कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

विमर्श धर्म

विमर्श
*
धर्म क्या है?
जिसे धारण किया जाए वह धर्म है।
किसे धारण किया जाए?
जो धारण करने योग्य हो।
धारण करने योग्य क्या है?
परिधान या आचरण?
अस्थि-मांस को चर्म का परिधान प्रकृति ही पहना देती है।
क्या चिरकालिक मानव सभ्यता केवल परिधान पर परिधान पहनने तक सीमित है या वह अाचार का परिधान धारण कर श्रेष्ठता का वरण करती है?
मानव देह मिलते ही तन को कृत्रिम परिधान पहना दिया जाता है। पर्व और उल्लास के हर अवसर पर नूतन परिधान पहन कर प्रसन्नता जाहिर की जाती है। जीवन साथी के चयन करते समय उत्तम परिधान धारण किया जाता है। यहाँ तक कि देहांत के पूर्व भी दैनिक परिधान अलग कर भिन्न परिधान में काष्ठ पर जलाया या मिट्टी में मिलाया जाता है।
क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि परिधान ही सभ्यता, संस्कृति या धर्म है?
कदापि नहीं।
परिधान आचार का संकेतक है । परिधान सामाजिक, आर्थिक स्थिति दर्शाता है। परिधान आचार को नियंत्रित नहीं कर सकता। परिधान धारण करनेवाले से तदनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती है। आचरण परिधान से भिन्न हो तो आलोचना और निंदा की जाती है। न्यायालय में न्यायकर्ता, अधिवक्ता और वादी-प्रतिवादी को परिधान से पहचाना तो जाता है पर प्रतिष्ठा अपने आचरण से ही प्राप्त होती है।
स्पष्ट है कि सुविचार से प्रेरित आचार न कि परिधान धर्म है।
सेवा से जुड़े हर वर्ग पंडित, न्यायाधीश, चिकित्सक, पुलिस, अधिवक्ता, पुलिस आदि का परिधान निश्चित है जबकि व्यवसाय से जुड़े वर्ग के लिए निश्चित परिधान नहीं है।
परिधान का उद्देश्य दायित्वों की अनुभूति कराकर तदनुसार आचरण हेतु प्रेरित करना है। चतुर व्यवसायी भी परिधान निर्धारित करने लगे हैं ताकि उनके कर्मचारी प्रतिष्ठान के प्रति लगाव व दायित्व का प्रतीति निर्धारित कार्यावधि के बाद भी करें।
क्या शासकीय पदों पर परिधान आमजन के प्रति दायित्व का प्रतीति कराता है? कराता तो किसी कार्यालय में कोई नस्ती लंबित न होती। कोई अधिवक्ता पेशी न बढ़वाता, हड़ताल न करता, कोई मरीज चिकित्सा बिना न मरता।
आचार, आचरण या कर्तव्य ही धर्म है। यही करणीय अर्थात करने योग्य कर्म है। 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते' कहकर श्री कृष्ण इसी कर्म मनुष्य ही नहीं जीव का भी अधिकार कहते हैं। 'मा फलेषु कदाचन' कहकर वे तुरंत ही सचेत करते हैं कि फल सा परिणाम कर्मकर्ता का अधिकार नहीं है।
दैनंदिन जीवन में हमारे कितने कर्म इस कसौटी पर खरे हैं? यह कसौटी आत्मानुशासन की राह दिखाती है। तब स्व+तंत्र, स्व+आधीन का अर्थ उच्छृंखलता, उद्दंडता, बल प्रयोग नहीं रहता। तब अधिकार पर कर्तव्य को वरीयता दी जाती है।
अपने आचरण को स्वकेंद्रित रखकर देव और दानव चलते हैं जबकि मनुष्य अपने आचरण को सर्वकेंद्रित, सर्वकल्याणकारी बनाकर मानव संस्कृति का विकास करता है। मानव होना देव और दानव होने से बेहतर है। इसीलिए तो देव भी मानव रूप में अवतरित होते हैं। प्रकृति के नियमानुसार मानवावतार देव ही नहीं दानव भी लेते हैं किंतु उन अति आचारियों (अत्याचारियों) को अनुकरणीय नहीं माना जाता।
धर्म कर्म का पूरक ही नहीं पर्याय भी है। प्राय: हम निज कर्महीनता का दोष अन्यों या परिस्थितियों को देते हैं, यह वृत्ति उतनी ही घातक है जितनी कर्मश्रेष्ठता का श्रेय स्वयं लेना। जो इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे ही महामानव बनते हैं।
कर्म धर्म को जीवन मर्म मानना ही एकमात्र राह है जिस पर चलकर आदमी मनुष्य बन सकता है। बकौल ग़ालिब 'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना। धर्म आदमी को इंसान बनने का पथ दिखाता है पर धर्मगुरु रोकता है। वह जानता है कि आदमी इंसान बन गया तो उसकी जरूरत ही न रहेगी।
अपने धर्म पर चलकर मरना परधर्म को मानकर जीने से बेहतर है। इसलिए औरों को नहीं खुद को आत्मानुशासित करें तब दिशाएँ भी परिधान होंगी, तब दिगंबरत्व भी गणवेशों से अधिक मर्यादित होगा, तब क्षमा माँगने और करने की औपचारिकता नहीं आत्मा का आभूषण होगी।
***
संजीव
९-९-२०१९
७९९९५५९६१८

कोई टिप्पणी नहीं: