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बुधवार, 11 अगस्त 2021

निबंध

निबंध 
पावस पानी पयस्विनी  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                            पावस ऋतुरानी का स्वागत कर पाना प्रकृति और पुरुष दोनों का सौभग्य है। सनातन काल से रमणियों के हृदय और कवि-लेखकों की कलम सृष्टि-चक्र के प्राण सदृश "पावस" की पवन छटा का प्रशस्ति गान भाव-भीने गीतों से करते हुए, धन्य होते रहे रहे हैं। पावस का धरागमन होते ही प्रकृति क्रमश: नटखट बालिका, चपल किशोरी, तन्वंगी षोडशी, लजाती नवोढ़ा व प्रौढ़ प्रगल्भा छवि लिए अठखेलियाँ करती, मुस्कुराती है, खिल-खिल कर हँसती है और मनोहर छटा बिखेरती हुई जल बिंदुओं के संग केलि क्रीड़ा करती प्रतीत होती है। पावस की अनुभूति विरह तप्त मानव मन को संयोग की सुधियों से आप्लावित और ओतप्रोत कर देती है।

                            पावस की प्रतीति होते ही कालिदास का यक्ष अपनी प्रिय को संदेश देने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजता है। तुलसी क्यों पीछे रहते? वे तो बारह से उफनती नदी में कूदकर बहते हुई शव को काष्ठ समझ उसके सहारे नदी पार कर प्रिय रत्नावली के समीप पहुँचकर सांसारिक सुख प्राप्ति की आकांशा करते है किंतु तुलसी प्रिया कामिनी मात्र न रहकर भामिनि हो जाती है। वह प्रिय की इष्ट पूर्ति के लिए, अपना खुद का अनिष्ट भी स्वीकार कर, समूची मानवता के कल्याण हेतु अपने स्वामी गोस्वामी को 'गो स्वामी' कहकर सकल सृष्टि के स्वामी श्री राम के पदपद्मों से प्रीत करने का पाठ पढ़ाने के सुअवसर को व्यर्थ नहीं जाने देतीं। गोस्वामी अपनी गोस्वामिनी के अनन्य त्याग को देखकर क्षण मात्र को स्तबध रह जाते हैं किंतु शीघ्र ही सम्हल कर प्रिया के मनोरथ को पूर्ण करने का हर संभव उपाय करते हैं। दैहिक मिलान को सर्वस्व जाननेवाले कैसे समझें की पावस हो या न हो, गोस्वामी और गोस्वामिनी के चक्षुओं से बहती जलधार तब तक नहीं थमी जब तक राम भक्ति की जल वर्षा से समूचे सज्जनों और उनकी सजनियों को सराबोर नहीं कर दिया।      
   
                            पावस ऋतु के आते ही वसुधा में नव जीवन का संचार होता है। नभ पटल पर छाये मेघराज, अपनी प्रेयसी वसुधा से मिलने के लिए उतावला होकर घनश्याम बन जाते हैं और प्रेम-प्यासी की करुण ध्वनि चित्तौड़गढ़ के प्रासादों के पत्थरों को आह भरने के लिए विवश करती हुई  टेरती है हैं- 'श्याम गहन घनश्याम बरसो बहुत प्यासी हूँ'। 

                            धरा को मनुहारता घन-गर्जन सुनकर उसकी भामिनि दामिनी तर्जन द्वारा रोष व्यक्त कर सबका दिल ही नहीं दहलाती, तड़ितपात कर मेघराज को अपने कदम पीछे करने के लिए विवश भी कर देती है। मेघ को बिन बरसे जाते देख, पवन भी पीछे नहीं रहता और दिशाओं को नापता हुआ, तरुओं को झकझोरता हुआ, लताओं को छेड़ता हुआ अपने विक्रम का प्रदर्शन करता है। भीत तन्वंगी लताएँ हिचकती-लजाती अपने तरु साथियों से लिपटकर भय निवारण के साथ-साथ, नटवर को सुमिरती हुई जमुन-तट की रास लीला को मूर्त कारण में कसर नहीं छोड़तीं। बालिका वधु सी सरिता, पर्वत बाबुल के गृह से विदा होते समय चट्टान बंधुओं से भुज भेंटकर कलपती हुई, बालुका मैया के अंक में विलाप कर सांत्वना पाने का प्रयास करती है किंतु अंतत: प्रिय समुद्र की पुकार सुनकर, सबसे मुख फेरकर आगे बढ़ भी जाती है और उसकी इस यात्रा का पाथेय जुटाता है पावस अपनी प्रेयसी वर्षा का सबला पाकर।
 
                            प्रकृति की लीला अघटन घटना पचीयसी की तरह कुछ दिखलाती, कुछ छिपाती, होनी से अनहोनी और अनहोनी से होनी की प्रतीति कराने की तरह होती है। क्रमश: पीहर की सुधियों में डूबती-उतराती सलिला, सपनों के संसार में प्रिय से मिलन की आस लिए हुए, कुछ आशंकित कुछ उल्लसित होती हुई, मंथर गति से बढ़ चलती है। कोकिलादि सखियों की छेड़-छाड़ से लजाती नदी, बेध्यानी में फिसलकर पथ में आए गह्वर में गिर पड़ती है। तन की पीड़ा मन की व्यथा भुला देती है। कलकल करती लहरियों का निनाद सुनकर मुस्कुराती तरंगिणी मत्स्यादि ननदियों और दादुरादि देवरों से  भौजी, भौजी सुनकर मनोविनोद करते हुए आगे बढ़ती जाती है। पल-पल, कदम दर कदम बढ़ते हुए, कब उषा दुपहरी में, दुपहरी संध्या में और संध्या रजनी में परिवर्तिति हो जाती, पता ही नहीं चला। न जाने कितने दिन-रात हो गए? नील गगन से कपसीले बादल शांति संदेश देते, रंग-बिरंगे घुड़पुच्छ बादल इंद्रधनुषी सपने दिखाते, वर्षामेघ अपने स्नेहाशीष से शैलजा को समृद्ध करते। भोर होते ही तीर पर प्रगट होकर प्रणाम करते भक्त, मंदिरों में बजती घण्टियाँ, गूँजती शंख ध्वनियाँ, भक्ति-भाव से भरी प्रार्थनाएँ सुनकर शैवलिनी के कर अनजाने ही जुड़ जाते और वह अपने आराध्य नीलकंठ शिव का स्मरण कर अपने जल में अवगाहन कर रहे नारी-नारियों के पाप-शाप मिटाने के लिए कृत संकल्पित होकर, सुग्रहणी की तरह क्षमाशील हो ममता मूर्ति बनकर कब सबकी श्रद्धा का पात्र बन गई, उसे पता ही न चला। 

                            सब दिन जात न एक समान। प्रकृति पुत्र मनुज को श्रांत-क्लांत पाकर निर्झरिणी उसे अंक में पाते ही दुलारती-थपथपाती लेकिन यह देख आहत भी होती कि यह मनुज स्वार्थ और लोभवध दनुज से भी बदतर आचरण कर रहा है। मनुष्यों के कदाचार और दुराचार से त्रस्त वृक्षों की हत्या से क्षुब्ध शैवलिनी क्या करे यह सोच ही रही थी कि अपने बंधु-बांधवों,  मिटटी के टीलों-चट्टानों तथा पितृव्य गिरी-शिखरों को खोदकर भूमिसात किए जाते देख प्रवाहिनी समझ गई कि लातों के देव बातों से नहीं मानते। कोढ़ में खाज यह कि खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते नागर जनों ने नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गंधर्वों आदि को पीछे छोड़ते हुए मैया कहते-कहते शिखरिणी के निर्मल-धवल आँचल को मल-मूत्र और कूड़े-कचरे का आगार बना दिया। नदी को याद आया कि उसके आराध्य शिव ही नहीं, आराध्या शिवा को भी अंतत: शस्त्र धारण कर दुराचारों और दुराचारियों का अंत कर अपनी ही बनाई सृष्टि को मिटाना पड़ा था। 'महाजनो येन गत: स पंथा:' का अनुकरण करते हुए जलमला ने उफनाते हुए अपना रौद्र रूप दिखाया, तटबंधों को तोड़कर मानव बस्तियों में प्रवेश किया और गगनचुंबी अट्टालिकाओं को भूमिसात कर मानवी निर्मित यंत्रों को तिनकों की तरह बहकर नष्ट कर दिया। गगन ने भी अपनी लाड़ली के साथ हुए अत्याचार से क्रुद्ध होकर बद्रीनाथ और केदारनाथ पर हनीमून मनाते युग्मों को मूसलाधार जल वृष्टि में बहाते हुए पल भर में निष्प्राण कर दिया। सघन तिमिर में होती बरसात ने उस भयंकर निशा का स्मरण करा दिया जब हैं को हाथ नहीं सूझता था। कालिंदी का शांत प्रवाह, उफ़न उफनकर जग को भयभीत कर रहा था। क्रुद्ध नागिन की तरह दौड़ती-फुँफकारती लहरें दिल दहला रही थीं। तब तो द्वापर में नराधम कंस के अनाचारों का अंत करने के लिए घनश्याम की छत्रछाया में स्वयं घनश्याम अवतरित हुए थे किन्तु अब इस कलिकाल में अमला-धवला बालुकावाहिनी को अपनी रक्षा आप ही करनी थी। मदांध और लोलुप नराधमों को काल के गाल में धकेलते हुए स्रोतस्विनी ने महाकाली का रूप धारण किया और सब कुछ मिटाना आरंभ कर दिया, जो भी सामने आया, वही नष्ट होता गया। 

                            इतिहास स्वयं को दुहराता है (हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ), किसी कल्प में जगजननी गौरी द्वारा महाकाली रूप धारण करने पर सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए स्वयं महाकाल शिव को उनके पथ में लेट जाना पड़ा था और अपने स्वामी शिव के वक्ष पर चरण स्पर्श होते ही शिवा का आक्रोश, पल भर में शांत हो गया था। जो नहीं करना था, वही कर दिया। मेरे स्वामी मेरे ही पगतल में? यह सोचते ही काली का गौरी भाव जाग्रुत हुई और इनकी जिह्वा बाहर निकल आई। यह मूढ़ मनुष्य उनकी पार्थिव पूजा तो करता है किंतु यह भूल जाता है कि पार्वती और शिखरिणी दोनों ही पर्वत सुता हैं। दोनों  शिवप्रिया है, एक शिव के हृदयासीन होकर जगतोद्धार करती है तो दूसरी शिव के मस्तक से प्रवहकर जगपालन करती है। तब भी मेघ गरजे थे, तब भी बिजलियाँ गिरी थीं, तब भी पवन प्रवाह मर्यादा तोड़कर बहा था, अब भी यही सब कुछ हुआ। तब भी क्रुद्ध शिवप्रिया सृष्टि नाश को तत्पर थीं, अब भी शिवप्रिया सृष्टिनाश को उद्यत हो गयी थीं। शैलजा के अदम्य प्रवाह के समक्ष पेड़-पौधों की क्या बिसात?, विशाल गिरि शिखर और भीमकाय गगनचुंबी अट्टालिकाएँ भी तृण की तरह निर्मूल हुए जा रहे थे। तब भी भोले भंडारी को राह में आना पड़ा था, अब भी दयानिधान भोले भंडारी राह में आ गए कि सर्वस्व नाश न हो जाए। पावस और तटिनी दोनों शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो शांत हो गए।        
    
                            कभी वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हुआ था-"फिर पछताएगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!'' सलिल-प्रवाह शांत हुआ तो सलिला फिर पावस को साथ लेकर चल पड़ी सासरे की ओर। उसे शांत रखने के लिए सदाशिव घाट-घाट पर आ विराजे और सुशीला शिवात्मजा अपने तटों पर तीर्थ बसाते हुए पहुँच गई अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर। उसे फिर याद आ गए तुलसी जिन्होंने सरितनाथ की महिमा में त्रिलोकिजयी लंकाधिपति शिवभक्त दशानन से कहलवाया था था- 
बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु वारीश। 
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश।।  

                            अपलक राह निहारते सागर ने असंख्य मणि-मुक्ता समर्पित कर प्राणप्रिया की अगवानी की। प्रतीक्षा के पल पूर्ण हुए, चिर मिलन की बेला आरंभ हुई। पितृव्य गगन और भ्रातव्य मेघ हर बरस सावन पर जलराशि का उपहार सलिला को देते रहे हैं, देते रहेंगे। हम संकुचित स्वार्थी मनुष्य अम्ल-विमल सलिल प्रवाह में पंक घोलते रहेंगे और पुण्य सलिला पंकजा, लक्ष्मी निवास बनकर सकल सृष्टि के चर-अचर जीवों की पिपासा शांत करती रहेगी। हमने अपने कुशल-क्षेम की चिंता है तो हम पावस, पानी और पयस्विनी के पुण्य-प्रताप को प्रणाम करें। रहीम तो कह ही गये हैं -  
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।। 
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संपर्क : ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ 

  


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