कविता
स्मृतियों की छायाएँ
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स्मृतियों की छायाएँ
-- विजय निकोर
सांध्य छायाओं की तिरछी कतारें हिलती हैं जैसे
झूलते पेड़ों के बीच से झाँक कर देखती है कोई,
उभरती स्मृति ही है शायद जो कटे पंख-सी पड़ी,
यहाँ, वहाँ, बैंच पर, सर्वत्र,भीगी घास पर बिछी थी,
लुढ़की मानो सुनहरी स्याही चाँदनी के आँचल-सी .
लोटते थे इसी घास पर हम बरगद से बरगद तक
यही बरगद ही तो थे यहाँ कोई पचास साल पहले,
व्याकुल विपदाएँ जो नयी नहीं, बस लगती हैं नई,
हर परिचित स्पर्श उनका अनछुआ अनपहचाना-सा
चौंका देता है अन्त:स्थल को विद्युत् की धारा-सा ...
उजियारा हो, या उदास पड़ा अंधकार क्षितिज तक,
मुरझाए चेहरे की लकीरों-सा छिपाए रखता है यह
वेदनामयी अनुभूति धूलभरे निर्विकार अतीत की,
घुल-घुल आती हैं गरम आँसुओं में अंगारों-सी यादें,
सांध्य छायाएँ काँपती हैं इन वृध्द पेड़ों की धड़कन-स.
चले आते हैं कटे पंख समय के उड़ते-सूखे-पत्तों-से
कितना हाथ बढ़ाएँ, काश कभी वह पकड़ में आएँ,
कह देते हैं शेष कहानी संतप्त अभिशप्त यौवन की,
सांध्य छायाएँ... हवाएँ भटकते मटमैले अरमानों की
वेगवान रहती हैं निर्विराम तिमिरमय अकुलाती यादों में .
vijay <vijay2@comcast.net>
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