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शनिवार, 6 जून 2009

दोहे ;चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर

दोहे ;
चन्द्रसेन 'विराट', इंदौर

जहाँ देखिये आदमी, जहाँ देखिये भीड़।
इसमें हम एकांत का कहाँ बनायें नीड़॥

दैत्य पसारे जा रहा, धीरे-धीरे पाँव।
महानगर के पेट में, समा रहे हैं गाँव॥

महानगर को लग गया, जैसे गति का रोग।
पैदल कुछ, पहियों चढ़े, भाग रहे हैं लोग॥

शहरों में जंगल छिपे, डाकू सभ्य विशुद्ध।
अंगुलिमाल अनेक हैं, एक न गौतम बुद्ध॥

धीरे-धीरे कट गए, हरे पेड़ हर ओर।
बहुमंजिला इमारतें, उग आयीं मुंह जोर॥

चले कुल्हाडी पेड़ पर, कटे मनुज की देह।
रक्त लाल से हो हरा, ऐसा उमडे नेह॥

पेड़ काटने का हुआ, साबित यों आरोप।
वर्षा भी बैरिन बनी, सूरज का भी कोप॥

बस्ती का होता यहाँ, जितना भी विस्तार।
सुरसा के मुंह की तरह, बढ़ जाता बाज़ार॥

महानगर यह गावदी!, कसकर गठरी थाम।
तुझको गठरी के सहित कर देगा नीलाम॥

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4 टिप्‍पणियां:

शोभना चौरे ने कहा…

b hut sarthk dohe

महावीर ने कहा…

बहुत सुन्दर दोहे हैं.
महावीर शर्मा

संजीव 'सलिल' ने कहा…

दादा!

सारगर्भित, सार्थक, सरस, लयपूर्ण, मन-मोहक दोहों हेतु साधुवाद

M.M.Chatterji ने कहा…

achchhe dohe