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मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

नारी

नारी से पीड़ित है नारी 
स्मिता बाजपेयी 
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आजादी के बहुत बहुत पहले गुलाम भारत के गुलामी के दिनों की यह कहानी है। सत्य घटना है! कल्पना का घालमेल लेशमात्र भी नहीं ।
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तो जिन दिनों अधन्नी में झोला भर सामान आ जाता था, जिन दिनों किसी पुरुष के देह पर नीचे धोती ऊपर मिर्जई (कुर्ता )भले ही चीकट ही हो। उसके होने मात्र से उसे चंपारण में बड़े आदमी का दर्जा प्राप्त हो जाता था। जिन दिनों ज्यादातर पुरुषों -महिलाओं के पैरों में जूते- चप्पल, खड़ाउंँ नहीं होते थे, जिन दिनों स्त्रियों पुरुषों के वस्त्रों का रंग ज्यादातर एक ही होता था -मटमैला धूसर ! जिन दिनों दूसरे वर्ग विशेष के लोगों में साफ - सफाई के लिए साबुन- सर्फ जैसी चीजें अय्याशी मानी जाती थीं।

जाड़े में लगातार महीनों नहीं नहाने और एक ही कपड़ा पहने रहने से मिर्जई, भगई (अधोवस्त्र -धोती, लंगोट जैसा कुछ भी ) में चीलर पड़ जाया करते थे। (चीलर -कपड़े का जूँ जैसा कीड़ा) उन चिलरों को सम भाव से अपना खून पिलाकर यह महान आत्माएं धूप में मिर्जई को उल्टा कर, सुखाकर उसे बैक्टीरिया रहित मानते हुए, मस्त होकर बच्चों से गीत सुनते थे...मुस्काते हुए-

छनन मनन पुआ पाकेला
चिल्लर खोईंचा नाचेला
चिलरा गयिल खेत खरिहान
ले आईल बसमतिया धान

और जिन दिनों समाज के तीन वर्गों में उच्च वर्ग को छोड़कर मध्यम और श्रमिक वर्ग में देखने से कोई खास अंतर नहीं दिखता था। यह वर्ग वैषम्य 'मानने' भर से होता था बस!

यह उन्हीं दिनों की बात है ..

जब ब्राह्मणों में शादियांँ सिर्फ और सिर्फ उच्च गोत्र देखकर हुआ करती थीं। ज्यादातर उच्च गोत्री कुलीन ब्राह्मण कर्मकांडी, वेद पाठी कहलाते थे। वैसा ही कुछ करते थे। कथा पूजा से जो मिल जाता था उसी में संतोख (संतोष) से रहते थे। खेती या कहीं और कोई पुरुषार्थ करना उनके लिए हेय था। जन्मना ब्राम्हण, उच्च गोत्री ब्राह्मण पुत्र आराम से कोई अमल (व्यसन- खैनी, सुर्ती )करते हुए किसी पेड़ की छांँव में पैरों की कैंची बनाए, पेड़ से टिक कर बेमौसम मल्हार गाते हुए दान की बछिया चराते हुए विवाह योग्य हो जाया करते थे।

ऐसे ही एक उच्च गोत्री पंडित जी के द्वितीय पुत्र का विवाह पास के तीन गांँव बाद वाले गांँव की कन्या से हुआ। धूमधाम क्या होनी थी। गाजा बाजा तो वैसे भी खर्चीलाा मामला था। साहिब लोग साजते थे बरियात। तो यहां से दस, बारह आदमी धोया - फींचा धोती मिर्जई पर गमछा डाले बर(वर) बाबू के साथ गए और वह ओहर से पीयरी पहने, चिउरा कसार के दउरा के साथ कनीया ( कन्या) को गौना कराके ले आए।

घर में सास- ससुर, जेठ- जेठानी थे। सास किसी नामी जिमेदार(जमींदार) की बेटी थीं- बहुत अनुशासित!

जेठानी ने कोहबर में ही हाथबोरउआ (एक रस्म ) का रसियाव (गुड़ की खीर) रोटी खिलाते हुये नवकी दुलहिन को अपनी हथेली का काला दाग दिखाते हुए सास का अनुशासन बता दिया था कि कैसे सात बरस की छोटकी ननद से अपने साथ आए मिठाई में से मांग लिया था। उसकी बारह बरस की जेठानी का इस तरह हाथ पसारना कितना बुरा लगा था कि सास ने उससे पूछ लिया था-

-"मिठाई मंगले ह ? (मिठाई माँगा है?)

- " जी"

- "गोदउरी पसार के ? ( हथेली पसार के)

- " जी"

वह तुरंत मुड़ी और वापस आईं चौका में से जलता अंगार लिए चिमटा में और कहा

" पसार त गदूरी" और उसके बाद ..

"कनिया, हमरा अन्हार हो गयील ..जोन्ही फुला गयील रहे आँख में "

जेठ की उस तपती दुपहरी में, उस फूस भीत के, माटी की डेहरी वाली कोठरी में जेठानी की यह बात सुनकर, हथेली देखकर नवकी दुलहिन की पियरी भींज गई लोर आ पसीना से। तब नवकी कनिया (बहू) तेरह बरस की थी..

सावन में बिना माई- बाप वाली नवकी दुलहिन के एक अकेले भाई सावनी लेकर आये। उनका गोड़ ध के रोने लगी कनिया। भीतर से आवाज सुनकर माई जी आईं, पूछा रोने का कारण। भाई ने कहा विदा कर दीजिए अगले आषाढ़ से पहले फिर पहुंँचा देंगे बहीन को ।

कनिया को भीतर भेजकर माई जी ने अपनी वाणी से भाई की आरती उतारी और बिना पानी पत्तर के वापस भेज दिया। भीतर आकर नवकी कनिया को कोला की तरफ यानी पिछवाड़े की तरफ खुलने वाले ओसारा में उसके पैरों में बेड़ी ठोक दी-" नईहर जईबू ?"

पंडित जी कोई विरोध नहीं कर सके। यद्यपि पुरुष प्रधान समाज तब भी था पर घर का भोजन बस्तर पंडित जी के जजमनका से पूरा नहीं हो पाता था। उनकी ससुराल से आती थी मदद सो सत्ता जमींदार के बेटी के हाथ में थी।

बेड़ी में ठोकी नवकी दुलहिन से कोई बोल बतिया नहीं सकता था। उन्हें एक मिट्टी की परई दी गई थी। (परई- थाली नुमा चौड़ा मिट्टी का बर्तन) उन्हें उसी में एक समय बचा हुआ दाल- भात , माड़ - भात ,नून- भात डाल जाती थी कलौतिया की माई। खा लेने पर उसी में लोटे से पानी गिरा देती थी जो कनिया पी लेती थी। दिशा जंगल के लिए भी कलौतिया की माई ही आती थी माटी का पतुकी लिए। उन्हें उसके लिए भी नहीं खोला जाता था। बेड़ी का सिक्कड़ (लोहे की जंजीर) वहीं पास के ढेंकी के खूंटे से बांधा गया था।

बरखा बुन्नी का दिन था। ओसारे के ऊपर का फूस भी फरकोर (अलग-अलग) था। एक समय भोजन, एक ही जगह बंधी बेड़ी में और ऊपर से बारिश का पानी-बौछार कनिया बेराम यानी बीमार हो गयी।

कुछ दिनों बाद ये बात भाई को बता दी किसी गोतिया दयाद (खानदान )वाले ने। भाई आया ।गांँव के सीवान (सीमा )के बहुत दूर ही अपना घोड़ा बांध आया किसी के घर में छुपा के। इस गांव आया और छुप के रहा इन्हीं गोतिया दयाद के यहां चार दिन। कलौतिया की माई से सौदा किया पाँच रुपये में । पाँच रुपया !!

तब, जब अधन्नी में झोला भर सामान छहक( ओवरफ्लो ) जाता था।

एक पहर रात बीते दबे पांँव भाई आया। कलौतिया की माई के साथ। उसने ओसारा के बाहर वाली जीर्ण- शीर्ण टाटी ( छप्पर की दीवाल) को बीचो-बीच फाड़ दिया। बेड़ी खोल दी ।"भागीं बहुरिया!" (भागो बहू )

मगर महीनों से भूखी, बुखार में तपी देह हिली भी नहीं। भीतर कुछ आवाज आई तो कलौतिया की माई ने नवकी दुलहिन को पैरों से घसीटते हुए टाटी के बाहर कर दिया।

भाई ने तारों की रोशनी में बहन को देखा। पहचान नहीं पाया।

" भाग बबी ,हम तोर भईया!" (भाग गुड़िया, बहन मैं तुम्हारा भाई)

बहन ने रिरियाती आवाज में कहा- परनाम!

कोशिश की, पर खड़ी नहीं हो पा रही थी। भाई ने सहारे से खड़ा किया मगर वह धप्प से वहीं गिर गयी। समय कम था। कलौतिया की माई की सहायता से भाई ने बहन को गमछी से बाँध लिया और उस अँधेरी बरसाती रात में लगभग दौड़ते हुए गांव से दो कोस आगे तक भागता रहा..
घोड़ा जहांँ  बँधा था वह गांँव नदी के पार था और नदी की धार अपने दोनों पाटो पर ( किनारों पर) बराबर चल रही थी।

बहन को लिए-लिए ही भाई ने नदी पार किया तैरते हुये। घोड़े के पास पहुंचने तक दो पहर रात हो गई थी। बारिश अलग हो रही थी झमाझम। पर अब अपना गाँव नजदीक है, कहते हुए जब उसने बहन को उतारा पीठ से तो जैसे बिजली चमक के उसी पर गिरी। यह क्या! भाई ने बिजली के अंजोर में (उजाले में) देखा- बहन के सारे बाल खोप्पा सहित ही सिर से उतर गए हैं। मगर यह रोने का समय नहीं था ..

घोड़े पर बहन को लिए दिए भाई आखिर रात के तीसरे पहर अपने घर के पिछवाड़े पहुंच गया। उस खपरैल के पीछे का कोला बारी की ओर से बहन को भीतर किया। भऊजी ने ननद को ढिबरी के लौ में देख जैसे ही मुँह खोला कि भाई ने बढ़ के मुँह दबा दिया पत्नी का "अब्बे ना, दम धरा !"

फिर त्वरित गति से भौजाई ने अपनी इस रोगिणी, दुखियारी ननद को नहलाया। नई साड़ी पहनाई, नई चूड़ियाँ  पहनाईं, पैर में अपनी पाजेब पहना दिया अलता लगाया। उस गंजे सिर में पीला सिंदूर किया। माथे पर लाल टिकुली साट के ऊपर से पीला सिंदूर का बुन्ना (बिंदी) किया। साड़ी के अँचरा में खोईंचा भर के बांँध दिया। भाई ने तब तक दउरा में चिउरा और नदिया (मिट्टी का दही जमाने वाला बर्तन) का दही रखकर उसे कपड़े से बाँधकर बाहर के ओसारे में रख दिया।

भाई भोज-भौजाई दोनों ने मिलकर फिर बहन को सहारा दे कर घर के भीतर मोढ़ा पर बिठाया और तब भउजी ने ननद को भेंट कर रोना शुरू किया। ननद रिरियाती आवाज में और भउजी तेज आवाज में। एक दूसरे को अंँकवार भर के गर भेंटती रहीं। रोती रहीं ननद भउजाई ..
भाई ने भोर में उठने वाले गांँव वालों को बताया कि -"बहिन के बिदा करा ले अईनी हँ, बेराम रहे। एहीजा भउजी ओकरा के देख भाल क लीहें" (बहन को विदा करा लाया हूँ । बीमार थी। यहांयहाँ उसकी भाभी उसकी देखभाल कर लेगी।)

दहला देने वाले ऐसे न जाने‌ कितने ही जीवन प्रसंग बचपन से सुनती आ रही हूँ। ये तथाकथित सम्मानजनक घरानों के सच्चे किस्से हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में स्त्रियों के घुट कर खत्म हो गये जीवन की लंबी और त्रासद दास्तान दर्ज है।
आभार - कोरा 

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