से जमीन में गड़ने की बजाय आसमान में उड़ा जा रहा था। वो तो खैर पहले भी उड़ता रहा है पर उसकी ऊंचाई में कोई इजाफा नहीं हुआ है। । बाजी तो इस बार मारी है अमरूद ने। जी हां, अमरूद जिसने बिग बी के छाने से पहले इलाहाबाद का नाम मशहूर कर रखा है। वह अमरूद सेब के पास पास ही उड़ रहा था सेब जितना उससे दूर होने की कोशिश कर रहा था, अमरूद उसके गले पड़ रहा था। कहानी कुछ नहीं है, अमरूद के भाव 50 से 60 रुपये किलो हो रहे हैं और सेब अब 40 रूपये किलो में भी मिल रहा है। अब बतलायें सेब की इतनी फजीहत हो और शर्म से आसमान में न गड़ जाए तो क्या करे ? जमीन पर रहने वाला आलू तक महंगाई के बल पर आसमान में हवाई जहाज के आसपास ही चक्कर लगाता मिला तो सेब ने आंखें ही बंद कर लीं। जिस तरह बिल्ली को देखकर कबूतर आंखें बंद करता रहा है पर आलू महाशय वहीं मंडरा रहे हैं।
हवाई जहाज विचारमग्न है कि इन जमीनी सब्जियों के भी पंख महंगाई ने निकाले हैं अब कॉमनमैन वेल्थ गेम्स के नाम पर गरीबों के मुंह से छीन लिए निवाले हैं। पर ऐसों की भी कमी नहीं है जिन्होंने इन्हीं कार्यों को कराने के नाम पर खूब हिस्सेदारी बंटाई है। उसे स्मरण हो आती है अपनी दुर्दशा जब जमीन पर रेंगने दौड़ने वाली रेल उसे नीचे से सीटी बजा बजाकर चिढ़ाती रही है क्योंकि उसके किराये हवाई जहाज के किरायों से भी अधिक हो गए थे और आज भी ऐसा ही है पर क्या करे हवाई जहाज जब सेब कुछ नहीं कर पा रहा है। तीनों विवश हैं। आप पूछेंगे कि तीसरा कौन है, तो तीसरा तो आजाद भारत की राजधानी में रहने वाला कॉमनमैन है जिसकी वेल्थ के नाम पर उसे बीमार कर दिया गया है।
...
- अविनाश वाचस्पति, साहित्यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065
मोबाइल 09868166586/09711537664
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रविवार, 8 नवंबर 2009
नव गीत : संजीव 'सलिल'
नव गीत
संजीव 'सलिल'
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश
करे मजूरी
भूखी सुखिया
फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें,
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
संजीव 'सलिल'
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश
करे मजूरी
भूखी सुखिया
फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें,
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
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-acharya sanjiv 'salil',
gantantra,
geet,
loktantra,
loktantra ke shahanshaah ki jaya,
navgeet,
prajatantra
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 4 नवंबर 2009
लघुकथा एकलव्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
लघुकथा
एकलव्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
एकलव्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
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मंगलवार, 3 नवंबर 2009
दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला
संजीव 'सलिल'
मन वृन्दावन में बसे, राधा-माधव नित्य.
श्वास-आस जग जानता, होती रास अनित्य..
प्यास रहे बाकी सदा, हास न बचता शेष.
तिनका-तिनका जोड़कर, जोड़ा नीड़ अशेष..
कौन किसी का है सगा?, और कौन है गैर?
'सलिल' मानते हैं सभी, अपनी-अपनी खैर..
आए हैं तो छोड़ दें, अपनी भी कुछ छाप.
समय पृष्ठ पर कर सकें, निज हस्ताक्षर आप..
धूप-छाँव सा शुभ-अशुभ, कभी न छोडे साथ.
जो दोनों को सह सके, जिए उठाकर माथ..
आत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.
मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..
सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.
शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..
*******************************
संजीव 'सलिल'
मन वृन्दावन में बसे, राधा-माधव नित्य.
श्वास-आस जग जानता, होती रास अनित्य..
प्यास रहे बाकी सदा, हास न बचता शेष.
तिनका-तिनका जोड़कर, जोड़ा नीड़ अशेष..
कौन किसी का है सगा?, और कौन है गैर?
'सलिल' मानते हैं सभी, अपनी-अपनी खैर..
आए हैं तो छोड़ दें, अपनी भी कुछ छाप.
समय पृष्ठ पर कर सकें, निज हस्ताक्षर आप..
धूप-छाँव सा शुभ-अशुभ, कभी न छोडे साथ.
जो दोनों को सह सके, जिए उठाकर माथ..
आत्म-दीप बालें 'सलिल', बन जाएँ विश्वात्म.
मानव बनने के लिए, आये खुद परमात्म..
सकल जगत से तिमिर हर, प्रसरित करें प्रकाश.
शब्द ब्रम्ह के उपासक, जीतें मन-आकाश..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 1 नवंबर 2009
नवगीत: भुज भर भेंटो...संजीव 'सलिल'
आज की रचना:
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009
आज का गीत: संजीव 'सलिल'
आज का गीत:
संजीव 'सलिल'
पीले पत्तों की
पौ बारह,
हरियाली रोती...
*
समय चक्र
बेढब आया है,
मग ने
पग को
भटकाया है.
हार तिमिर के हाथ
ज्योत्सना
निज धीरज खोती...
*
नहीं आदमी
पद प्रधान है.
हावी शर पर
अब कमान है.
गजब!
हताशा ही
आशा की फसल
मिली बोती...
*
जुही-चमेली पर
कैक्टस ने
आरक्षण पाया.
सद्गुण को
दुर्गुण ने
जब चाहा
तब बिकवाया.
कंकर को
सहेजकर हमने
फेंक दिए मोती...
*
संजीव 'सलिल'
पीले पत्तों की
पौ बारह,
हरियाली रोती...
*
समय चक्र
बेढब आया है,
मग ने
पग को
भटकाया है.
हार तिमिर के हाथ
ज्योत्सना
निज धीरज खोती...
*
नहीं आदमी
पद प्रधान है.
हावी शर पर
अब कमान है.
गजब!
हताशा ही
आशा की फसल
मिली बोती...
*
जुही-चमेली पर
कैक्टस ने
आरक्षण पाया.
सद्गुण को
दुर्गुण ने
जब चाहा
तब बिकवाया.
कंकर को
सहेजकर हमने
फेंक दिए मोती...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
नवगीत संजीव 'सलिल'
नवगीत
संजीव 'सलिल'
चीनी दीपक
दियासलाई,
भारत में
करती पहुनाई...
*
सौदा सभी
उधर है.
पटा पड़ा
बाज़ार है.
भूखा मरा
कुम्हार है.
सस्ती बिकती
कार है.
झूठ नहीं सच
मानो भाई.
भारत में
नव उन्नति आयी...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
श्रम का कोई
रसूख नहीं है.
फसल चर रहे
ठूंठ यहीं हैं.
मची हर कहीं
लूट यहीं है.
अंग्रेजी कुलटा
मन भाई.
हिंदी हिंद में
हुई पराई......
*
दड़बों जैसे
सीमेंटी घर.
तुलसी का
चौरा है बेघर.
बिजली-झालर
है घर-घर..
दीपक रहा
गाँव में मर.
शहर-गाँव में
बढ़ती खाई.
जड़ विहीन
नव पीढी आई...
*
संजीव 'सलिल'
चीनी दीपक
दियासलाई,
भारत में
करती पहुनाई...
*
सौदा सभी
उधर है.
पटा पड़ा
बाज़ार है.
भूखा मरा
कुम्हार है.
सस्ती बिकती
कार है.
झूठ नहीं सच
मानो भाई.
भारत में
नव उन्नति आयी...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
श्रम का कोई
रसूख नहीं है.
फसल चर रहे
ठूंठ यहीं हैं.
मची हर कहीं
लूट यहीं है.
अंग्रेजी कुलटा
मन भाई.
हिंदी हिंद में
हुई पराई......
*
दड़बों जैसे
सीमेंटी घर.
तुलसी का
चौरा है बेघर.
बिजली-झालर
है घर-घर..
दीपक रहा
गाँव में मर.
शहर-गाँव में
बढ़ती खाई.
जड़ विहीन
नव पीढी आई...
*
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रविवार, 25 अक्टूबर 2009
श्लोक मेघदूत २६ से ३० ......अनुवादक प्रो सी. बी .स्रीवास्तव विदग्ध
meghdoot श्लोक २६ से ३० ......अनुवादक प्रो सी. बी .स्रीवास्तव विदग्ध
नीचैराख्यं गिरिम अधिवसेस तत्र विश्रामहेतोस
त्वत्सम्पर्कात पुलकितम इव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः
यः पुण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर नागराणाम
उद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिर यौवनानि॥१.२६॥
वहाँ "नीच" गिरिवास हो , पा तुम्हें जो
खिले नीप तरु से पुलक रोम हर्षित
जहाँ की गुफायें तरुण नागरों की
सुगणिका सुरति से सुगन्धित सुकर्षित
विश्रान्तः सन व्रज वननदीतीरजानां निषिञ्चन्न
उद्यानानां नवजलकणैर यूथिकाजाल्कानि
गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां
चायादानात क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम॥१.२७॥
वन नद पुलिन पर उगे यू्थिकोद्यान
को मित्र विश्रांत हो सींच जाना
दे छांह कुम्हले कमल कर्ण फूली
मलिन मालिनों को मिलन के बहाना
वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां
सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूर उज्जयिन्याः
विद्युद्दामस्फुरितचक्रितैस तत्र पौराङ्गनानां
लोलापाङ्गैर यदि न रमसे लोचनैर वञ्चितो ऽसि॥१.२८॥
यदपि वक्र पथ , हे पथिक उत्तरा के
न उज्जैन उत्संग तुम भूल जाना
विद्युत चकित चारु चंचल सुनयना
मिल रमणियों से मिलन लाभ पाना
वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः
संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभः
निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः संनिपत्य
स्त्रीणाम आद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु॥१.२९॥
विहग मेखला उर्मिताड़ित क्वणित नाभि
आवर्त लख मंदगति गामिनी के
हो एक रस , निर्विन्ध्या नदी मार्ग
में याद रख भावक्रम कामिनी के
वेणीभूतप्रतनुसलिला ताम अतीतस्य सिन्धुः
पाण्डुच्चाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपर्णैः
सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
कार्श्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः॥१.३०॥
वेणि सृदश क्षीण सलिला वराकी
सुतनु पीत जिसका पके पत्र दल से
विरह में तुम्हारे , सुहागिन तुम्हारी
तजे क्षीणता दो उसे पूर जल से
नीचैराख्यं गिरिम अधिवसेस तत्र विश्रामहेतोस
त्वत्सम्पर्कात पुलकितम इव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः
यः पुण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर नागराणाम
उद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिर यौवनानि॥१.२६॥
वहाँ "नीच" गिरिवास हो , पा तुम्हें जो
खिले नीप तरु से पुलक रोम हर्षित
जहाँ की गुफायें तरुण नागरों की
सुगणिका सुरति से सुगन्धित सुकर्षित
विश्रान्तः सन व्रज वननदीतीरजानां निषिञ्चन्न
उद्यानानां नवजलकणैर यूथिकाजाल्कानि
गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां
चायादानात क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम॥१.२७॥
वन नद पुलिन पर उगे यू्थिकोद्यान
को मित्र विश्रांत हो सींच जाना
दे छांह कुम्हले कमल कर्ण फूली
मलिन मालिनों को मिलन के बहाना
वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां
सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूर उज्जयिन्याः
विद्युद्दामस्फुरितचक्रितैस तत्र पौराङ्गनानां
लोलापाङ्गैर यदि न रमसे लोचनैर वञ्चितो ऽसि॥१.२८॥
यदपि वक्र पथ , हे पथिक उत्तरा के
न उज्जैन उत्संग तुम भूल जाना
विद्युत चकित चारु चंचल सुनयना
मिल रमणियों से मिलन लाभ पाना
वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः
संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दर्शितावर्तनाभः
निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः संनिपत्य
स्त्रीणाम आद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु॥१.२९॥
विहग मेखला उर्मिताड़ित क्वणित नाभि
आवर्त लख मंदगति गामिनी के
हो एक रस , निर्विन्ध्या नदी मार्ग
में याद रख भावक्रम कामिनी के
वेणीभूतप्रतनुसलिला ताम अतीतस्य सिन्धुः
पाण्डुच्चाया तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपर्णैः
सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
कार्श्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः॥१.३०॥
वेणि सृदश क्षीण सलिला वराकी
सुतनु पीत जिसका पके पत्र दल से
विरह में तुम्हारे , सुहागिन तुम्हारी
तजे क्षीणता दो उसे पूर जल से
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
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