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बुधवार, 7 जून 2017

sagar sikata seep















चित्र पर रचना
** सिकता, सागर, सीप **
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सिकता हूँ वसुधा की बिटिया मेरी गोदी में सागर.
मेरे आँचल में नद-निर्झर जिनसे भरते घट-गागर.
अहं शिलाओं का खंडित हो मुझको देता जन्म रहा.
गले लगाते रही पंक मैं पंकज जग ने तभी गहा.
मेरी संतानें घोंघे हैं सीपी जिनका कड़ा कवच.
मोती-मुक्ता पलते जिनमें शंख न मनु से पाते बच.
बच्चे फैला पैर बनाते घरघूला मैं मुस्काती.
छोटी हरकत बड़े बड़ों की देख कहूँ सच दुःख पाती.
लोभ तुम्हारा दंशित करता,खोद-बेचते करते लोभ.
भवन बना संतोष न पाते, कभी न जाता मन का क्षोभ.
थपक-थपक सागर की लहरें, मुझे सांत्वना देती हैं.
तुम मनुजों सी नहीं स्वार्थी, दाम न कुछ भी लेती हैं.
दिनकर आता, खूब तपाता, चन्दा शीतल करता है.
क्रीडा करती शुभ्र ज्योत्सना, रूप देख शशि मरता है.
प्रकृति-पुत्र हम,नियति नटी के, ऋतु-चक्रों अनुसार ढलें.
मनुज सीख ले, प्रकृति वक्ष पर निज हित हेतु न दाल दले.
मलिन न सिकता-सलिल को करे, स्वच्छ रखे सारे जग को.
पर्यावरण न दूषितकर, मंगल जगती का तनिक करे.
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