बाल कविता :
भय को जीतो
संजीव
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक।
सुबह देर से उठना
मन को भाता था।
ग्वाला लाया दूध
मिला पानी तो
माँ ने बंद कर दिया
लेना उससे।
निकट खुली थी डेरी
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे
निकला घर से
डेरी को मैं
लेकर आया दूध
मिली माँ से शाबाशी।
कुछ दिन बाद
अचानक
काला कुत्ता आया
मुझे देख भौंका
डर कर
मैं पीछे भागा।
सज्जन एक दिखे तो
उनके पीछे-पीछे गया,
देखता रहा
न कुत्ता तब गुर्राया।
घर आ माँ को
देरी का कारण बतलाया
माँ बोली:
'जो डरता है
उसे डराती सारी दुनिया।
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर
मारो एक पत्थर।
तब न करेगा
कुत्ता पीछा।
अगले दिन
हिम्मत कर मैंने
एक छड़ी ली और
जेब में पत्थर भी कुछ।
ज्यों ही कुत्ता दिखा
तुरत मारे दो पत्थर।
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर।
घर आ माँ को
हाल बताया
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
***
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