लघुकथा
धर्म संकट
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वे महाविद्यालय में प्रवेश कराकर बेटे को अपनी सखी विभागाध्यक्ष से मिलवाने ले गयीं। जब भी सहायता चाहिए हो, निस्संकोच आ जाना सखी ने कहा तो उन्होंने खुद को आश्वस्त पाया।
वह कठिनाई हल करने, पुस्तकालय से अतिरिक्त पुस्तक लेने, परीक्षा के पूर्व महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने विभागाध्यक्ष के पास जाता रहा। पहले तो उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली किन्तु क्रमश:उसकी प्रशंसा करते हुए सहायता करने लगीं। उसे कहा कि महाविद्यालय में 'आंटी' नहीं 'मैडम' कहना उपयुक्त है।
प्रयोगशाला में वे अधिक समय तक रूककर प्रयोग करातीं, अपने शोधपत्रों के साथ उसका नाम जोड़कर छपवाया। वह आभारी होता रहा।
उसे पता ही नहीं चला कब गलियारों में उनके सम्बन्धों को अंतरंग कहती कानाफूसियाँ फ़ैलने लगीं।
एक शाम जब वह प्रयोग कर रहा था, वे आकर हाथ बँटाने लगीं। हाथ स्पर्श होने पर उसने संकोच और भय से खुद में सिमट, खेद व्यक्त किया पर उन्होंने पूर्ववतकार्य जारी रखा मानो कुछ हुआ ही न हो। अचानक वे लड़खड़ाती लगीं तो उसने लपक कर सम्हाला, अपने कंधे पर से उनका सर और उनकी कमर में से अपने हाथ हटाने के पूर्व ही उसकी श्वासों में घुलने लगी परफ्यूम और देह की गंध। पलक झपकते दूरियाँ दूर हो गयीं।
कुछ दिन वे एक दूसरे से बचते रहे किन्तु धीरे-धीरे वातावरण सहज होने लगा। आज कक्षा के सब विद्यार्थी विभागाध्यक्ष को शुभकामनायें देकर चरण-स्पर्श कर रहे हैं। वह क्या करे? धर्मसंकट में पड़ा है चरण छुए तो कैसे?, न छुए तो साथी क्या कहेंगे? यही धर्म संकट उनके मन में भी है। दोनों की आँखें मिलीं, कठिन परिस्थिति से उबार लिया चलभाष ने, 'गुरु जी! प्रणाम। आप कार्यालय में विराजें, मैं तुरंत आती हूँ' कहते हुए, शेष विद्यार्थियों को रोककर वे चल पड़ीं कार्यालय की ओर। इस क्षण तो गुरु ने उबार लिया, टल गया था धर्म संकट।
१९-७-२०१६
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