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शनिवार, 24 जून 2017

ghanakshari

 
घनाक्षरी
- संजीव 'सलिल'
०३. फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।     
      नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
      'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
      आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।  

०४. गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
      शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
      बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
      वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए  
.
०५. कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
      जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
      रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
      काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
०६. न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
      न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों 
      न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
      गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें

०७. चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही 
      मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे  / अग्नि इसलिए दही 
      मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके 
      जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही 
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सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
                                       झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये. 
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
                                         एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
                                          मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
                                भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*

 

बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
                                     कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
                                   बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
                                   आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
                                        बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*

 

बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
                                       स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
                                   कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
                                        निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
                                    धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*

 

संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
                                        शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
                                         शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
                                       बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
                                     नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*

 

महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
                                   तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
                                    हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
                                      हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
                                       हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..

 

बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
                                      एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
                                     हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
                                     शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
                                       साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
 *
कल : 
 
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।

 भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
 

शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।




काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।



काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-

१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.

कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.

*****
आज : संजीव


संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम,  राजनीति सत्ता-नीति,  दल-नीति कारा है ।

 


नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है, मतदाता घुटालों में, घिर बेसहारा है ।
 


 

'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि, अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।
 

 

स्विस बैंक में जमा जो, धन आये भारत में, देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।


 

लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, दन्द-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|

पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|

मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||

(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली  


जाके कर बीना सजेबाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटेनित गुनगाइए 


ज्ञानबुधिभासाभावतन्नक  हो अभावबिनत रहे सुभावगुननसराहिए|


किसी से नाता लें जोड़कब्बो जाएँ नहीं तोड़फालतू  करें होड़नेह सोंनिबाहिए 


हाथन तिरंगा थामकरें सदा राम-राम, 'सलिलसे हों  वामदेस-वारीजाइए||


छत्तीसगढ़ी


अँचरा मा भरे धानटूरा गाँव का किसानधरती मा फूँक प्राणपसीनाबहावथे 


बोबरा-फार बनावबासी-पसिया सुहाव,  महुआ-अचार खावपंडवानीभावथे|


बारी-बिजुरी बनायउरदा के पीठी भाय, थोरको  ओतियायटूरीइठलावथे 


भारत के जय बोलमाटी मा करे किलोलघोटुल मा रस घोलमुटियारीभावथे||  


निमाड़ी


गधा का माथा का सिंगजसो नेता गुम हुयोगाँव बटोs वोs,उल्लूकी दुम हुयो|  

मनखको सुभाsव छेनहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छेआपsसे तुम हुयो|

टीला पाणी झाड़s नद्दीहाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टसरsकाररद्दीपतानामालुम हुयो
 
'सलिलआँसू वादsलाधsरा कहे खाद ला, मिहsनतका स्वाद पादूरsमाsतम हुयो||

मालवी:
दोहा:

भणि ले म्हारा देस कीसबसे राम-रहीम|

जल ढारे पीपल तलेअँगना चावे नीम|| 

कवित्त

शरद की चांदणी सेरात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पेफूल नभ सेझरे|

आधी राती भाँग बाटीदिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो,नैना हैं भरे-भरे|

भाभीनी जेठानी रंगेकाकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया,दिल धीर  धरे|

रंग घोल्यो हौद भरबैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यारहायटारे टरे||

 राजस्थानी
जीवण का काचा गेलाजहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेलामोड़तरां-तरां का|

ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईंजोड़ तरां-तरां का|

चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?,होड़ तरां-तरां का||

नाव कनारे लागैगीसोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगीतोड़तरां-तरां का||

हिन्दी+उर्दू

दर्दे-दिल पीरो-गमकिसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखेंहँस-मुस्कुराइए|

हुस्न के  ऐब देखेंदेखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिलवारी-वारी जाइए|

नाज़ो-अदा नाज़नीं केदेख परेशान  हों, आशिकी की रस्म है किसिरभी मुड़ाइए|

चलिए  ऐसी चालफालतू मचे बवाल, कोई  करें सवालनखरेउठाइए||

भोजपुरी

चमचम चमकलचाँदनी सी झलकल, झपटल लपकलनयन कटरिया|

तड़पल फड़कलधक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिलगिरलबिजुरिया|

निरखल परखलरुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पगधरलगुजरिया|

छिन-छिन पल-पलपड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चलचपलसंवरिया||

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घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण- 
हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.  

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घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
संजीव 'सलिल'
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
*
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
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३०-५-२०११

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