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गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

पुरुष विमर्श

 पुरुष विमर्श 

ट्रेन में समय गुजारने के लिए बगल में बैठे बुजुर्ग से बात करना शुरु किया मेरी पत्नी नीति नें " आप कहाँ तक जाएंगे दादा जी "

" इलाहाबाद तक । " बुजुर्ग ने जवाब दिया.

उसने (पत्नी) ने मजाक में कहा " कुंभ लगने में तो अभी बहुत टाइम है बाबा। "

" वहीं तट पर बेठकर इंतजार करेंगे कुंभ का ,बेटी ब्याह लिए हैं , अब तो जीवन में कुंभ नहाना ही रह गया है । "

" अच्छा बाबा परिवार में कौन कौन है । "

" कोई नहीं बस एक बेटी थी पिछले हफ्ते उसका भी ब्याह कर दिया । "

" अच्छा ! आपका दामाद क्या करता है । "

" उ हमरी बेटी से पियार करता है । " कहते हुए उन्होंने नम आंखें पंखे पर टिका दी ।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जब पत्नी नीति ने उनके कंधे पर हाथ रखकर धीरे से कहा " दुख बांटने से कम होता है बाबा" तो आंखों से आँसुओ का सैलाब उमड़ पड़ा उनकी । थोडा शांत होने के बाद उन्होंने बताया " बेटी ने कहा अगर उससे शादी नहीं हुई तो जहर खा लेगी । बिन मां की बच्ची थी उसकी खुशी के लिए सबकुछ जानते हुए भी मैंने हां कह दी, और पूरे धूमधाम से शादी की व्यवस्था में जुट गया जो कुछ मेरे पास था सब गहने जेवर आवभगत की तैयारियों में लगा दिया ।

तभी ऐन शादी के एक दिन पहले समधी पधारे ,और दहेज की मांग रख दी । जब मैंने मना किया तो बेटी ने कहा, आपके बाद तो सब मेरा ही है तो क्यों नहीं अभी दे देते । तो हमने घर और जमीन बेचकर नगद की व्यवस्था कर दी । "

" सबकुछ तो उसका ही था बेबकूफ लडकी, आपको मना करना चाहिए था, कह देते आपके मरने के बाद सब बेचकर ले जाए " नीति ने कसमसाते हुए कहा

बुजुर्ग मुस्कुरा उठे नीति के इस तर्क पर " कोई बाप अपने सुख के लिए बेटी के गृहस्थी में क्लेश नहीं चाहता बेटा । "

" हद है मतलब की, उस लडकी के दिल में आपके लिए जरा भी प्यार नहीं था । "

" नहीं ऐसा नहीं है विदाई के वक्त बहुत रोई थी । "

"और आप "

उन बुजुर्ग ने एक फीकी मुस्कान बिखेरी और बोले" हम तो निष्ठुर आदमी है हमारी पत्नी सुधा जब उसको हमरी गोद में छोडकर अर्थी पर लेटी थी,उसकी लाश सामने रखी थी और तब भी हम रोने के बदले चुल्हे के पास बैठकर बेटी के लिए दूध गरम कर रहे थे । " यह कहकर बुजुर्ग सुनी आंखों से शून्य में देखने लगे.

साभार कोरा 

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साहित्य संस्कार के पुरुष विमर्श विशेषांक हेतु निम्न लघुकथा प्रकाशन हेतु सादर प्रेषित है| घोषणा करता हूँ ये नितान्त मौलिक व अब तक अप्रकाशित हैं, उम्मीद है आपको पसंद आएंगी:

थोड़ी कैकयी – थोड़ा राम

"सुनो, ये भाईसाहब कह रहे हैं कि माँ नहीं रही।" उसने अपनी पत्नी से कहा।
पत्नी के चेहरे पर चौंकने के भाव आए लेकिन दो सेकण्ड में ही वह संभल कर  बोली,
"तो! जब तुम्हारी माताजी ने दूसरे दोनों बेटों को उनकी सारी प्रोपर्टी दे दी, तो वे ही करेंगे जो करना है। हम सब को तो तो निकाल दिया था न। कितना भटके हम बेघर... आज इतने सालों से मुश्किल से रुपये जोड़कर हम बेटी की शादी करवा पा रहे हैं। इसमें मुझे कोई मनहूसियत नहीं चाहिए।"
"हाँ... वो तो है, लेकिन मैं बड़ा हूँ और आखिरी वक़्त में मुझे बहुत याद कर रही थी, ये बता रहे हैं।" पति ने बाहर से आए व्यक्ति की तरफ इशारा कर कहा।
"अच्छा!! कैकयी का कलयुगी रूप थी तुम्हारी माँ। पहले तो बेकसूर बेटे के परिवार को घर से ही निकाल दो, और फिर जब अंतिम संस्कार हो तो...हुंह।" पत्नी ने अपने माथे पर टीका पहनते हुए आगे कहा कि,"तुम अपनी बेटी की शादी में आओगे कि नहीं।"
"कन्यादान तो करूंगा ही। लेकिन..."
"लेकिन? मैं वहाँ नहीं जाने दूंगी।" पत्नी ने दरवाज़े की तरफ इशारा करते हुए कहा।
"नहीं मैं जाऊंगा भी नहीं। माँ की परिणति शायद यही है।"
पति ने थूक निगलते हुए आगे कहा कि, "लेकिन मैं यहाँ भी पार्टी वगैरह में शरीक नहीं हो पाऊंगा।"
"क्यों?" पत्नी ने तेज़ आवाज़ में पूछा।
पति ने भारी आवाज़ में उत्तर दिया,
"जब कैकयी किसी न किसी रूप में आ रही है तो राम भी तो थोड़ा-बहुत..."
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मेरा संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:
नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
शिक्षा: विद्या वाचस्पति (Ph.D.)
सम्प्रति: सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)
साहित्यिक लेखन विधा: कविता, लघुकथा, बाल कथा, कहानी
12 पुस्तकें प्रकाशित, 8 संपादित पुस्तकें
32 शोध पत्र प्रकाशित
21 राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त
फ़ोन: 9928544749
ईमेल:  chandresh.chhatlani@gmail.com
डाक का पता: 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002
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