मुक्तक सलिला:
दिल ही दिल
संजीव
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
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न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुला रखना, न कोई दे सके धऱना
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न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४
***
रही दिल की हमेशा दिल में, दिल सुनकर नहीं सुनता
नहीं दिल तोड़ता सपने अगरचे दिल नहीं बुनता
दिलों ने दिल ही तोड़े हैं न फेविकोल से जोड़े-
सुखाता दिल न दलहन सा, न दिल गम से अगर घुनता
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न ए वी एम में है दिल, गनीमत आप यह मानें
जो होता फेल हो जाता, फजीहत आप हाथ ठानें
न बाई पास हो पाता, न बदला वाल्व ही जाता
मुसीबत दिल की दिल करता, केजरी-कपिल हो जाता
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१३-५-२०१७
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