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सोमवार, 3 अक्तूबर 2022

गीत, सुरेंद्र पवार, पुरोवाक, सॉनेट, काली, छंद पुनीत

सॉनेट
काली
कल क्यों?, काल आज ला काली
अत्याचारी का विनाश कर
करा पाप से दुनिया खाली
सत्ता-सुख का भवन ताश कर

कलकत्ते की मातु कराली
घर घर आ नैवेद्य ग्रहण कर
हाथों में ले थाम भुजाली
शस्य श्यामला वसुंधरा कर

खप्पर कभी न हो माँ खाली
आतंकी का लहू पान कर
फूल-फलों लद झूमे डाली
सुजला सुफला सलिला हो हर

सींचो बगिया बनकर माली
सदय रहो हे मैया काली
३-१०-२०२२
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प्रार्थना

कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।

बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।

सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।

तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
***
छंदशाला ३०
पुनीत छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल व उज्जवला छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SSI ।

लक्षण छंद-
तिथि पुनीत पंद्रहवी खूब।
चाँद-चाँदनी सोहें खूब।।
गुरु गुरु लघु पद का हो अंत।
सरस सरल हो तो ही तंत।।

उदाहरण-
राजा नहीं, प्रजा का राज।
करता तंत्र लोक का काज।।

भूल न मालिक सच्चा- लोक।
सेवक है नहिं नेता- शोक।।

अफसर शोषण करता देख।
न्यायालय नहिं खींचे रेख।।

व्यापारी करता है लूट।
पत्रकारगण डाले फूट।।

सत्ता नहीं घटाती भाव।
जनता सहे घाव पर घाव।।
२-१०-२०२२
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पुस्तक चर्चा :
खुद को 'परख' : साहित्य चख
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भारतीय सृजन परंपरा सबका हित समाहित होने को साहित्य की कसौटी मानती है। 'सत्यं शिवं सुंदरं' के आदर्श को शब्द के माध्यम से समाज तक पहुँचाना ही साहित्य सृजन का ध्येय रहा है। साहित्य के भाव पक्ष का विवेचन कर उसमें अन्तर्निहित भव्य भावों की दिव्यता का दर्शन कर पाठकों-श्रोताओं को उनसे अवगत कराना समालोचना का उद्देश्य रहा है। साहित्य में लोकोत्तर आनंद का अन्वेषण कर साधक-बाधक तत्वों का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, सामान्य सिद्धांतों का निर्धारण ही समालोचना शास्त्र है। कालांतर में ऐसे सिद्धांत ही किसी रचना के मूल्यांकन हेतु आधार का कार्य करते हैं। ये सिद्धांत देश-काल-परिस्थिति अनुरूप परिवर्तित होते हैं। कालिदास के अनुसार न तो सब पुराण श्रेष्ठ है, न सब नया हेय। श्रेष्ठ जन गुणावगुण के अधरा पर निर्णय करते हैं -
"पुराण मित्येव न साधु सर्वं, न छापी काव्यं नवमित्यवजर्न।
संत: परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते, मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।। - (मालविकाग्निमित्र १-६)
एक बार प्लेटो ने कहा "आयम नो राइटर ऑफ़ हिस्ट्री."
डायोजनीज ने उत्तर दिया- "एव्री ग्रेट राइटर इस राइटर ऑफ़ हिस्ट्री, लेट हिम ट्रीट ऑन ऑलमोस्ट व्हाट सब्जेक्ट ही मे. ही कैरीज विथ हिम फॉर थाउसेंड ऑफ़ इयर्स ए पोरशन ऑफ़ हिज टाइम्स."
कवीन्द्र रवींद्र के शब्दों में "विश्व मानव का विराट जीवन साहित्य द्वारा आत्म-प्रकाश करता आया है।" वस्तुत: साहित्य की सीमा लिखने, पढ़ने और पढ़ने तक सीमित नहीं है, वह मनुष्य के शाश्वत जीवन में आनंद और अमृत का कोष है।
भारतीय वांग्मय में, निबंध अति प्राचीन अभिधान है। वर्तमान में हम जिसे निबंध कहते हैं, वह अपनी भावात्मक व वैचारिक यात्रा में साहित्य की चिर नवीन और सशक्त विधा के रूप में भारतेन्दु काल से अद्यतन स्वीकृत और विकसित होता रहा है। वर्तमान गद्य युग में, नीर-क्षीर विवेक का, समीक्षा-समालोचना का, तर्क-वितर्क (कभी-कभी कुतर्क भी) का और और वैश्विक आदान-प्रदान की हर अनुभूति निबंध में समाहित हो रही है। निबंध गंभीर गद्य साहित्य के अंतर्गत कथानक निरपेक्ष श्रव्य विधा के विशिष्ट रूप में पहचाना जा रहा है। वर्तमान निबंध प्राणवान, गतिशील, सशक्त, साहित्यिक, रसात्मक अभिव्यक्ति से संयुक्त विश्वजनीन वैचारिक परिदृश्य से संपुष्ट विधा के रूप में पाठकार्षण का केंद्र है। आचार्य त्रयी (रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी), लाला भगवान दीन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैनेन्द्र, महादेवी, डॉ, नगेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, गुलाबराय, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ, विवेकी राय, डॉ.जगदीश गुप्त, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, आदि ने विविध विधान में निबंध लेखन कर उसे समृद्ध किया है।
हिंदी को विरासत में "गद्यं कवीनां निकषं वदंति" का मानक मिला है। समीक्षा दृष्टि से निबंध लेखन कलात्मकता और वैज्ञानिकता के साँचे में साहित्यिकता को ढालकर शब्द-सामर्थ्य से अभिषिक्त करने का सारस्वत अनुष्ठान है। समीक्षा में विषय की विवेचना कर आख्यान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिभा, अध्ययन और मनन की पूँजी आवश्यक है। वर्तमान में प्राच्य समीक्षा से संपर्क सहज होने के कारण बिम्ब-विधान, प्रतीक, कल्पना, रस, अलंकार, भाषिक वैशिष्ट्य, अभिव्यक्तात्मक गुण-दोष, लक्षण, व्यंजना आदि को ही आधार मानकर समीक्षा-कर्म की इतिश्री नहीं मानी जा सकती। समीक्षा कर्म हेतु सिद्धांत, नियम और आदर्श की कसौटियों को लेकर पश्चिम में भी कलावादियों और भाववादियों में मतभेद है। समीक्षक का कार्य पाठक को गुण-दोष विषयक मान्यताओं से अवगत करना है, निर्णय देना नहीं। पाठकीय अभिरुचि के परिष्करण, बोधशक्ति और रसास्वादन वृद्धि तक ही समीक्षक का दायित्व है। कला, भाव, कथ्य, भाषा और प्रासंगिकता के पंचतत्वों पर चिंतन हेतु समीक्षक की दृष्टि का पूर्वाग्रहमुक्त होना अपरिहार्य है।
समालोचना के ४ प्रधान मार्ग १. सैद्धान्तिक आलोचना, २. निर्णयात्मक आलोचना, ३. प्रभावाभिव्यजंक आलोचना तथा ४. व्याख्यात्मक आलोचना हैं। सैद्धांतिक समालोचना किसी सिद्धांत को केंद्र में रखकर की जाती है। निर्णयात्मक समीक्षा में रचना के गुण-दोषों का आकलन कर स्थान निर्धारण किया जाता है। प्रभावाभिव्यजंक समीक्षा में रचना से व्युत्पन्न प्रभावों को प्रमुखता दे जाती है। व्याख्यात्मक समीक्षा में रचना के विविध अंगों की विशेषताओं को उद्घाटित करती है। समालोचना के कुछ अन्य प्रकार भी हैं। ऐतिहासिक समीक्षा में सामाजिक, राजनैतिक, अभियांत्रिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विविध परिप्रेक्ष्यों में कृति का मूल्यांकन और अन्य कृतियों से तुलना की जाती है। मनोवैज्ञानिक समीक्षा, दर्शन शास्त्रीय समीक्षा, विज्ञानपरक समीक्षा, अर्थ शास्त्रीय समीक्षा आदि विषय विशेष के अंगोपांगों, मूल्यों, विधानों आदि के अनुरूप होती हैं। निर्णायात्मक समीक्षा अब कालातीत हो गयी है। "द रैंकिंग ऑफ़ राइटर्स इन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट हैस बिकम ओब्सोलीट" - द न्यू क्रिटिसिज़्म, जे. ई. स्प्रिंगन
आधुनिक हिंदी में समीक्षा लेखन का सूत्रपात १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय से हुआ।'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बनी क्रिया 'लोच' से निर्गत है। 'लोच' का अर्थ है 'देखना'। 'लोच' का अर्थ देखना, प्रकाशित करना है। 'लोच' से ही 'लोचन' शब्द बना है। 'लोचन' में 'आ' प्रत्यय लगने पर 'आलोचन' फिर आलोचना बना।' आलोचना में 'सम' प्रत्यय जुड़कर 'समालोचना' बन। व्यवहार में समीक्षा, आलोचना, समालोचना (अंग्रेजी 'क्रिटिसिज्म') समानार्थी हैं।शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है।संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है - "यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"
अर्थात् आलोचना से आशय साहित्यक कृति की विश्लेषणपरक व्याख्या से है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।
लाला भगवान दीन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकमंगलपरक रसाश्रित आलोचना, शास्त्रानुमोदित सामाजिक सामयिकता और सटीक भाषिक अभिव्यक्ति से हिंदी समीक्षा भवन की नींव सुदृढ़ हुई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक गर्वानुभूति की चाशनी और पाण्डुलिपीय शोधपरक व्यावहारिक आदर्श को ध्रुव तारे की तरह समीक्षा जगत में स्थापित किया। डॉ. नगेंद्र की रसग्राही दृष्टि आचार्य नंददुलारे बाजपेई के राष्ट्रीय गौरव के साथ सम्मिश्रित होकर महादेवी की रहस्यात्मकता की ओर उन्मुख हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा ने समीक्षा का साम्यवादी यथार्थवाद और अस्तित्ववाद से परिचय कराया। हिंदी साहित्य के विशिष्ट, अभिजात्य, मौलिक हस्ताक्षर रहे अज्ञेय के अनुसार "यह सब अनुभव अद्वितीय, जो मैंने किया, सब तुम्हें दिया।" - आत्मने पद। वे साहित्य सृजन को 'व्यक्ति' विलयन का माध्यम मानते थे। ऋषिगण अपने 'अहं' को विलीन कर सृजन करते थे, अज्ञेय इस ऋषि बोध के कायल थे। उनके अनुसार - "लेखकों को नहीं, समालोचकों को शिक्षित बनने के प्रयत्न करना चाहिए। लेखक बंधन से परे है और रहेगा.... लेखक बंध सकता है पर रचना-शक्ति को नहीं बाँध सकता, बंधने से वह मर जाएगी।" अज्ञेय ने आलोचना और रचना प्रक्रिया को एक कर दिया। उन्होंने व्याख्यात्मक सैद्धांतिक आलोचना पर कम ध्यान दिया। अज्ञेय ने काव्य की आत्मा को शैली (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य, रस आदि) में न मानकर, मानव को केंद्र में रखा। रचनाकार और आलोचक का विभाजन पश्चिम में भी रहा। आलोचना की पहचान उसका शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, समाजपरक, ऐतिहासिक या सौंदर्यवादी होना है। व्यक्तिपरक, अध्यापकीय, भाषिक लालित्य को ध्येय मानने से आलोचना की शक्ति क्षीण होना स्वाभाविक है। आलोचना को तार्किक, संदर्भयुक्त, मूल्य-पोषित होना होगा। मूल्याश्रित आलोचना वस्तुनिष्ठता और तात्कालिकतापरक हो यह स्वाभाविक है। अज्ञेय के अनुसार "भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें। वही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" - (स्रोत और सेतु, पृष्ठ ९९) वे कहते हैं - "क्या किसी साहित्यकार को समझना, उसकी समीक्षा करना, साहित्य के विकास में उसका स्थान और महत्व निश्चित करना, रचना का मूल्य आँकना, क्या केवल उसी को देखकर संभव है? क्या उसकी तथाकथित विशेषता, भिन्नता को देखने के लिए हम उन्हें पूर्ववर्तियों के बीच रख- तुलना कर, पूर्ववर्तियों साहित्यकारों और कवियों के साथ संबंध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?"
मुक्तिबोध के अनुसार समीक्षा का अनिवार्य गुण जीवन, विवेक व उसकी मर्मज्ञता है। उनके अनुसार "वस्तुत: समीक्षात्मक कला में समीक्षा जीवनगत तथ्यों की हुआ करती है।"-नए साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, पृ. ९९। शारदा प्रसाद सक्सेना, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने मुक्तिबोध के चिंतन को 'मार्क्सवादी पूर्वाग्रह' कहा किन्तु डॉ. नामवर सिंह ने इसे 'प्रस्थान भेद और मूल्य केंद्रित दृष्टि' माना। मुक्तिबोध के अनुसार रचनाकार को "तत्व, अभिव्यक्ति और दृष्टिविकास, तीनों क्षेत्रों में रचनाप्रक्रिया को निरंतर उन्नत करना चाहिए। 'नयी कविता का दायित्व' में मुक्तिबोध मानव मुक्ति के संघर्ष को रचनाकार का सबसे बड़ा दायित्व कहते हैं। उनके अनुसार "रचनाकार की दायित्व चेतना मूलत: सामाजिक दृष्टि का प्रतिफल होती है जिसका सहकार उसकी सौंदर्य प्रतीति में अनिवार्य रूप से रहता है।" मुक्तिबोध 'नवीन समीक्षा का आधार' में जीवन संघर्ष के धरातल पर लेखक और समीक्षक में होड़ देखते हैं। " नि:संगता से सृजन नहीं उपजता" - काव्य की रचना प्रक्रिया। उनके अनुसार आलोचक के कर्तव्य और दायित्व बड़े हैं। उसे अहंकार शून्य होना चाहिए। - एक साहित्यकार की डायरी। "समीक्षा को मानवीय यथार्थ से जोड़े बिना कोई मूल्य नहीं दिया जा सकता।" -नयी कविता का आत्म संघर्ष, पृष्ठ १५८। मुक्तिबोध के अनुसार आलोचक का कार्य कलाकृति के भीतर के तत्वों को हृदयंगम कर तत्वों की समुचित व्याख्या करना है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता और लेखन अभियंता सुरेंद्र सिंह पवार की कृति 'परख' चयनित पुस्तकों पर समीक्षात्मक निबंधों का संकलन है। इस विधा पर हिंदी में अपेक्षाकृत कम कार्य हुआ है। यह कार्य समय, धन, बुद्धि और श्रम साध्य है।संकलन में विविध विधाओं, विविध विषयों, विविध आयुवर्ग और पृष्ठभूमि के रचनाकारों का होना इसका वैशिष्ट्य है। स्वाभाविक है कि हर कृति के साथ न्याय करने के लिए हर निबंध की विषयवस्तु, लेखन आधार, मानक और वर्णन शैली भिन्न रखना होगी। अन्तर्निहित ३२ निबंधों में से १८ पद्य कृतियों पर और १४ गद्य कृतियों पर हैं। पद्य कृतियों में २ दोहा संकलन (दोहा-दोहा नर्मदा - संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - डॉ. साधना वर्मा, बुंदेली दोहे - आचार्य भगवत दुबे), ४ खंड काव्य (जयद्रथ मरण - देवराज गोंटिया 'देवराज', महारानी मंदोदरी - प्रतिमा अखिलेश, कालजयी - अमरनाथ, प्राणमय पाषाण - गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ), २ काव्यानुवाद (धाविका - भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', श्री गीता मानस - उदयभानु तिवारी 'मधुकर'), ३ कविता संग्रह (फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक - बद्रीनारायण सिंह पहाड़ी, प्रेमांजलि - विष्णु प्रसाद पांडेय, खुशियों के रंग - मदन मोहन उपाध्याय,), ३ गीत संग्रह (पंख फिर भीगे सपन के - कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', जंगल राग - अशोक शाह, काल है संक्रांति का - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'), २ ग़ज़ल संग्रह (इन दिनों - कृष्ण कुमार राही, सरगोशियाँ - इंदिरा शबनम ), एक मुक्तक संग्रह (कुछ छाया कुछ धूप - चन्द्रसेन 'विराट') तथा एक महाकाव्य (रानी थी दुर्गावती - केशव सिंह दिखित) हैं। गद्य कृतियों में ३ उपन्यास (नींद क्यों रात भर नहीं आती - सूर्यनाथ सिंह, विक्रमादित्य कथा - प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, कितने पाकिस्तान - कमलेश्वर), ५ कहानी संग्रह (सही के हीरो - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, अपना अपना सच - संतोष परिहार, दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे, अष्टदल - डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', सरेराह - डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव), पर्यटन (नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा - भारती ठाकुर), इतिहास (मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार - शंकर सिंह 'राजन'), निबंध संग्रह (काल क्रीडति - डॉ.श्याम सुंदर दुबे), बाल कहानी संग्रह (अनमोल कहानियाँ - श्रीमती गुलाब दुबे), आत्मकथा (जब मेरी वादी हरी भरी थी - डॉ. कंवर के. कौल), लघुकथा (अंदर एक समंदर - सुरेश 'तन्मय' ) सम्मिलित हैं।
रचनाकारों में ६ अभियंता (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', देवराज गोंटिया 'देवराज', अमरनाथ, गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर', उदय भानु तिवारी 'मधुकर', चन्द्रसेन विराट), २ चिकित्सक (डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल), २ उच्च प्रशासनिक अधिकारी (मदन मोहन उपाध्याय, अशोक शाह), ४ शिक्षा शास्त्री (भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, डॉ.श्याम सुंदर दुबे), प्राध्यापक (डॉ. साधना वर्मा), चिकित्सा कर्मी (आचार्य भगवत दुबे), ३ शिक्षक (विष्णु प्रसाद पांडेय, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', केशव सिंह दिखित, ), शासकीय अधिकारी (सुरेश 'तन्मय'), पत्रकार (कमलेश्वर), गृहस्वामिनी (डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव) हैं। इनमें केवल ६ महिलाएँ (डॉ. साधना वर्मा, प्रतिमा अखिलेश, इंदिरा शबनम, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, भारती ठाकुर, श्रीमती गुलाब दुबे) हैं, शेष २६ पुरुष हैं। लगभग सभी रचनाकार उच्च शिक्षित हैं, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव डी.लिट्, डॉ. साधना वर्मा पीएच. डी. तथा डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल चिकित्सा क्षेत्र में शोधोपाधियाँ प्राप्त हैं। इससे उच्च शिक्षित वर्ग में साहित्य सृजन की बढ़ती रूचि का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। अब कबीर, रैदास आदि की तरह शिक्षा अवसर रहित किन्तु उच्चतम समझ से संपन्न रचनाकार अपवाद ही हैं। इसका प्रभाव रचनाओं में भाषिक शुद्धता, प्रांजल अभिव्यक्ति, विषय और कथ्य के प्रति स्पष्ट समझ तथा विचारों के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसमें स्वाभाविकता पर कृत्रिमता के हावी होने का खतरा भी है। कथ्य पर शिल्प हावी हो सकता है जिसका दुष्परिणाम संवेदनाओं का पाठक / श्रोता तक संवेदनाएँ न पहुँचने के कारण जुड़ न पाने के रूप में होने के रूप में हो सकता है। सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं है और इसीलिये ये कृतियाँ समीक्षक की चयन सूची में आ सकी हैं।
कृतिकार सुरेंद्र जी अभियंता हैं, गुणवत्ता के प्रति सजग रहना उनका स्वभाव है। कृति चयन, पठन और उन पर समीक्षात्मक निबंध लेखन का कार्य रज्जु पर नर्तन की तरह दुष्कर कृत्य है। एक ओर अपनों के नाराज होने की संभावना, दूसरी ओर कृति और कथ्य के साथ न्याय न हो पाने का खतरा, तीसरी और समीक्षा के मानकों का पालन न होने से आलोचना का भय। इन सबके मध्य कृतियाँ विविध विषयों और विधाओं की हों जिनमें कुछ के परिक्षण के मानक ही अस्पष्ट हों तो समीक्षक का कार्य अधिक कठिन हो जाता है। संतोष है की सुरेंद्र जी धुआँधार जलप्रपात से व्युत्पन्न भँवर युक्र नर्मदा सलिल धार की तरह जटिल समीक्षा नद को कुशल तैराक की तरह पार कर सके हैं। इसमें सबसे बड़ी सहायक उनकी तर्क-शक्ति, ग्राह्य सामर्थ्य और निष्पक्षता हुई है। वे संबंधों के शोणभद्र को नैकट्य की जोहिला पर मुग्ध नहीं होने देते और निश्छल नर्मदा की तरह सत्य-शिव-सुंदर को सराहते हुए नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हुए, खूबियों को सराहते, खामियों को इंगित कर समीक्षक धर्म का पालन कर सके हैं।
दोहा संकलन
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग १ 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा की समीक्षा करते हुए वे लगभग १७०० दोहों में से कुछ दोहों को उद्धृत करने के साथ किसी छंद पर अब तक हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्य की हिंदी साहित्य के हिमालय 'तार सप्तक' के साथ जोड़ने में संकोच नहीं करते। प्रत्येक दोहाकार के गुण-दोष संकेतन के साथ एक-एक दोहा उद्धृत कर संतुलित-निष्पक्ष समीक्षा सुरेंद्र जी ने की है।
बुंदेली दोहे में सदाबहार छंद दोहा और सरस बुंदेली का सम्मिलन रसधार की तरह प्रवाहित हो, यह स्वाभाविक है। समीक्षक ने कृति में प्रयुक्त बुंदेली शब्द-संपदा के महत्व को रेखांकित किया है। वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे की यह कृति बुंदेली साहित्य का रत्न है।
खंड काव्य
जयद्रथ मरन अभियंता कवि देवराज गोंटिया 'देवराज' लिखित महत्वपूर्ण बुंदेली खंड काव्य है। इसी प्रसंग पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'जयद्रथ वध' खंड काव्य की रचना हरगीतिका छंद ( ४ x ११२१२) में की है। देवराज ने आल्हा छंद (१६-१५ पर यति, विषम पदांत गुरु, सम पदांत लघु) का प्रयोग किया है। सुरेंद्र जी ने बुंदेलखंड में वाचिक छंद परंपरा, अलंकारों, रसों आदि का उल्लेख करते हुए कृति का सम्यक विवेचन किया है।
प्रतिमा अखिलेश की औपन्यासिक कृति महारानी मंदोदरी पर विमर्श में पंचकन्याओं में परिगणित मंदोदरी द्वारा धर्म या परंपरा के नाम पर वैयक्तिक महत्ता के स्थान पर कर्तव्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने की स्वागतेय वृत्ति को इंगित किया गया है।
लखनऊ के वरिष्ठ कवि अभियंता अमरनाथ द्वारा रचित खंड काव्य कालजयी की समीक्षा में कारण की मनोग्रंथियों, आदर्शों तथा कवि द्वारा प्रयुक्त अभियांत्रिकीय उपमानों झरता - दीवार, घुनता - लकड़ी, रिसता - छत, दीमक - काया, पानी - आँखें आदि की प्रस्तुति परख की सजगता की परिचायक है।
प्राणमय पाषाण खंड काव्य अभियंता कवि गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' की काव्य कृति है। यह मदन महल की शिलाओं से सद्गुरु कृपालु जी महाराज के संवाद की भावभूमि पर आधृत है। समीक्षक ने कवि के कथ्य के साथ न्याय करने के प्रयास करते हुए भी काल क्रम दोष को उचित ही इंगित किया है।
काव्यानुवाद
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बुंदेलखंड के वरिष्ठ शिक्षा विद रहे हैं। उनहोंने सत्य साईं बाबा की शिक्षा संस्था में अध्यापन के समय बाबा का नैकट्य पाया और अंत में बापू की कम भूमि अहमदाबाद में सारस्वत साधना की। आंग्ल कवि विलियम मॉरिस के महाकाव्य 'अर्थली पैरेडाइज' के १२ वे सर्ग 'एटलांटाज रेस' को खंड काव्य के रूप में धाविका शीर्षक से रचकर नियाज़ जी ने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। समीक्षक ने कथानक, प्रकृति चित्रण, चरित्र चित्रण, कला पक्ष आदि अनुच्छेदों में कृति का सम्यक विवेचन किया है।
श्री गीता मानस में उदयभानु तिवारी 'मधुकर' ने गीता के कथ्य को मानस के शिल्प में ढाला है। से मूल ग्रंथ की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए भाषा और भाव की दृष्टि से अद्वितीय काव्यानुवाद ठीक ही कहा गया है।
कविता संग्रह
फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक काव्य संग्रह में बद्रीनारायण सिंह 'पहाड़ी' द्वारा प्रयुक्त आम भाषा की पैरवी करता रचनाकार मानव मूल्यों के ह्रास से चिंतित है।सुरेंद्र कवि द्वारा पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन के प्रति चिंता को उकेरते ही नहीं उभरते भी हैं।
शिक्षक कवि विष्णु प्रसाद पांडेय प्रणीत काव्य कृति प्रेमांजलि प्रकृति को आध्यत्मिक दृष्टिकोण से निहारते हुए उत्पन्न भावों से समृद्ध है। समीक्षक ने 'काम' और 'राम' दोनों को पहचाना है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कवि मदन मोहन उपाध्याय के काव्य संग्रह 'खुशियों के रंग' की १२९ कविताओं में अंतर्निहित अनीश्वरवाद, विषय वैविध्य और हुलास की तलाश समालोचक की दृष्टि से नहीं बचते। कवि ने कथ्य और समीक्षक ने रचनाओं के विवेचन में नीर-क्षीर दृष्टी का परिचय दिया है।
गीत संग्रह
पंख फिर भीगे सपन के संस्कारधानी जबलपुर के सरस्-समर्थ गीतकार कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' के रचनाकर्म की बानगी है। समीक्षक इन गीतों में रजऊ और मीरा की दीवानगी, अनुरागी तन-बैरागी मन देख सका है।
गीत संग्रह 'जंगल राग' के रचयिता अशोक शाह उच्चतम तकनीकी शिक्षा प्राप्त प्रशासकीय अधिकारी हैं। उनका गहन अध्ययन और सुदीर्घ प्रशासनिक अनुभव उनकी अनुभूतियों को सामान्य से इतर अभिव्यक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बनाये, यह स्वाभाविक है। ऐसे रचनाकर को पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। सुरेंद्र जी ने कृति में प्रयुक्त प्राचीन मिथकों, वनवासियों की वाचिक परंपराओं आदि से संपन्न जंगल राग को जीवन राग से ठीक ही जोड़ा है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' अभियंता रचनाकारों द्वारा नई लीक गढ़ने का अन्यतम उदाहरण है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की इस कृति को समीक्षक सुरेंद्र जी ने 'गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीत रूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान' करता पाया है। वे इन गीतों के केंद्र में आम आदमी को देख पाते हैं जो श्रम जीवी है और जिसे हर दिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। उनके अनुसार इन नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और संपन्न रूप में मौजूद है। इन नवगीतों में अन्तर्निहित कसावट, संक्षिप्तता, नूतन बिम्ब, अभिनव प्रतीक और छांदस प्रयोग मिथकों, मुहावरों आदि आदि को भी समीक्षक की सूक्ष्म दृष्टि देख-परख लेती है।
ग़ज़ल संग्रह
हिंदी गीति काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता चंद्रसेन विराट रचित हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह इस सदी का आदमी की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए 'बहरों का दरबार जोर से बोल यहाँ / मिमिया मत, हुंकार जोर से बोल यहाँ' का उल्लेख समालोचक की सुधारात्मक सोच का संकेत करता है।
ग़ज़ल संग्रह 'इन दिनों' की रचनाओं में कृष्ण कुमार 'राही' पर समकलिक अन्य ग़ज़लकारों का प्रभाव देख पाना समीक्षक की पैनी दृष्टि का साक्ष्य है।
सरगोशियाँ ग़ज़ल संग्रह इंदिरा शबनम की कृति है। इन ग़ज़लों के हिन्दुस्तानी तेवर को सराहता समीक्षण उनकी छन्दबद्धता, मौलिकता और भाव प्रवणता को भी परखता है।
मुक्तक संग्रह 'कुछ छाया कुछ धूप' हिंदी के यशस्वी साहित्यकार अभियंता चन्द्रसेन 'विराट' की कीर्ति पताका है। समीक्षक ने विराट जी द्वारा अपनाये गए उर्दू छंद की चर्चा की है जो हिंदी का पौराणिक जातीय छंद का एक प्रकार है।
महाकाव्य
रानी थी दुर्गावती भारतीय इतिहास के उज्वल चरित्र को सामने लता है जिसके उत्सर्ग को वनवासी क्षत्राणी होने के नाते वह महत्व नहीं मिला जो मिलना था। केशव सिंह दिखित ने इस कृति द्वारा दुर्गावती के बलिदान के साथ न्याय किया है। दुर्गावती पाए वृन्दावन लाल वर्मा, हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने उपन्यास और गोविन्द प्रसाद तिवारी ने खंड काव्य पूर्व में लिखा है। समालोचक ने क्षत्रिय राज वंशों की विस्तृत चर्चा करते हुए चंदेल-गोंड विवाह को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार उचित ठहराया है। महाकाव्यत्व के निकष पर कृति खरी है।
उपन्यास
सूर्यनाथ सिंह के मनोवैज्ञानिक उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' की समीक्षा करते समय किस्सागोई की देशज परंपरा का उल्लेख कल को आज से जोड़कर कल के लिए उसकी प्रासंगिकता को इंगित करता है।
'विक्रमादित्य कथा' ज्येष्ठ साहित्यकार प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी लिखित, ६वीं सदी के संस्कृत साहित्य सुमेरु डंडी के अप्राप्य ग्रंथ पर आधारित कृति है। सुरेंद्र जी ने इसे उद्भट विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कालजयी कृति बाणभट्ट की आत्मकथा के समकक्ष रखा है किंतु दोनों के मध्य समानता के बिंदु नहीं दिए हैं।
कितने पाकिस्तान ख्यात साहित्यकार-प्रकार-संपादक कमलेश्वर की बहुचर्चित कृति है। इसे पढ़ते समय सूयरंध्र जी की सजग पाठकीय दृष्टि बुन्देल केसरी छत्रसाल संबंधी तथ्यात्मक चूक की और गयी और उन्होंने निस्संकोच पत्र लिखकर कमलेश्वर को इसकी प्रतीति कराई। यह निबंध उपन्यास की समीक्षा न होकर इस प्रसंग पर सुरेंद्र जी के अध्ययन पर केंद्रित है।
कहानी संग्रह
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल लिखित कहानी संग्रह 'सही के हीरो' में प्रयुक्त अहिन्दी शब्दों से हिंदी की श्रीवृद्धि होने की समझ, ऐसे शब्दों को परे रखने की संकुचित सोच पर करारा प्रहार है। पारंपरिक कहावतों, मुहावरों के प्रासंगिक प्रयोग पर समीक्षकीय दृष्टिपात सजगता का परिचायक है।
अपना अपना सच में संतोष परिहार की कहानियों के मूल में प्रेमचंद-प्रभाव का संकेत और तब से अब तक विसंगतियों का अक्षुण्ण प्रभाव समीक्षक की पैनी निगाह से बचा नहीं है।
दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे का चर्चित कथा संग्रह है। कहानियां खड़ी बोली में होने पर भी पात्रों के संवाद परिवेशानुकूल बुंदेली में होने को समीक्षक ने ठीक ही, ठीक ठहराया है। समकालिक कहानीकारों के प्रभाव का उल्लेख उपयुक्त है।
अष्टदल डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल' की ८ ऐसी कहानियों का संग्रह है जिनमें सामाजिक विसंगतियों और अंतर्द्व्न्दों के बावजूद आदमियत की अहमियत बरक़रार है। समीक्षक इनमें अच्छी कहानी के सब गुण पाता है।
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव विदुषी गृहस्वामिनी हैं। अभियंता पति के साथ व्यस्त रहते हुए भी उन्होंने कायस्थ परिवार की विरासत शब्द संस्कृति को जीवंत रखकर अपनी शोध यात्रा को शिखर पर पहुँचाया है। संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी चारों भाषाओँ में दखल रखने वाली कहानीकार 'सरेराह' की २८ कहानियों में ऑटोरिक्षा में आते-जाते समय होते वार्तालाप को कहानियों का धार बनाती हैं। सुरेंद्र जी अपनी परख में इन कहानियों में अंतर्व्याप्त बहुरंगी जीवंत छवियों को कहानी और लघुकथा के बीच उकेरे गए कथा-चित्र पाते हैं।
पर्यटन
हिंदी में पर्यटन साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है। नर्मदा घाटी पर्यटकों को हमेशा लुभाती रही है। स्व. अमृतलाल वेगड़ कृत 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'तीरे-तीरे नर्मदा' तथा 'नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो', 'नदी तुम बोलती क्यों हो?' - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, 'समय नर्मदा धार सा' - मस्तराम गहलोत, 'नर्मदा की धारा से' - शिव कुमार तिवारी-गोविन्द प्रसाद मिश्र, आदि के क्रम में 'नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा' लिखकर भारती ठाकुर ने सत्प्रयास किया है। कृति के गुण-दोष विवेचन पश्चात् समीक्षक ने बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करने के तथ्य सामने लाकर सामाजिक प्रसंगों के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है।
इतिहास
शंकर सिंह 'राजन' की कृति मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार इतिहास के उस पृष्ठ को समने लाती है जिससे वर्तमान सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुँच सकती है। सुरेंद्र जी ने संक्षिप्त चर्चा कर इस प्रसंग को उचित ही काम महत्व दिया है।
डॉ.श्याम सुंदर दुबे विंध्य क्षेत्र के ख्यात शिक्षाविद, ४० से अधिक कृतियों के रचयिता हैं। उनके ३३ निबंधों का संग्रह 'काल क्रीडति' अपने नाम से ही अंतर्वस्तु का परिचय देता है। प्रकृति के विविध रति रंगों से क्रेडा करता पुरुष, आप ही उसका खिलौना न बन जाए। ऐसी चेतना जगाते इन निबंधों पर विमर्श करते समय उतनी ही संवेदनशीलता का परिचय देता है, जितनी अपेक्षित है।
बाल कहानी संग्रह 'अनमोल कहानियाँ' में श्रीमती गुलाब दुबे ने २८ कहानियों तथा ८ पद्य रचनाओं को स्थान दिया है। ये पारंपरिक कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रही हैं। लेखिका ने पारंपरिक कथ्य को अपने शब्दों का बाना पहनाकर बच्चों को प्रेरित करने के साथ समीक्षकीय समर्थन भी पाया है।
डॉ. कंवर के. कौल की अंगरेजी आत्मकथा 'व्हेन माय वैली वाज ग्रीन' का हिंदी रूपांतर 'जब मेरी वादी हरी थी' को समीक्षक ने आप बीती घटनाओं, यादों, यात्राओं, संस्मरणों, अनुभवों, घटनाओं व परिवर्तनों का पिटारा ठीक ही निरूपित किया है।
लघुकथा
हिंदी और निमाड़ी के समर्थ रचनाकार सुरेश 'तन्मय' का लघुकथा संग्रह 'अंदर एक समंदर' में ८२ लघुकथाएँ हैं। समीक्षक ने लघुकथा के मानकों को लेकर हो रहे अखाड़ेबाजी से दूर रह कर लघुकथाओं को कथ्य के आधार पर परखा है।
समीक्षात्मक निबंधों में कृति के हर पक्ष की चर्चा अनावश्यक विस्तार-भय से नहीं हो पाती है। समीक्षा करते समय उससे होने वाले प्रभावों और प्रतिक्रियाओं का भी ध्यान रखना होता है। कहा गया है 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' अर्थात 'जब सच बोलो प्रिय सच बोलो, अप्रिय सच को कभी न बोलो'। सुरेन्द्र जी ने इसी नीति का अनुसरण किया है। कृतियों के वैशिष्ट्य को यत्र-तत्र उद्घाटित किया है किन्तु न्यूनताओं को प्रे: अनदेख किया है। आलोचना के निकष पर यह नीति आलोचना की पात्र होगी किन्तु सम ईक्षा की दृष्टि से इसे सहनीय मानने में किसी को आपत्ति न होगी। इस तरह की कृतियाँ नव रचनाकारों के लिए पथ दर्शक की भूमिका निभा सकती हैं। गहन और व्यापक अध्ययन हेतु सुरेंद्र जी साधुवाद के पात्र हैं।
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गीत:
कम हैं...
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जितने रिश्ते बनते कम हैं...

अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
३-१०-२०११
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