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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

नवगीत: कागा हँसकर बोले काँव... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
कागा हँसकर बोले काँव...
संजीव 'सलिल'
*

*
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.



ठंडक देती धूप,
ताप देती है शीतल छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..



मोह शहर का किया
उजाड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.



अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

***************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

4 टिप्‍पणियां:

vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा ने कहा…

vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


आ० ’सलिल’ जी,

भाव सुन्दर हैं ।

सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
..... बिलकुल ठीक कहा है
साधुवाद !

विजय

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara

आ० आचार्य जी
आज के परिवेश पर सुब्दर बिम्बों और प्रतीकों से सजा व्यंग चित्र | साधुवाद |
सादर,
कमल

- mks_141@yahoo.co.in ने कहा…

सुंदर नवगीत के लिए साधुवाद
महेंद्र शर्मा

achal verma ✆ ekavita ने कहा…

achal verma ✆ ekavita


मोह शहर का किया
उजाड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...

कागा अब रोकर बोले काँव......
आ. आचार्य जी ,
सम सामयिक विषयों पर इतनी सुन्दर रचना मन को मोह गईं \
बधाई और धन्यवाद साथ साथ ।
अचल वर्मा