दोहा सलिला 
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मन मीरां तन राधिका,तरें जपें घनश्याम।              
पूछ रहे घनश्याम मैं जपूँ कौन सा नाम?
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जिसको प्रिय तम हो गया, उसे बचाए राम। 
लक्ष्मी-वाहन से सखे!, बने न कोई काम।।  
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प्रिय तम हो तो अमावस में मत बालो दीप। 
काला कम्बल ओढ़कर, काजल नैना लीप।।   
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प्रियतम बिन कैसे रहे, मन में कहें हुलास?
विवश अधर मुस्का रहे, नैना मगर उदास।।
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चाह दे रही आह का, अनचाहा उपहार। 
वाह न कहते बन रहा, दाह रहा आभार।।
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बिछुड़े आनंदकंद तो, छंद आ रहा याद।
बेचारा कब से करे, मत भूलो फरियाद।।
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निठुर द्रोण-मूरत बने, क्यों स्नेहिल संजीव। 
सलिल सलिल सा तरल हो, मत करिए निर्जीव।।  
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सोरठा 
मन बैठा था मौन, लिखवाती संगत रही। 
किसका साथी कौन?, संग खाती पंगत रही।।
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मुक्तक 
मन जी भर करता रहा, था जिसकी तारीफ 
उसने पल भर भी नहीं, कभी करी तारीफ
जान-बूझ जिस दिन नहीं, मन ने की तारीफ 
उस दिन वह उन्मन हुई, कर बैठी तारीफ   
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