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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

मुक्तक, करवा चौथ, मुक्तिका, सॉनेट, नयन, नवगीत, भारती वंदना, -वृन्दावन, दोहा, रासलीला

सॉनेट 
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर 
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट

नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई 
नयन उठे सँग सपने कई कई 
नयन नयन में बसे मिटा भय

नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे

नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न बहरे
नयन न रोके रुके न ठहरे
१३•१०•२०२२
●●●
मुक्तक
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
चाँद हो साथ में चाँदनी रात हो
चुप अधर, नैन की नैन से बात हो
पानी-पानी हुई प्यास पल में 'सलिल'
प्यार को प्यार की प्यार सौगात हो
*
चाँद को जोड़कर कर मनाती रही
है हक़ीक़त सजन को बुलाती रही
पी रही है 'सलिल' हाथ से किंतु वह
प्यास अपलक नयन की बुझाती रही
*
चाँद भी शरमा रहा चाँदनी के सामने
झुक गया है सिर हमारा सादगी के सामने
दूर रहते किस तरह?, बस में न था मन मान लो
आ गया है जल पिलाने ज़िंदगी के सामने
*
गगन का चाँद बदली में मुझे जब भी नज़र आता
न दिखता चाँद चेहरा ही तेरा तब भी नज़र आता
कभी खुशबू, कभी संगीत, धड़कन में कभी मिलते-
बसे हो प्राण में, मन में यही अब भी नज़र आता

*

मुक्तिका
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुंदर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
*
संजीव, ७९९९५५९६१८
करवा चौथ २७-१०-२०१८
*
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
***
हिंदी ग़ज़ल -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***
***
भारती वंदना
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें विधि जगवाणी की
संस्कृत-पुत्री को अपना गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
अवधी, असमी, कन्नड़, गढ़वाली, गुजराती
बुन्देली, बांगला, मराठी, बृज मुस्काती
छतीसगढ़ी, तेलुगू, भोजपुरी, मलयालम
तमिल, डोगरी, राजस्थानी, उर्दू भाती
उड़िया, सिंधी, पंजाबी गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
देश, विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा सलिला
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
*
बिन अपनों के हो सलिल' पल-पल समय पहाड़
जेठ-दुपहरी मिले ज्यों, बिन पाती का झाड़
*
विरह-व्यथा को कहें तो, कौन सका है नाप?
जैसे बरखा का सलिल, या गर्मी का ताप
*
कंधे हों मजबूत तो, कहें आप 'आ भार'
उठा सकें जब बोझ तो, हम बोलें 'आभार'
*
कविता करना यज्ञ है, पढ़ना रेवा-स्नान
सुनना कथा-प्रसाद है, गुनना प्रभु का ध्यान
*
कांता-सम्मति मानिए, हो घर में सुख-चैन
अधरों पर मुस्कान संग, गुंजित मीठे बैन
***
***
एक रचना: मन-वृन्दावन
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
किस पग-रज की दिव्य स्वामिनी का मन-आँगन राज सखे!
*
कलरव करता पंछी-पंछी दिव्य रूप का गान करे.
किसकी रूपाभा दीपित नभ पर संध्या अभिमान करे?
किसका मृदुल हास दस दिश में गुंजित ज्यों वीणा के तार?
किसके नूपुर-कंकण ध्वनि में गुंजित हैं संतूर-सितार?
किसके शिथिल गात पर पंखा झलता बृज का ताज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी केशराशि श्यामाभित, नर्तन कर मन मोह रही?
किसके मुखमंडल पर लज्जा-लहर जमुन सी सोह रही?
कौन करील-कुञ्ज की शोभा, किससे शोभित कली-कली?
किस पर पट-पीताम्बरधारी, मोहित फिरता गली-गली?
किसके नयन बाणकान्हा पर गिरते बनकर गाज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी दाड़िम पंक्ति मनोहर मावस को पूनम करती?
किसके कोमल कंठ-कपोलों पर ऊषा नर्तन करती?
किसकी श्वेताभा-श्यामाभित, किससे श्वेताभित घनश्याम?
किसके बोल वेणु-ध्वनि जैसे, करपल्लव-कोमल अभिराम?
किस पर कौन हुआ बलिहारी, कैसे, कब-किस व्याज सखे?
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसने नीरव को रव देकर, भव को वैभव दिया अनूप?
किसकी रूप-राशि से रूपित भवसागर का कण-कण भूप?
किससे प्रगट, लीन किसमें हो, हर आकार-प्रकार, विचार?
किसने किसकी करी कल्पना, कर साकार, अवाक निहार?
किसमें कर्ता-कारण प्रगटे, लीन क्रिया सब काज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
१३-१०-२०१७
***
रासलीला :
संजीव 'सलिल'
*
रासलीला दिव्य क्रीड़ा परम प्रभु की.
करें-देखें-सुन तरें, आराध्य विभु की.
चक्षु मूँदे जीव देखे ध्यान धरकर.
आत्म में परमात्म लेखे भक्ति वरकर.
जीव हो संजीव प्रभु का दर्श पाए.
लीन लीला में रहे जग को भुलाए.
साधना का साध्य है आराध्य दर्शन.
पूर्ण आशा तभी जब हो कृपा वर्षण.
पुष्प पुष्पा, किरण की सुषमा सुदर्शन.
शांति का राजीव विकसे बिन प्रदर्शन
वासना का राज बहादुर मिटाए.
रहे सत्य सहाय हरि को खोज पाए.
मिले ओम प्रकाश मन हनुमान गाए.
कृष्ण मोहन श्वास भव-बाधा भुलाए.
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रस भरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनाई?
हर किसी में आप वह देता दिखाई?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् दिगादि दिगंत जैसे एक पाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
जमुन रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचती थीं.
साधिका होकर साध्य को ही बाँचती थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्री बांकेबिहारी.
नर्मदा सी वर्मदा सी शर्मदा सी.
स्नेह-सलिला बही ब्रज में धर्मदा सी.
वेणु झूमी, थिरक नाची, स्वर गुँजाए.
अर्धनारीश्वर वहीं साकार पाए.
रहा था जो चित्र गुप्त, न गुप्त अब था.
सुप्त होकर भी न आत्मन् सुप्त अब था.
दिखा आभा ज्योति पावन प्रार्थना सी.
उषा संध्या वंदना मन कामना सी.
मोहिनी थी, मानिनी थी, अर्चना थी.
सृष्टि सृष्टिद की विनत अभ्यर्थना थी.
हास था पल-पल निनादित लास ही था.
जो जहाँ जैसा घटित था, रास ही था.
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३०-४-२०१०

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