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सोमवार, 24 अप्रैल 2023

सोनेट, दोहा, षटपदी, मंजुतिलका छंद, नवगीत, हरिगीतिका, मुक्तिका, बांस, हलाला, लघुकथा

सोनेट 
प्रीत
प्रीत करे राधा मनचाही। 
'प्रीत न करिए' मीरा कहती।
प्रीत न जाने ऊधो ज्ञानी।।  
प्रीत द्रौपदी मन में बहती।। 

अविनाशी है रीत प्रीत की। 
पूछो तप-रत पार्वती से। 
कूद यज्ञ-ज्वाला में झुलसे। 
नृत्य कराए बैरागी से।। 

बहुआयामी प्रीत गीत बन।
फाग-रास हो विपिन विराजे। 
प्रीत-अमृत पी सजनी साजन।। 
नयन मिलाएँ बाजे बाजे।। 

प्रीत मर रही है 'लिव इन' बन। 
प्रीत जिए बन फागुन-सावन।। 
२७-४-२०२३
•••
सॉनेट
तपन
अनगिन रंग तपन के देखे।
कभी हँसाए, कभी रुलाए।
कितने तन ने, मन ने लेखे।।
किसे तहाए, किसे भुलाए।।

श्वास सुनीता, आस पुनीता।
लक्ष्य टेरता कदम बढ़ाओ।
पढ़ ले गीता बुद्धि विनीता।।
काम करो निष्काम न जाओ।।

जपो-तपो मत भीत कँपो रे!
जो बोया सो काटो हँसकर।
जीवन की है रीत डटो रे!
कमल बनो कीचड़ में धँसकर।।

तप की तपिश नहीं बेमानी।
यह दुनिया है आनी-जानी।।
२७-४-२०२३
•••
सॉनेट
सावित्री
सकल सृष्टि सर्जक सावित्री।
शक्तिवान तनया अवतारी।
संजीवित शाश्वत सावित्री।।
परम चेतना नित अविकारी।
सत्यवान रक्षक सावित्री।
असत कालिमा यम-भयहारी।
मुक्त मुक्ति से हो सावित्री।।
लौटे भू पर हो साकारी।।
सत्य राज्य लाती सावित्री।
दैवी ज्योति उजासविहारी।।
समय सनातन सत् सावित्री।
आप निहारक; आप निहारी।।
भोग-भोक्ता शिव सावित्री।
योग-योक्ता चित सावित्री।।
२४-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला ५
कहाँ?
कहाँ?
'कहाँ' का ज्ञान न हो तो 'कहीं भी, कुछ भी' करते रहकर कुछ हासिल नहीं होता और तब करनेवाला शिकायत पुस्तक (कंप्लेंट बुक) बनकर अपने अलावा सब को दोषी मान लेता है।
कहाँ का भान और मान तो उस कबीर को भी था जो कहता था 'जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ'। घर फूँकने के पहले 'कहाँ' जाना है, यह जान लेना जरूरी है।
'कहाँ' जाने बिना घर फूँकने पर 'घर का न घाट का' की हालत और 'माया मिली न राम' का परिणाम ही हाथ लगेगा।
'कहाँ' का ज्ञान लिया भी जा सकता है, किया भी जा सकता है।
'कहाँ' का ज्ञान किसी दूकान, किसी बाजार में नहीं मिलता। गुरु और जीवनानुभव ही 'कहाँ' का उत्तर दे सकते हैं।
'कहाँ' से आए, कहाँ हैं और कहाँ जाना है? यह जाने बिना 'पग की किस्मत सिर्फ भटकना' ही हो सकती है।
'कहाँ तय होने पर ही सामान बाँधकर यात्रा के लिए संसाधन जुटाए और पैर बढ़ाए जाते हैं।
'कहाँ' का ज्ञान कुदरतन (अपने आप) हर पक्षी को हो जाता है, तभी वह बिना पूछे-बताए सुबह-शाम दो विपरीत दिशाओं में उड़ान भरता है।
'कहाँ' का ज्ञान मनुष्य को कुदरतन नहीं होता क्योंकि वह कुदरत से दूर हो चुका है, स्वार्थ में फँसकर सर्वार्थ और परमार्थ की रह पर चलना छोड़ चुका है।
'कहाँ' पाना है?, कहाँ देना है?, कहाँ मिलना है?, कहाँ बिछुड़ना है?, कहाँ बोना है?, कहाँ काटना है? कहाँ पीठ ठोंकना है?, कहाँ डाँटना है? यह तय करते समय याद रखें-
'आदमी मुसाफ़िर है आता है जाता है।
आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है'
'कहाँ-कैसी' यादें छोड़ रहे हैं हम?
'कहाँ' की चूक संस्थाओं, कार्यक्रमों और व्यक्तियों की राह में बाधक है, सफल साधक बनने के लिए 'कहाँ' की समझ विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।
२४-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४
•••
मुक्तिका
*
हम नहिं गुरु, ना पाले चेले।
गुपचुप बैठे देख झमेले।।
*
चेले गुरु के गुरु बन जाते।
छिलके दे, खुद खाते केले।।
*
यह दुनिया है आनी-जानी।
माया-तृष्णा-मोह झमेले।।
*
काया-माया की क्यों चिंता?
जिसकी है जब चाहे ले ले।।
*
नारायण की छाया में रह
हो संजीव जीव हँस खेले।।


२४-४-२०२१
***
मुक्तक
हम जाएँगे, फिर आएँगे, वसुधा को रहना होगा
गगन पवन से, अगन सलिल से, सब सुख-दुःख कहना होगा
ॐ प्रकाश सनातन, राहें बना-दिखाता सदा-सदा
काहे को रोना कोरोना-दर्द विहँस सहना होगा
२४-४-२०२१
***
लघु कथा:
मैया
*
प्रसाद वितरण कर पुजारी ने थाली रखी ही थी कि उसने लाड़ से कहा: 'काए? हमाये पैले आरती कर लई? मैया तनकऊ खुस न हुईहैं। हमाये हींसा का परसाद किते गओ?'
'हओ मैया! पधारो, कउनौ की सामत आई है जो तुमाए परसाद खों हात लगाए? बिराजो और भोग लगाओ। हम अब्बइ आउत हैं, तब लौं देखत रहियो परसाद की थाली; कूकुर न जुठार दे.'
'अइसे कइसे जुठार दैहे? हम बाको मूँड न फोर देबी, जा तो धरो है लट्ठ।' कोने में रखी डंडी को इंगित करते हुए बालिका बोली।
पुजारी गया तो बालिका मुस्तैद हो गयी. कुछ देर बाद भिखारियों का झुण्ड निकला।'काए? दरसन नई किए? चलो, इतै आओ.… परसाद छोड़ खें कहूँ गए तो लापता हो जैहो जैसे लीलावती-कलावती के घरवारे हो गए हते. पंडत जी सें कथा नई सुनी का?'
भिखारियों को दरवाजे पर ठिठकता देख उसने फिर पुकार लगाई: 'दरवज्जे पे काए ठांड़े हो? इते लौ आउत मां गोड़ पिरात हैं का?' जा गरू थाल हमसें नई उठात बनें। लेओ' कहते हुए प्रसाद की पुड़िया उठाकर उसने हाथ बढ़ा दिया तो भिखारी ने हिम्मतकर पुड़िया ली और पुजारी को आते देख दहशत में जाने को उद्यत हुए तो बालिका फिर बोल पड़ी: 'इनखें सींग उगे हैं का जो बाग़ रए हो? परसाद लए बिना कउनौ नें जाए. ठीक है ना पंडज्जी?'
'हओ मैया!' अनदेखी करते हुए पुजारी ने कहा।
***
मुक्तक
जो मुश्किलों में हँसी-खुशी गीत गाते हैं
वो हारते नहीं; हमेशा जीत जाते हैं
मैं 'सलिल' हूँ; ठहरा नहीं बहता रहा सदा
जो अंजुरी में रहे, लोग रीत जाते हैं.
२४-४-२०२०
***
लघुकथा
बर्दाश्तगी
*
एक शायर मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके द्वारा संपादित किये जा रहे हम्द (उर्दू काव्य-विधा जिसमें परमेश्वर की प्रशंसा में की गयी कवितायेँ) संकलन के लिये कुछ रचनाएँ लिख दूँ, साथ ही जिज्ञासा भी की कि इसमें मुझे, मेरे धर्म या मेरे धर्मगुरु को आपत्ति तो न होगी? मैंने तत्काल सहमति देते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए ख़ुशी का वायस (कारण) है।
कुछ दिन बाद मित्र आये तो मैंने लिखे हुए हम्द सुनाये, उन्होंने प्रशंसा की और ले गये।
कई दिन यूँ ही बीत गये, कोई सूचना न मिली तो मैंने समाचार पूछा, उत्तर मिला वे सकुशल हैं पर किताब के बारे में मिलने पर बताएँगे। एक दिन वे आये कुछ सँकुचाते हुए। मैंने कारण पूछा तो बताया कि उन्हें मना कर दिया गया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ में हम्द नहीं कहा जा सकता जबकि मैंने अल्लाह के साथ- साथ चित्रगुप्त जी, शिव जी, विष्णु जी, ईसा मसीह, गुरु नानक, दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गणेश जी व भारत माता पर भी हम्द लिख दिये थे। कोई बात नहीं, आप केवल अल्लाह पर लिख हम्द ले लें। उन्होंने बताया कि किसी गैरमुस्लिम द्वारा अल्लाह पर लिख गया हम्द भी क़ुबूल नहीं किया गया।
किताब तो आप अपने पैसों से छपा रहे हैं फिर औरों का मश्वरा मानें या न मानें यह तो आपके इख़्तियार में है -मैंने पूछा।
नहीं, अगर उनकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे खिलाफ फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद दिया जाएगा। कोई मेरे बच्चों से शादी नहीं करेगा -वे चिंताग्रस्त थे।
अरे भाई! फ़िक्र मत करें, मेरे लिखे हुए हम्द लौटा दें, मैं कहीं और उपयोग कर लूँगा। मैंने उन्हें राहत देने के लिए कहा।
उन्हें तो कुफ्र कहते हुए ज़ब्त कर लिया गया। आपकी वज़ह से मैं भी मुश्किल में पड़ गया -वे बोले।
कैसी बात करते हैं? मैं आप के घर तो गया नहीं था, आपकी गुजारिश पर ही मैंने लिखे, आपको ठीक न लगते तो तुरंत वापिस कर देते। आपके यहां के अंदरूनी हालात से मुझे क्या लेना-देना? मुझे थोड़ा गरम होते देख वे जाते-जाते फिकरा कस गये 'आप लोगों के साथ यही मुश्किल है, बर्दाश्तगी का माद्दा ही नहीं है।'
***
नवगीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
***
नवगीत
*
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
जीवन-पथ में
मिले चले संग
हुआ रंग में भंग.
मन-मुटाव या
गलत फहमियों
ने, कर डाला तंग.
लहर-लहर के बीच
आ गयी शिला.
लहर बढ़ आगे,
एक साथ फिर
बहना चाहें
बोल न इन्हें अभागे.
भंग हुआ तो
कहो न क्यों फिर
हो अभंग हर छंद?
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
रोक-टोंक क्यों?
कहो तीसरा
अड़ा रहा क्यों टाँग?
कहे 'हलाला'
बहुत जरूरी
पिए मजहबी भाँग.
अनचाहा सम्बन्ध
सहे क्यों?
कोई यह बतलाओ.
सेज गैर की सजा
अलग हो, तब
निज साजन पाओ.
बैठे खोल
'हलाला सेंटर'
करे मौज-आनंद
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
हलाला- एक रस्म जिसके अनुसार तलाक पा चुकी स्त्री अपने पति से पुनर्विवाह करना चाहे तो उसे किसी अन्य से विवाह कर दुबारा तलाक लेना अनिवार्य है.
२४-४-२०१७
***
मुक्तिका

हँस इबादत करो .
मत अदावत करो
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
सो लिये हो बहुत
जग बगावत करो
अब न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे सुनो
कल शिकायत करो
छोड चलभाष दो
खत किताबत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२४-४-२०१६
***
नवगीत:
.
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
सबके अपने-अपने कारण
कोई करता नहीं निवारण
चोर-चोर मौसेरे भाई
राजा आप आप ही चारण
सचमुच अच्छे दिन आये हैं
पहले पल में तोला
दूजे पल में माशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
करो भरोसा तनिक न इस पर
इन्हें लोक से प्यारे अफसर
धनपतियों के हित प्यारे हैं
पद-मद बोल रहा इनके सर
धृतराष्ट्री दरबार न रखना
तनिक न्याय की आशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
चौपड़ इनकी पाँसे इनके
छल-फरेबमय झाँसे इनके
जनास्था की की नीलामी
लोक-कंठ में फाँसे इनके
सत्य-धर्म जो स्वारथ साधे
यह इनकी परिभाषा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
***
कविता:
अपनी बात:
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
मुक्तक:
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
मुक्तिका:
.
चल रहे पर अचल हम हैं
गीत भी हैं, गजल हम है
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हम हैं.
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हम हैं
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हम हैं
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हम हैं
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हम हैं
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हम हैं
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हम हैं
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हम हैं.
२४-४-२०१५
***
नवगीत
.
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
२३-४-२०१५
***
नवगीत:
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
मुक्तक:
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
२२-४-२०१५
***
नवगीत:
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
नवगीत:
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
२१.४.२०१५
***
छंद सलिला:
मंजुतिलका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण)।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. कण-कण से विराट बनी है यह सृष्टि
हरि की हर एक के प्रति है सम दृष्टि
जो बोया सो काटो है सत्य धर्म
जो लाए सो ले जाओ समझ मर्म
२. गरल पी है शांत, पार्वती संग कांत
अधर पर मुस्कान, सुनें कलरव गान
शीश सोहे गंग, विनत हुए अनंग
धन्य करें शशीश, विनत हैं जगदीश
आम आये बौर, हुए हर्षित गौर
फले कदली घौर, मिला शुभ को ठौर
अमियधर को चूम, रहा विषधर झूम
नर्मदा तट ठाँव, अमरकंटी छाँव
उमाघाट प्रवास, गुप्त ईश्वर हास
पूर्ण करते आस, न हो मंद प्रयास
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
एक षटपदी :
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..
२४-४-२०११
***
दोहा सलिला
माँ गौ भाषा मातृभू, नियति नटी आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..
*
भूल-मार-तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जीवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..
*
दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..
*
रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..
*
माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
२४-४-२०१०
***

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