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गुरुवार, 1 सितंबर 2022

एकाक्षरी दोहा,लघुकथा,कृष्ण जन्म,नवगीत,दोहा,सावन गीत,मुक्तिका

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस 
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावातारी जातीय बीर छंद में है
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लघुकथा
रीढ़ की हड्डी
*
बात-बात में नीति और सिद्धांतों की दुहाई देने के लिए वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। तनिक ढील या छूट देना उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता। ब्राम्हण परिवार में जन्मने के कारण वे खुद को औरों से श्रेष्ठ मानकर व्यवहार करते।
समय सदा एक सा नहीं रहता, बीमार हुए, खून दिया जाना जरूरी हो गया, नाते-रिश्तेदार पीछे हट गए तो चिकित्सकों ने रक्त समूह मिलाकर एक अनजान लड़के का खून चढ़ा दिया। उन्होंने धन्यवाद देने के लिए रक्तदाता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसे बुलाया गया, देखते ही उनके पैरों तले से जमीन खिसक गयी, वह सफाई कर्मचारी का बेटा था।
आब वे पहले की तरह ब्राम्हणों की श्रेष्ठता का दावा नहीं कर पाते, झुक गयी है रीढ़ की हड्डी
***
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लघुकथा
जन्म कुंडली
*
'आपकी गृह दशा ठीक नहीं है, महामृत्युंजय मन्त्र का सवा लाख जाप कराना होगा। आप खुद करें तो श्रेष्ठ अन्यथा मेरे आश्रम में पंडित इसे संपन्न करेंगे, आप नित्य ८ बजाए आकर देख सकते हैं। यह भी न साध सके तो आरम्भ और अंत में पूजन में अवश्य सम्मिलित हों। यह सामग्री और अन्य व्यय होगा' कहते हुए पंडित जी ने यजमान के हाथ में एक परचा थमा दिया जिस पर कुछ हजार की राशि का खर्च लिखा था। यजमान ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर लिखी राशि में पांच सौ और जोड़कर पंडित के निकट रखी गणेश प्रतिमा के निकट रखकर चरण स्पर्श किये और प्रसाद लेकर चले गए।
वहाँ उपस्थित अन्य सज्जन आश्रम से बाहर आने पर कुंडली और ग्रहों के नाम पर जाप करने से संकट टालने के विरुद्ध बोलते हुए इसे पाखण्ड बताते रहे। कुछ दिन पश्चात् उनपुत्रय जन सड़क दुर्घटना में घायल हो गया। अब वे स्वयं आश्रम में पण्डित जी को दिखा रहे थे पुत्र की जन्मकुंडली।
***
***
एक रचना
*
आज प्रभु श्री कृष्ण के जन्म का छटवाँ दिन 'छटी पर्व' है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मालवा आदि में यह दिन लोकपर्व 'पोला' के रूप में मनाया जाता है। पशुओं को स्नान कराकर, सुसज्जित कर उनका पूजन किया जाता है। इन दिन पशुओं से काम नहीं लिया जाता अर्थात सवैतनिक राजपत्रित अवकाश स्वीकृत किया जाता है। पशुओं का प्रदर्शन और प्रतियोगिताएँ मेले आदि की विरासत क्रमश: समापन की ओर हैं। विक्रम समय चक्र के अनुसार इसी तिथि को मुझे जन्म लेने का सौभाग्य मिला। माँ आज ही के दिन हरीरा, सोंठ के लड्डू, गुलगुले आदि बनाकर भगवन श्रीकृष्ण का पूजन कर प्रसाद मुझे खिलाकर तृप्त होती रहीं। अदृश्य होकर भी उनका मातृत्व संतुष्ट होता रहे इसलिए मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और धर्मपत्नी साधना आज भी यह सब पूरी निष्ठां से करती हैं। बड़भागी, अभिभूत और नतमस्तक हूँ तीनों के दिव्य भाव के प्रति। आज बाँकेबिहारी की 'छठ' पूजना तो कलम का धर्म है कि बधावा गाकर खुद को धन्य करे-
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नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
मेघराज आल्हा गाते
तड़ित देख नर डर जाते
कालिंदी कजरी गाये
तड़प देवकी मुस्काये
पीर-धीर-सुख का दोहा
नव शिशु प्रगट मन मोहा
चौपाई-ताला डोला
छप्पय-दरवाज़ा खोला
बंबूलिया गाये गोकुल
कूक त्रिभंगी बन कोयल
बेटा-बेटी अदल-बदल
गया-सुन सोहर सम्हल-सम्हल
जसुदा का मुख चंद है
दर पर शंकर संत है
प्रगटा आनँदकंद है
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
काल कंस पर मँडराया
कर्म-कुंडली बँध आया
बेटी को उछाल फेंका
लिया नाश का था ठेका
हरिगीतिका सुनाई दिया
काया कंपित, भीत हिया
सुना कबीरा गाली दें
जनगण मिलकर ताली दें
भेद न वासुदेव खोलें
राई-रास चरण तोलें
गायें बधावा, लोरी, गीत
सुना सोरठा लें मन जीत
मति पापी की मन्द है
होना जमकर द्वन्द है
कटना भव का फंद
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
१-९-२०१६
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नवगीत:
चाह किसकी....
*
चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
*
ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
*
अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....
*
***
अपनी बात :
संजीव
*
सुखों की
भीख मत दो,
वे तो मेरा
सर झुकाते हैं
दुखों का
हाथ थामे,
सर उठा
जीना मुझे भाता।
*
ज़माने से
न शिकवा
गैर था
धोखा दिया
तो क्या?
गिला
अपनों से है
भोंका छुरा
मिल पीठ में
हँसकर
१-९-२०१४
***
लघु कथा:
गुरु दक्षिणा
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
***
दोहा सलिला :
*
नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??
*
आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख
*
है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
*
मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
*
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
*
पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
*
'सलिल' तभी सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
*
जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
*
जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
*
थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
*
'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
*
पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
*
तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
*
साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
*
हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
*
एक द्विपदी:
कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
१-९-२०१३
*
सावन गीत:
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.
ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.
आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.
उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.
छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.
मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.
लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.
साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....
***
मुक्तिका
हम गले मिलते रहें.
*
ईद आये या दिवाली हम गले मिलते रहें.
फूल औ' कलियों के जैसे मुस्कुरा खिलते रहें..

एकता की राह पर रखकर कदम डिगना नहीं.
पाँव शूलों से भले घायल हुए, छिलते रहें..

हैं सिवइयों से कभी बाज़ार में दुकां सजी.
कभी गुझियों-पपड़ियों की लोइयाँ बिलते रहें..

खूबियों से गले मिलते रहे हम अब तक 'सलिल'.
क्यों न थोड़ी खामियों के वार भी झिलते रहें..

भेदभावों के उठे तूफ़ान कितने ही 'सलिल'
रहें स्थिर यह न हो कि डगमगा हिलते रहें..
१-९-२०११

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