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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

कविता "आखिर क्यों? " --कुसुम वीर

कविता


"आखिर क्यों? "
 
कुसुम वीर 
*
कुछ वहशी दरिन्दे, निरीह बाला को
सरेबाज़ार पीट रहे थे, नोच रहे थे
और आसपास खड़े लोग
अबला की अस्मत को तार -तार होता देख
तमाशबीन बने मौन खड़े थे
आखिर क्यों ?

दर्द से, पीड़ा से छटपटाती
गुंडों से सरेआम पिटती
असहाय बाला की पुकार,चीत्कार भी
नहीं झकझोर पाई थी
निर्जीव खड़े उन लोगों की चेतना को
आखिर क्यों ?

कहीं भी, कोई भी
घटित होता पाप, अत्याचार
नहीं कचोटता आज हमारी आत्मा को
नहीं खौलता खून
नहीं फड़कती हमारी भुजाएं
 दानवों के दमन को
आखिर क्यों ?

गिर चुके हैं हम,
अपने संस्कारों से, सिद्धांतों से
उसूलों से, मर्यादाओं से
या मार डाला है हमें,हमारी कायरता ने
जिसकी बर्फ तले दुबके,
बेजान, बेअसर,निष्चेत पड़े हैं हम
आखिर क्यों ?

कहने को व्याप्त है, हरतरफ सुरसा सम
शासन - प्रशासन और न्याय
फिर भी,
इन बेगैरत, बेशर्म,बेख़ौफ़ चंद गुंडों से
हम इतने खौफ ज़दा हैं
आखिर क्यों ?

आखिर किस लाचारी और भय के चाबुक से
आदमी इस कदर असहाय हो गया है
कि, सरेआम लूटते -खसोटते, काटते -मारते
दरिंदों की दरिंदगी को देखकर भी
नपुंसकों की भांति, आज वह निष्चेत खड़ा है
आखिर क्यों ?

आज किसी द्रुपदा का चीरहरण
नहीं ललकारता हमारे पौरुष को
क्रूरता और वीभत्सता का तांडव
नहीं झकझोरता हमारे अंतर्मन को
आखिर क्यों ?

गौरवमय भारत के लौहपुरुष
कल क्या थे,आज क्या हो गए
कभी सोचा है तुमने ?
हमारा ये बेबस मौन
किस गर्त में डुबोयेगा हमें, हमारे समाज को
क्या इसपर चिंतन करोगे तुम ?
************
kusumvir@gmail.com

1 टिप्पणी:

salil ने कहा…

सशक्त रचना हेतु बधाई.