नवगीत:
संजीव 
*
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर 
. 
दाँत दूध के टूट न पाये 
पर वयस्क हैं. 
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए 
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन 
आँख मारते 
बाल भारती पढ़ न सके 
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान 
काम-क्रीड़ा हित 
इनको बाखर
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर 
. 
मकरध्वज घुट्टी में शायद 
गयी पिलायी 
वात्स्यायन की खोज 
गर्भ में गयी सुनायी 
मान देह को माटी माटी से 
मिलते हैं 
कीचड किया, न शतदल कलिका 
गयी खिलायी 
मन अनजाना 
तन इनको केवल 
जलसाघर 
जिन्स बना 
बिक रहा आजकल 
ढाई आखर 
.
४.५.२०१५ 
 
 
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