पुरोवाक :
: छुप गया फिर चाँद में है 'उग गया फिर चाँद' :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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इस नश्वर सृष्टि में कुछ भी सनातन-शाश्वत, अनादि-अनंत, अजर-अमर नहीं है। शंकराचार्य इसे 'माया' कहते हैं तथापि 'माया' का अंश होने के लिए स्वयं 'मायापति' (परमात्मा) काया की रचना कर 'अंश' (आत्मा) रूप में उसमें स्थित होते हैं। काया में धड़कन बनकर वास कर रही 'माया' ही प्रकृति है। 'नाद' और 'ध्वनि' का संगम 'लय' और 'रस' बनकर गीत में गुंजित होता है। सृष्टि में कुछ भी स्थाई नहीं है। हर तत्व चंचल है, गतिमान है। गति में 'लय' है। 'लय' का असंतुलन 'विलय' को 'प्रलय' में बदल देता है। 'लय' को 'मलय' की तरह शब्दों में गुम्फित कर, भाव और अर्थ समाविष्ट कर गीति काव्य की रचना करना सहज नहीं होता। 'अनुभूतियों' की 'अभियक्ति' का सर्वप्रिय माध्यम है 'भाषा'। भाषा बनती है 'शब्दों' से। शब्द-समन्वय की कला जब 'नीति' बनकर सृजन के संग हो तब जन्म लेती है कवयित्री 'सुनीता'। सुनीता वृत्ति सतत परिष्कार की दिशा में गतिशील होकर अपनी जिज्ञासा की पिपासा शांत करने के लिए सलिल को तलाशती है। कहावत है 'बहता पानी निर्मला', सतत गतिशीलता कविता और सरिता दोनों के लिए अनिवार्य है। 'गति' के साथ 'दिशा' का समन्वय न हो तो यात्रा दिशाहीन हो जाती है। सुनीता वृत्ति 'गति' के साथ 'दिशा' में भी परिवर्तन करती हुई कविता, गीत, नवगीत, बाल गीत आदि विविध दिशाओं में गतिशील है यह संतोष का विषय है।
'छुप गया फिर चाँद' महाप्राण निराला जी द्वारा प्रदत्त ''नव गति नव लय ताल छंद नव'' का कालजयी संदेश ग्रहण कर गीत-गुंजन का प्रयास है। इन गीतों की गीतकार सजग नागरिक, प्रबुद्ध विचारक, कुशल गृहणी, प्रवीण अधिकारी और सहृदय मानव है। वह अपनी गीत अंजुरी में मनोरम भाव प्रवणता के साथ सुनियोजित तर्कशीलता का सम्मिश्रण करने में समर्थ है। उसके लिए न तो कथ्य मात्र, न शिल्प मात्र, न भाषा शैली ही सर्वस्व है। उसने इन तीनों का सम्मिश्रण रचना के पाठकों को लक्ष्य कर इस तरह तैयार किया है कि सामान्य पाठक वह अर्थ ग्रहण कर सके जो उस तक पहुँचाना रचनाकार का उद्देश्य है। बाग़ की अधखिली और बहुरंगी कलियों की तरह इन गीत रचनाओं में माटी का सौंधापन, अपरिपक्वता का नयापन, सुवैचारिकता की व्यवस्था और भावप्रवणता का माधुर्य अनुभव किया जा सकता है। कवयत्री का मन 'सच' का अन्वेषण करते हुए 'सुंदर' का रसपान कर 'शिवता' का वरण कर पाता है। गीत रचना अपेक्षाकृत एक नयी कलम के लिए चेतना, जाग्रति और कल्पना की भँवरों के बीच विचार नौका को खेते हुए समन्वय साध पाना सराहनीय उपलब्धि है।
इन गीतों में राष्ट्रीय भावधारा गीत, आह्वान गीत, प्रेरणा गीत, जनगीत, श्रृंगार (मिलन-विरह) गीत, दोहा गीत, रोला गीत, पर्व गीत, लोकगीत, बाल गीत, कुण्डलिया, ग़ज़ल आदि का रसास्वादन किया जा सकता है। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में भावमूलक कलात्मक अनुभूति को 'रस' कहा है। आचार्य धनंजय ने विभाव, अनुभाव, साहित्य भावव्यभिचारी भाव आदि को स्थाई रस का मूल माना है। डॉ. विश्वंभर नाथ भावों के छंदात्मक समन्वय को रस कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विचार में जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा है उसी तरह ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा है। इन गीतों की गीतकार ह्रदय की मुक्तावस्था का आनंद लेते हुए रचनाकर्म में प्रवृत्त होकर गीतों को जन्म देती है।
भारत का लोक उत्सवधर्मी है। वह हर ऋतु परिवर्तन के अवसर पर त्यौहार मनाता है। सर्व धर्म समानता भारतीय संविधान ही नहीं, जीवनशैली की का भी वैशिष्ट्य है। क्रिसमस, नव वर्ष, स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस, दिवाली, मतदान आदि संबंधी गीतों का होना संकलन को एक नया आयाम देता है। कारुण्य (बिछड़ी माँ से संवाद), मिलन श्रृंगार (हम नदी के दो किनारे, ओ साथिया, प्रीत से दिल प्रीत को, मुरली बोले राधा राधा, मन को भाती है, फिर सुधामय प्रेमधारा, रंग प्रेम का), विरह श्रृंगार (पीड़ा को वीणा बना, झलक दिखाकर बादलों में, संतापों के ताप में, काश कभी वो हमारी खातिर), शांत रस (गीतों को गंगा कर दूँ, कर रही मनुहार मनवा, बना लिया है निर्झर मन को, किरण चाँदनी की आदि) को प्रमुखता मिली है. बाल रचनाओं में रस का स्वाभाविक है। इसी तरह देश प्रेम परक रचनाओं में वीर रस का आनंद सुलभ है। भक्ति रस प्रकृति और ईश्वर दोनों को लेकर रची रचनाओं में खोजा जा सकता है। सुनीता जी परिवर्तन आकांक्षी युवा और माँ हैं। उनमें सकारात्मकता के प्राबल्य होना ही चाहिए। संभवत: इसी लिए भयानक, वीभत्स या रौद्र जैसे रस इस संग्रह में अनुपस्थित हैं। समाज में बढ़ती नकारात्मकता का एक कारन अख़बारों हुए दूरदर्शनी समाचार पटलों पर नकारात्मकता की बारह भी है। सुनीता जी ने सकारात्मकता की मशाल रचनात्मक गीतों को रचकर जलाई है।
इस गीत संग्रह में धरती (मेरे देश की धरती), भारत माता (भारत वर्ष, भारत भूमि), भारतीयता (पहचान भारतीयता की), भारत के प्रति समर्पण ( हम अखंड भारत के प्रहरी, ये वतन मेरा वतन), भाषा (हिंदी, बोलियाँ हों मधु जैसी), ध्वज (जहाँ तिरंगा शान है), प्रकृति-पर्यावरण (कोयल रानी, चिड़िया, पंख खोलें, पेड़ हमें जीवन देते हैं, धूप सर्दियों की, बर्फ पहाड़ों की, सूखा दरख्त, पेड़ हमें जीवन देते हैं) आदि के साथ-साथ नागरिक कर्त्तव्य (मतदाता गीत), परिवर्तन हेतु आह्वान (लड़ता क्यों नहीं तू?), प्रेरणा (जीना सीखो) आदि के साथ बाल संरक्षण (पतंग, नील गगन, नील समंदर, धूप सर्दियों की, बर्फ पहाड़ों की) आदि पर गीतों का होना एकता में अनेकता की प्रतीति कराता है।
कवयित्री सुनीता के लिए काव्य साधना शौक या शगल का जरिया नहीं है। उनके लिए सारस्वत साधना उपसना है, पूजा है। इस पद्धति की विधि आत्मावलोकन व आत्मालोचन कर आत्मोन्नयन की सीढ़ियाँ चढ़ना है। स्वागतलाप की मनस्थिति में रची गयी ये रचनाएँ 'रोशनी रूहानी' लेकर तिमिर का शिरोच्छेदन करने के लिए शब्द को तलवार बना लेती हैं। जीवन और जगत के अनगिन पहलू अंत:चक्षुओं के सामने उद्घाटित होते हैं और शब्दों का परिधान पहनकर लय को आत्मसात कर गीत बन जाते हैं। सुनीता का अंतर्मन प्रश्नों को सुनता है, परिस्थितियों को गुनता है और उत्तर की शोध का नैरंतर्य विविध पड़ावों पर भिन्न-भिन्न रूपाकारों, विधाओं, छंदों और प्रतीकों-बिम्बों के साथ संगुम्फित होकर निर्झर की तरह प्रवहित होता है किन्तु उसमें नहर की तरह व्यवस्थित और नियंत्रित प्रवाह भी दिखता है। यह प्रवृत्ति संभवत: प्रशासन से संलग्नता से व्युत्पन्न हो सकती है। आगामी संकलनों में जैसे-जैसे कवि का प्रभाव बढ़ेगा, व्यवस्था न्यून और प्राकृतिकता अधिक होगी।
रचनाओं में भाव की प्रधानता हो या विचार की, वे हृदयप्रधान हों या बुद्धि प्रधान, उनमें कल्पना अधिक हो या यथार्थ, सनातनता हो या युगबोध - ऐसे प्रश्न हर कवि के मानस में उठाते हैं और इनका कोइ एक सर्वमान्य समाधान नहीं होता। सुनीता का कवि मन इस भूल-भुलैयाँ में उलझता नहीं, वह रचनाओं को किसी एक दिशा में ठेलता भी नहीं, उन्हें स्वाभाविक रूप से बढ़ने, पूर्ण होने देता है। इसलिए इन रचनाओं में भावना और तर्क का सम्यक सम्मिश्रण सुलभ है। किसी विचारधारा विशेष से जुड़े समालोचकों की दृष्टि से देखने पर इनमें वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव हो सकता है पर समग्रता में विचार करें तो यह अभाव नहीं, वैशिष्ट्य है जो अनेकता में एकता और विविधता में सामंजस्यता की सृष्टि करता है। मेरे विचार में इस खूबी के कारण ही कवयित्री समय की साक्षी देती रचनाओं को रच पाती है जो सबके लिए पठनीय होकर लोक स्वीकृति पा सकती हैं।
युगकवि नीरज के शब्दों में "गीत तो अस्तित्व का नवनीत है"। अशोक अंजुम के अनुसार "गीत क्या है? / रौशनी का घट / या कि डोरी पर थिरकता नट"।१ राजेंद्र वर्मा कहते हैं "राह बोध का संगम हो या प्रायोजित बंधन / गीत हमेशा अपनेपन का गाती है पायल"।२ गेट को नर्मदांचल के श्रेष्ठ गीतकार जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' "गीत फूल राग आग मस्ती औ' धुन" कहकर परिभाषित करते हैं।३ कविवर इंद्र बहादुर खरे गीत गीत की कसौटी बताते हैं- "ऐसे गीत अमर होते हैं / जिनमें भावों की तन्मयता / जिनमें बनी रहती है कविता / जिनके स्वर अंतर से उठकर, अंतर में ही लय होते हैं"।४ बकौल आचार्य भगवत दुबे "गीत माला में पिरोये, शब्द सुरभित साधना के"।५ साबरमती तट के गीत साधिका मधु प्रसाद के लिए गीत और आँसू का संबंध अन्यतम है- "आँखों के करघे पर कैसे / आँसू बनता गीत"।६ मेरे मत में "नव्यता संप्रेषणों में जान भरती /गेयता संवेदनों का गान करती / कथ्य होता तथ्यमय आधार खाँटा / सधी गति-यति अंतरों की जान बनती"।७ किसी गीतकार की प्रथम कृति में उससे सही मानकों पर खरा उतरने की अपेक्षा बेमानी है किन्तु संतोष यह है कि सुनीता सिंह के गीतों में इन तत्वों की झलक यत्र-तत्र दृष्टव्य है। ये गीत 'पूत के पाँव पालने में दीखते हैं' कहावत के अनुसार उज्जवल भविष्य का संकेत करते हैं।
सुनीता सिंह की राष्ट्रीय चेतना कई गीतों में मुखर हुई है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और गौरव के प्रतीकों को भी अपने गीतों का विषय बनाया है-
यहाँ तिरंगा शान है,आन-बान-अभिमान है
हिन्द देश के वासी हैं हम, इसका हमें गुमान है
और
झंडा ऊँचा रहे सदा गान तिरंगा का
लहराये बन चिन्ह सदा, विजय पताका का
जन-गण-मन की लय गूँजे सभी दिशाओं में
वंदे मातरम गीत की चहुँ और हवाओं में
वे देश की धरती का गौरव गान कर अपनी कलम को धन्य करने के साथ-साथ सर्व धर्म समन्वय की नीति को नमन करती है -
मेरे देश की धरती, रहे बसंती, ओढ़े चूनर धानी
हिंदू मुस्लिम सिक्ख पारसी ईसाई बौद्ध जैन धर्मायी
सबके मन को एक सुनहरी किरण बाँधती आयी
रहे सद्भाव समन्वय एका के हैं सारे ही सेनानी
भारत की कोटि-कोटि जनता खुद को इसका प्रहरी मानकर धन्यता अनुभव करती है-
प्रति क्षण न्योछवर को तत्पर, हम अखंड भारत के प्रहरी
साहस बल जग में है चर्चित
कौन नहीं है इससे परिचित
गौरव गाथा लिखना नभ पर
पली लगन मन में है गहरी
भारत का कण कण सुंदरता से सराबोर है। कवयित्री प्रकृति, पशु-पक्षियों, लोक पर्वों आदि की महिमा गायन कर देश को नमन करती है-
फाग राग में डूबा मनवा, राधे राधे बोल रहा
बाँसुरिया की धुन पर मौसम, शरबत मीठा घोल रहा
कू-कू कूके कोयल रानी, बोली जैसे मीठा पानी
गीत मधुर गति हो सुंदर, सरगम की ले तान सुहानी
चिड़िया करती चीं चीं चीं चीं, गीत कौन सा जाती
फुदक-फुदक कर चहक चहक कर गीत कौन सा गाती
पंख खोले तितलियों ने , फूल पर भर पुलक डोले
सुरभियों ने तान छेड़ी, मन मगन कर भ्रमर बोले
मतदाता गीत के माध्यम से सुनीता जी ने नागरिकों को उनके सर्बाधिक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य और अधिकार का स्मरण कराया है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है की वे स्वयं इस प्रक्रिया की नियामक होती हैं -
सब दानों में सबसे बढ़कर होता मतदान है
लोकतंत्र की पावनता का, अनुपम यही प्रतिमान है
जो अधिकारों के संग जुड़े
कर्तव्य उन्हें पहचान लो
तुम सभी बंधुवर माताओं
बहनों के संग जान लो
एक एक मत की अपनी गरिमा होती है
बूँद बूँद की सागर में महिमा होती है
मानव मात्र ही नहीं, सकल सृष्टि का मूल प्रेम व्यापार है। प्रेम के दोनों रूप विरह और मिलन इस संकलन के गीतों में है -
ओ साथिया, ओ साथिया, सुन ले माहिया
पुकारता हियाहै तुझे, आ जा ओ पिया
प्रीत से दिल प्रीत को आबद्ध करना चाहता है
देव तुमको ही बनाकर, दिल पूजना चाहता है
चल रहे हैं साथ लेकिन दूर साये हैं हमारे
इस जगत की धार में ज्यों, हम नदी के दो किनारे
इस संकलन में समाविष्ट आह्वान गान 'लड़ता क्यों नहीं तू?' युवाओं को झकझोरते हुए, कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा देता है -
डूबे बिन गहराइयों में
मोती ना मिलेगा
लहरों से बिन जूझे भँवर
पार न हो सकेगा
जिद लहरों से जूझने की
करता नहीं क्यों तू?
उफनती यदि लहर वीभत्स
लड़ता क्यों नहीं तू?
'छुप गया फिर चाँद' के गीत नवाशामय भोर पर्वत को फाँद कर, अपनी माँद को खोज, विश्राम कर फिर प्रतीत होते हैं। इनमें नवोन्मेष का आशाप्रद स्वर है। इन्हें 'उग गया फिर चाँद कहा जाए तो गलत न होगा।
छुप गया फिर चाँद
भोर पर्वत लाँघ
खोज अपनी माँद
उग गया फिर चाँद
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संदर्भ: १. एक नदी प्यासी, २. अंतर संधि, ३.जीवन के रंग, ४. विजन के फूल, ५. प्रणय ऋचाएँ, ६. आँगन भर आकाश, ७. काल है संक्रांति का।
संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट्स, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।
ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
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