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बुधवार, 30 अप्रैल 2025

लेख ३ हिंदी के बढ़ते कदम

लेख 
हिंदी के बढ़ते कदम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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स्वतंत्रता और हिंदी 
                    स्वतंत्रता और स्वभाषा का साथ चोली-दामन का सा है। भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारियों, सत्याग्रहियों, आदिवासियों, आजाद हिंद फौज  तथा सैन्य विद्रोह जैसे सभी प्रयासों का जन्म हिंदी व अन्य भारतीय भाषा-बोलिओं के माध्यम से ही हुआ। गाँधी जी गुजराती, नेताजी बांग्ला भाषी थे तथापि वे हिंदी के पक्षधर रहे। हिंदी को भारत की जनभाषा बनाने में गुजराती भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती तथा पंजाबी भाषी देवकी नंदन खत्री का योगदान अबूतपूर्व रहा। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने न्यायालय के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि हमें अंग्रेजों के युग की मानसिकता को दफनाना होगा। यह 'अंग्रेज़ी मानसिकता' क्या है? अंग्रेजी मानसिकता है, जन सामान्य से दूरी बनाना, उस भाषा में बहस करना जिसे मुवक्किल समझ ही न सके कि क्या कहा या किया जा रहा है? किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं हो सकता। गृहमंत्री अमित शाह ने हिंदी दिवस पर कहा कि  इस सरकार के नेतृत्व में सभी भारतीय भाषाएँ आगे बढ़ रही है। उनमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है और हिंदी इन सबको जोड़ने वाली एक कड़ी है। १५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस और १४ सितंबर हिंदी दिवस का होना संयोग मात्र नहीं है, इसका निहितार्थ यह है कि स्वभाषा के बिना स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती तथा उसकी रक्षा के लिए भी स्वभाषा आवश्यक है। यह सत्य भारतेन्दु हरिश्चंद्र बहुत पहले उद्घाटित कर चुके थे-  

''निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल । बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। 
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।'' 

इंडिया बनाम भारत 

                    जिस भारत को दुनिया केवल 'इंडिया' नाम से जानती थी, अब उसे ‘भारत’ के रूप में जानने लगी है। लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ‘भारत’ शब्द का उपयोग क्रमश: बढ़ता जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान में पहले से ही ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दोनों शब्द सम्मिलित  थे।  यह बिना कहे ही कह दिया गए था कि स्वतंत्र देश के रूप में हमें 'इंडिया' से 'भारत' की दिशा में बढ़ना है। १५ अगस्त से १४ सितंबर तक यह यात्रा क्रमश: मंथर गति से की जाने का कारण यह था कि कई भारतीय भाषाएँ आधुनिक हिंदी के जन्म लेने से सदियों पहले से प्रचलित थीं और उनमें विपुल स्तरीय साहित्य उपलब्ध था। स्वाभाविक ही था कि वे नवजात हिंदी को अस्वीकार करते। राजनैतिक स्वार्थों ने भी हिंदी की राह में बाधा डाली तथापि भारत की हर सरकार हिंदी को राजभाषा बनाए रखकर कार्य करती रही। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध के बावजूद स्व. पी. वी. नरसिहम्मा राव और श्री एच. डी. देवेगौड़ा जैसे दक्षिण भारतीय प्रधान मंत्रियों के कार्यकालों में भी हिंदी सरकार की राजभाषा बनी रही। गत  कुछ वर्षों में भारतीय भाषाओं की प्रगति के लिए अनेक ठोस कदम उठाए गए हैं। पहला युगांतरकारी परिवर्तन तो यह है कि आजादी के बाद हिंदी में काम करने की बात की गई। राजनैतिक स्वार्थों ने उत्तर और मध्य भारत में इसे अंग्रेजी विरोध का रूप दे दिया। प्रकृति के नियमानुसार इसकी विपरीत प्रतिक्रिया दक्षिण भारत में हुई, वहाँ हिंदी विरोध आरंभ हो गया जबकि भारत सरकार ने विश्व तमिल दिवस, विश्व तेलुगु दिवस आदि के भव्य अनुष्ठान किए, उन पर डाक टिकिट भी निकाले।

हिंदी-अंग्रेजी टकराव 

                    हिंदीतर भारतीय भाषाओं के हाशिए पर आकर नष्ट होने की आशंका को जड़-मूल से मिटाने तथा १९९१  के उदारीकरण के बाद उद्दंड साँड़ की तरह उछल रही अंग्रेजी परस्त मानसिकता को नियंत्रित करते हुए  भारतीय भाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने की मुहिम आरंभ की गई। अमेरिका समेत पश्चिमी देश अंग्रेजी को बढ़ाने में जी-जान से जुटे रहे। कभी वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के नाम पर, कभी ज्ञान की समृद्ध परंपरा और कभी शिक्षा को बेहतर करने के नाम पर। इस कारण वर्ष २००१ के बाद दुनिया में अंग्रेजी भाषा में सर्वाधिक किताबें भारत में छपीं। भारत में हर साल लगभग १ लाख किताबें छपती हैं, जिनमें से २५% हिंदी, २०% अंग्रेजी और शेष अन्य भारतीय भाषाओं में होती हैं।  यह पुस्तक प्रकाशन उद्योग हर साल लगभग १०% की दर से बढ़ रहा है। दुनिया में २५०  सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की सूची में ५० % पुस्तकें भारतीय लेखकों की हैं। इसका प्रमुख कारण बहुत बड़ी जनसंख्या है। सरकारी स्कूल घटने और निजी स्कूल और विश्वविद्यालय बढ़ने का प्रभाव भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को वरीयता देने के रूप में सामने आ रहा है। हिंदी क्षेत्र में  अंग्रेजी का दबदबा बढ़ने का  दुष्प्रभाव यह हुआ की विद्यार्थी न तो अंग्रेजी सीख सके, न हिंदी।  इसका दुष्प्रभाव हिंदीभाषी राज्यों के युवाओं की रचनात्मक उर्वरता पर हुआ, फलत: बेरोजगारी बढ़ती गई। बांग्ला, मराठी, मलयालम, तमिल, कन्नड़, मराठी और गुजराती भाषाओं से भी अंग्रेजी का टकराव हुआ किंतु ये राज्य अपनी भाषाओं को बचाने में हिंदीभाषी राज्यों से अधिक  सक्षम साबित हुए हैं। इसका कारण हिंदी भाषी क्षेत्रों में मानक हिंदी की तुलना में स्थानीय बोलिओं के प्रति लगाव तथा अंग्रेजी को शासकों की भाषा मानकर शासक वर्ग में प्रवेश के लिए अंग्रेजी का पिछलग्गू बनने की मानसिकता है। 

हिंदी में तकनीकी शिक्षा 

                    अपवाद स्वरूप मध्य प्रदेश में वर्ष १९७०- ७१ में जबलपुर पॉलिटेकनिक के छात्रों के नेतृत्व में अभियांत्रिकी पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाने के लिए प्रांत व्यापी हड़ताल हुई। हड़ताल तो जैसे-तैसे समाप्त कर दी गई किंतु यह विचार नष्ट नहीं हुआ और चिंगारी धीरे-धीरे सुलगती रही। अभियंता संघों ने अपने सदस्यों से हिंदी में अधिकाधिक कार्य करने का आग्रह किया, अभियांत्रिकी जानकारियों की डायरी हिंदी में छापी गई, सरकारी दस्तावेजों और पत्राचार में हिंदी का अधिकाधिक उपयोग किया जाता रहा। मैं स्वयं भी  इन गतिविधियों को गति देने में समर्पित रहा। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध आदर्शवादी नेता स्व। कुशभाऊ ठाकरे के अनुज स्व. जयंत ठाकरे मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी के प्रति समर्पित रहे। निरंतर बढ़ते जन-दबाव के कारण प्रांतीय सरकार ने भी हिंदी के प्रति समर्थन की नीति बनाई। फलत: पहले त्रिवर्षीय डिप्लोमा फिर बी.ई./बी.टेक. और अब एम.बी.बी.एस. आदि के  पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाए जा रहे हैं। विद्यार्थी हिंदी या अंग्रेजी या मिश्रित भाषा में उत्तर लिख सकते हैं। फार्मेसी, कंप्यूटर साइन्स, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि विषय हिंदी माध्यम से ही पढ़ाए जा रहे हैं। खेद यह है कि मध्य प्रदेश में हिंदी में तकनीकी शिक्षा की नीति शेष हिंदी भाषी राज्यों छत्तीसगढ़, बिहार, झटखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान दिल्ली आदि में अब तक नहीं अपनाई जा सकी है। हिंदी भाषी जनता, साहित्यकार और जनप्रतिनिधि इस दिशा में उदासीन हैं।  नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ने का मूल मंत्र चुना गया है। पूरे देश में प्राइमरी शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिए जाना अनिवार्य कर दिया गया है। तकनीकी और उच्च  शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने का प्रभाव यह होगा कि बच्चों को लाखों अंग्रेजी शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग) रटने से मुक्ति मिल जाएगी, विषय कम कठिन लगेगा और जल्दी समझ में आने से लिखित व मौखिक परीक्षा में बेहतर अंक मिलेंगे। भाषा समझकर उत्तर देने से साक्षात्कार में बेहतर प्रस्तुति करना संभव होगा। हिंदी में प्रवीणता और तकनीकी विषयों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य बढ़ने पर तकनीकी किताबें लिखने, अनुवादित करने तथा तकनीकी परियोजनाओं के प्राक्कलन, प्रतिवेदन, मूल्यांकन, शोध आदि कार्य करने के लिए रोजगार अवसर बढ़ेंगे।     

प्रशासनिक परीक्षाओं में हिंदी 

                  केंद्र सरकार के कर्मचारी चयन आयोग ने २५ मंत्रालयों के लिए कर्मचारियों की भर्ती के लिए २३ भारतीय भाषाओं में परीक्षा की तैयारी की है। पिछले ८ सालों से यह परीक्षा हिंदी समेत १३ भाषाओं में हो रही है। पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वर्ष २०११ में तत्कालीन सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा  के प्रथम चरण में ही अंग्रेजी लाद दी थी। फलत:, ३ वर्ष में हिंदी और भारतीय भाषाओं में पढ़ने-लिखने वाले उम्मीदवार लुप्त हो गए। महाराष्ट्र व तमिलनाडु सहित देशभर में छात्रों ने आंदोलन किया, दिल्ली के मुखर्जी नगर और करोल बाग में बच्चे सड़कों पर उतरे। मामला न्यायालय तक गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से कोठारी रिपोर्ट के खिलाफ प्रथम चरण में अंग्रेजी थोपने का कारण पूछा, सरकार संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई। अंततः २०१४ में प्रथम चरण में थोपी गई अंग्रेजी को हटाया गया। अब सिविल सेवा परीक्षा के परिणामों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के उम्मीदवारों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। अब लगभग ९% बच्चे भारतीय भाषाओं के चुने गए हैं जबकि सन १९८०-९० के दशकों में यह लगभग २०% थी। 

                  वर्ष १९७९ में शिक्षाविद दौलत सिंह ‘कोठारी आयोग’ की सिफारिश के अनुसार सिविल सेवा परीक्षा में  पहली बार भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की शुरुआत की गई थी। कोठारी कमेटी का तर्क था कि क्या प्रतिभा (टैलेंट) सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से पढ़नेवालों में ही होती है? भारतीय भाषाओं के अधिकांश बच्चे कहां जाएंगे? क्या इनका उच्च सेवाओं में जाने का कोई अधिकार नहीं है? इसलिए एक सच्चे लोकतंत्र में सभी भाषाओं को आठवीं सूची में उल्लेखित सभी भाषाओं को मौका मिलना चाहिए! उन्होंने अपनी सिफारिशों में यह तक कहा था की जिन अधिकारियों को भारतीय भाषाएँ नहीं आती, उनको इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है।" तब गाँधीवादी मोरारजी देसाई की जनता सरकार ने सिफारिश को लागू कर दिया गया। इसका चमत्कारिक असर यह था कि जिस परीक्षा में बैठनेवालों की संख्या लगभग १०,००० थी, वह वर्ष १९७९ में वह एक लाख से भी ज्यादा हो गई। वर्ष १९८९ में ‘सतीश चंद्र कमेटी’ ने माना कि सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को शामिल करने से लोकतंत्र तो मजबूत हुआ है और भारतीय भाषाओं कोसम्मान मिला है। वर्ष २००० में जाने-माने अर्थशास्त्री योगेंद्र अलग की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने भी भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर मुहर लगाई। लेकिन अफसोस यूपीएससी की बाकी परीक्षाएँ जैसे वन सेवा, आर्थिकी सेवा, मेडिकल सेवा, इंजीनियरिंग परीक्षा इत्यादि अभी भी सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में ही होती हैं। हमें सभी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनवाने के लिए सजग और सचेष्ट होना होगा। 

भाषा और गुलामी की मानसिकता 

                  संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन के अनुसार विश्व के सर्वोन्नत १० देश रूस, चीन, जापान, जर्मनी आधी ऐसे हैं जो उच्च और तकनीकी शिक्षा स्वभाषा में देते हैं जबकि १० सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो पूर्व में गुलाम रहे। वे विदेशी भाषा को संप्रभुओं की भाषा मानकर  उच्च व तकनीकी शिक्षा विदेशी भाषा में दे रहे हैं। रूस- यूक्रेन युद्ध में वहाँ पढ़ रहे २०,००० भारतीय डॉक्टरों की पढ़ाई आगे भारत में नहीं कराई जा सकी चूँकि वहाँ की प्रांतीय व राज्य की भाषा सिखाकर उसे में मेडिकल की पढ़ाई कराई जाती है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा, जिसे ‘नीट’ जो पहले केवल अंग्रेजी में होती थी, अब १५ भाषाओं में कराई जा रही है। ग्रामीण अंचलों में सिर्फ प्रांतीय भाषाओं में ही बेहतर शिक्षा उपलब्ध है।

मानक हिंदी और बोध गम्यता   

                  दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया विश्वविद्यालय अंबेडकर आदि केंद्रीय विश्वविद्यालयान में ने वर्ष १९७४-७६ में २०% से ज्यादा बच्चे स्नातकोत्तर में हिंदी माध्यम चुनते थे, अंग्रेजी के कैंसर ने ऐसा असर किया कि छात्रों ने हिंदी माध्यम चुनना बंद कर दिया।इसका मुख्य कारण यह है कि पुस्तकीय हिंदी इतनी क्लिष्ट और अप्रचलित है कि उसकी तुलना में अंग्रेजी पढ़ना सहज लगता है। हिंदी माध्यम तब ही लोकप्रिय होगा जब पाठ्य पुस्तकों की भाषा सहज बोधगम्य होगी, उसमें प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाएगा और तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्द ज्यों के त्यों देवनागरी लिपि में लिखे जाएँगे। यदि तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दावली अलग-अलग भाषाओं में भिन्न-भिन्न रूपों में अनुवादित किए जाएँगे तो एक प्रांत से पढ़ा छात्र दूसरे प्रांत में अध्ययन, अध्यापन या कार्य नहीं कर सकेगा। तकनीकी भाषा को सरल-सहज रखने के लिए पहले सरकार और फिर समाज को आगे बढ़ना होगा। 

                  हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए सुखद स्थिति इस समय यह है कि सत्ता पर बैठे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सभी राजनेता अपनी बात भारतीय भाषा और हिंदी में करते हैं। संसद में भी अधिकतर बहस हिंदी और भारतीय भाषाओं में होती है। राज्य की विधानसभाओं में तो ऐसा होता ही है। नौकरशाहों की तुलना में राजनेता जन-भाषा लोक भाषा के अधिक निकट हैं । पत्रकारिता में अंग्रेजी के दीवाने एंकरों  को अंग्रेजी में  प्रश्न पूछने पर हिंदी में जवाब मिलता है। परिदृश्य बदल रहा है। 

भारतीय भाषाएँ और न्यायपालिका 

                  सर्वाधिक शोचनीय स्थिति न्यायालयों में है। भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ (१) (ए) में यह कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होगी। हालाँकि, भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ (२) में यह प्रावधान है कि किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उस राज्य में अपनी मुख्य पीठ वाले उच्च न्यायालय की कार्यवाही में हिंदी भाषा, या राज्य के किसी भी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली किसी अन्य भाषा के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है। इसके अलावा, राजभाषा अधिनियम, १९६३ की धारा ७ में यह कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उस राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ हिंदी या राज्य की आधिकारिक भाषा के प्रयोग को अधिकृत कर सकता है। अगर कोई निर्णय, डिक्री या आदेश किसी ऐसी भाषा (अंग्रेजी भाषा के अलावा) में पारित या दिया जाता है, तो उच्च न्यायालय के अधिकार के तहत उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी संलग्न होगा।सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराए हैं। उच्च न्यायालय वकीलों की बात उनकी अपनी भाषा में सुनने लगे हैं। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में २ दसक पूर्व न्यायमूर्ति गुलाब गुप्ता  ने हिंदी में फैसला दिया।  केरल हाईकोर्ट अपना निर्णय मलयालम भाषा में दे चुकी है। 

                  तमिलनाडु सरकार हिंदी का विरोध के बावजूद तमिल को महत्व देती है। दक्षिण के राज्यों में उनकी अपनी भाषा मैट्रिक तक अनिवार्य है। महाराष्ट्र के मैट्रिक पढ़ने वाले ज्यादातर छात्रों के पास तो चार भाषाएँ (मराठी, इंग्लिश, हिंदी और संस्कृत या उर्दू) होती हैं। पंजाब में नई सरकार ने दसवीं कक्षा तक पंजाबी भाषा को अनिवार्य किया है। दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में लगभग ४००० स्कूल हैं। निजी स्कूलों में हिंदी मुश्किल से सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई जाती है जबकि अंग्रेजी, चीनी, जापानी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाएँ  पढ़ाई जा रही हैं। इन निजी स्कूलों में ९ वीं कक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य  है, हिंदी नहीं। इस स्थिति को बदलना होगा। गुजरात के स्कूलों में अंग्रेजी बढ़ने के विरोध में समाज उठ खड़ा हुआ। ३ महीने में मुख्य मंत्री मानना पड़ा कि गुजराती न केवल दसवीं बल्कि १२ वीं तक पढ़ाई जाएगी। दिल्ली के लिए उदाहरण प्रासंगिक है। यहाँ सभी सरकारी और निजी स्कूलों में १२ वी  तक हिंदी तुरंत अनिवार्य की जाए। समाज शास्त्रियों का आकलन है कि समझ के विकास के लिए अपनी भाषा में शिक्षा बहुत जरूरी है।  यही समझ अपने समाज व उसकी समस्याओं को हल करने के काम आती है। यह अचानक नहीं है कि दक्षिण के राज्य उत्तर के मुकाबले में ज्यादा तार्किक और बेहतर विकास की तरफ अग्रसर हैं। फिर वह चाहे जनसंख्या नियंत्रण का मामला हो, स्त्री शिक्षा का हो, शिक्षा की बेहतरीन का हो या फिर कानून व्यवस्था का। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी उत्तर भारत के मुकाबले वे कहीं बेहतर साबित कर रहे हैं। 

हिंदी का उज्ज्वल भविष्य 

                  हिंदी भाषा के भविष्य की चर्चा करते समय हम सबका यह दायित्व है कि हम अपने चारों तरफ ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें बच्चे विदेशी भाषा के दबाव में किताबों और शिक्षा से दूर न हो। गाँधी जी ने भारत की सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखने की अनुशंसा की थी ताकि हर भारतीय एक दूसरे की भाषा को पढ़ और धीरे-धीरे समझ सके। भारत की भाषिक एकता का जो सपना गाँधी जी ने देखा था उसे साकार करने का समय आ गया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर ने सद्य प्रकाशित साझा काव्य संकलन 'चंद्रविजय अभियान में देश की ५३ भाषा-बोलियों की कविताएँ देवनागरी लिपि में अर्थ सहित प्रकाशित कर महत्वपूर्ण कदम उठाया है। मैंने इस संकलन में १५ बोलिओं में चंद्र यान परियोजना पर केंद्रित काव्य रचना की है। हम सबको देश के विविध अंचलों की यात्रा करते समय वहाँ के कुछ शब्द सीखकर अपने शब्द भंडार में सहेज लेना चाहिए। गत वर्ष मलेशिया यात्रा में मैंने शौचालय के लिए 'टंडास' शब्द देखा और अपने साथियों को बताया कि यह शब्द भारत में प्रयुक्त होते शब्द 'संडास' का रूपांतरण है, ऐसे अनेक शब्द हैं जी भारत से फारस, इंगलेंड और अन्य देशों में पहुँचे हैं। दीवाल - द वाल, मातृ-मातर-मादर-मदर, पितृ-पितर-फिदर-फादर, भातृ-बिरादर-ब्रदर आदि हजारों शब्द भारत से अन्य देशों में गए और अन्य देशों से भारत में आए हैं। भाषिक शुद्धिकरण के नाम पर ऐसे शब्दों कोअमान्य करने की ओछी मानसिकता को रोक जाना चाहिए। शब्दों और भाषा को व्यापक बनाने का कार्य महिलाएँ, कर्मचारी, विद्यार्थी और व्यापारी सर्वाधिक करते हैं। महिलाएँ मायके के शब्दों और भाषा को ससुराल ले जाती हैं। कर्मचारी स्थानांतरण में जगह-जगह अपनी भाषा ले जाते हैं। विद्यार्थी जहां पढ़ने जाते हैं वहाँ की भाषा सीखते और वहाँ अपनी भाषा में काम करते हैं। व्यापारी अपने माल के साथ-साथ भाषा का भी विनिमय करते हैं। भारत में ये सभी वर्ग दिनों दिन अधिकाधिक सक्रिय व समर्थ हो रहे हैं। राजनैतिक नेता स्वार्थ सिद्धि हेतु भाषिक टकराव को हवा न दें तो भाषिक एकता और समन्वय शीघ्र हो सकेगा। यह स्पष्ट है की भारत ही नहीं विश्व में भी हिंदी समझने, बोलने, लिखने और काम करने वालों की संख्या टेजी से बढ़ रही है, इसलिए हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है।
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४ ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 
  

पंडित कमलापति त्रिपाठी ने हिंदी को भारतीय संस्कृति की आत्मा कहा है।

हिंदी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह अन्य भाषाओं को भी अपने अंदर आत्मसात कर लेती है ।हिंदी भाषा ने अन्य भाषाओं को उर्दू, अरबी, अंग्रेजी सभी को अपने अंदर शामिल कर लिया है जिस प्रकार सागर अपने अंदर सभी नदियों को समाहित कर लेता है वैसे ही हिंदी भाषा ने भी अपने अंदर अन्य भाषाओं को समाहित कर लिया है।



इस तरह हम अपनी भाषा को राजभाषा से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिला सकते है ।यह जन -जन की भाषा है। हिंदी उत्तर भारत में बोली जाने वाली मुख्य भाषा है। आम बोल चाल की भाषा होने के कारण हर व्यक्ति इसको आसानी से समझ सकता है। इसलिए हम हिंदी के इस सफर में उसे वह सम्मान दिलाना चाहते हैं जिससे वह राष्ट्रभाषा के पद पर सुशोभित हो सके।

हिंदी से है हिंदुस्तान ,ये है भारत की पहचान

हिंदी है भारत की शान ,हिंदी है हमारा अभिमान

विश्व धरा पे हम इसको ,एक नयी पहचान दिलायें

"Hindi ke Badhte Charan" (हिन्दी के बढ़ते चरण) विषय बहुत महत्वपूर्ण है और इसे भारतीय भाषाओं के विकास के संदर्भ में समझना चाहिए। यह विकास कई चरणों में हुआ है:

1. प्राचीनकाल (Ancient Period): हिन्दी की उम्र को सबसे पहले आदिकाल कहा जा सकता है, जब इसकी प्रारंभिक रूपेण प्रयोग हुआ। इस समय हिन्दी का संबंध वेदों और महाभारत जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों से था।

2. मध्यकाल (Medieval Period): मुग़ल साम्राज्य के बाद, हिन्दी का विकास और आलोचना सहित विभिन्न भाषाओं के प्रभाव में था। अवधी, ब्रज और खड़ी बोल इस दौरान महत्वपूर्ण थे।

3. आधुनिककाल (Modern Period): हिन्दी की स्थिति और विकास अंग्रेजी ब्रिटिश साम्राज्य के आगमन के बाद बदली। हिन्दी और उसकी विभिन्न लहजों का आधिकारिक रूप सरकार के द्वारा स्वीकृत हुआ, और यह अधिक प्रमिनेंट हो गई।

4. स्वतंत्रता संग्राम (Independence Movement): हिन्दी भाषा ने स्वतंत्रता संग्राम के समय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और इसके बाद भी यह भाषा भारतीय संघर्ष के एक प्रतीक के रूप में जीवंत रही।

5. समकालीन (Contemporary Period): हिन्दी आजकल भारत की राजभाषा है और यह देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह भाषा सिनेमा, साहित्य, संगीत, और विज्ञान में भी विकसन कर रही है।

समग्र रूप में, "हिन्दी के बढ़ते चरण" दिखाते हैं कि हिन्दी भाषा का विकास एक लंबे और समृद्ध इतिहास के साथ हुआ है, और यह भाषा भारतीय समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में आज भी महत्वपूर्ण है।

भारत की राजभाषा होने के साथ-साथ, हिंदी एक समृद्ध एवं विकसित भाषा है। हिंदी का विकास निरंतर जारी है और आज हिंदी के बढ़ते चरण देखे जा सकते हैं।

हिंदी के बढ़ते चरण के कई कारण हैं। पहला कारण है कि हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत की जनसंख्या का लगभग 40% हिस्सा हिंदी भाषी है। दूसरा कारण है कि हिंदी एक सरल और सुबोध भाषा है। हिंदी शब्दावली में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का समावेश है। तीसरा कारण है कि हिंदी में आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों का विकास तेजी से हो रहा है। चौथा कारण है कि हिंदी साहित्य में निरंतर नवाचार हो रहे हैं।

हिंदी के बढ़ते चरण के कई सकारात्मक प्रभाव भी हैं। हिंदी भारत की एकता और अखंडता को बढ़ावा देती है। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विविधता को संजोने का कार्य करती है। हिंदी भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

हिंदी के बढ़ते चरण को बनाए रखने के लिए हमें कई प्रयास करने होंगे। सबसे पहले हमें हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूकता फैलानी होगी। दूसरा हमें हिंदी में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग बढ़ाना होगा। तीसरा हमें हिंदी साहित्य के विकास के लिए प्रोत्साहन देना होगा।

यदि हम इन प्रयासों को जारी रखते हैं तो हिंदी भविष्य में भी एक प्रमुख भाषा बनी रहेगी।

यहाँ कुछ विशिष्ट उदाहरण दिए गए हैं जो हिंदी के बढ़ते चरण को दर्शाते हैं:

भारत सरकार ने सभी सरकारी दस्तावेजों को हिंदी में भी प्रकाशित करने का आदेश दिया है।
कई प्राइवेट कंपनियां भी अपने उत्पादों और सेवाओं को हिंदी में उपलब्ध करा रही हैं।
हिंदी साहित्य और फिल्म उद्योग में तेजी से विकास हो रहा है।
हिंदी को भारत के बाहर भी बढ़ावा दिया जा रहा है।
ट्रक साहित्य एक बड़ा ही दिलचस्प विषय है और यह सच है कि यह अक्सर हिन्दी में ही देखने को मिलता है। मुझे लगता है कि इसकी कुछ खास वजहें हैं:
* भारतीय संस्कृति और सड़कें: ट्रक भारतीय परिवहन व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण रीढ़ हैं, और ट्रक ड्राइवरों का जीवन भारतीय संस्कृति और सड़कों से गहराई से जुड़ा हुआ है। उनके अनुभव, उनकी भावनाएं और उनके विचार स्वाभाविक रूप से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में व्यक्त होते हैं।
* सीधा और सरल संवाद: ट्रक साहित्य में अक्सर जीवन की सीधी-सादी बातें, दुःख-सुख और रोज़मर्रा की चुनौतियों का वर्णन होता है। हिन्दी, अपनी व्यापक पहुंच और सरल अभिव्यक्ति के कारण, इन भावनाओं को आसानी से व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम बनती है।
* लोकप्रिय अभिव्यक्ति का माध्यम: ट्रकों के पीछे लिखी हुई शायरी, संदेश और हास्योक्तियाँ लोक कला और लोकप्रिय अभिव्यक्ति का एक अनूठा रूप हैं। यह ड्राइवरों और आम लोगों के बीच एक सहज संवाद स्थापित करता है।
* साहित्यिक मान्यता की कमी: शायद यही कारण है कि मुख्यधारा के साहित्य में इसे उतना महत्व नहीं दिया गया है, और यह ज़्यादातर हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया है।
यह ज़रूर है कि ट्रक साहित्य में जीवन के कई अनछुए पहलू और गहरी बातें छिपी होती हैं। अगर इसे और अधिक लोगों तक पहुँचाया जाए, तो यह एक समृद्ध साहित्यिक विधा के रूप में उभर सकता है। आपके क्या विचार हैं इस बारे में? क्या आपने कभी कोई दिलचस्प ट्रक शायरी या संदेश पढ़ा है?

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