सलिल सृजन अप्रैल १४
*
लघुकथा : कार्य शाला
इन्हें पढ़ें, मन में कोई प्रश्न हो तो पूछें या इन पर अपनी राय दें। 
लघुकथाएँ  
१. झूठी औरत : विष्णु नागर
यह कहनेवाली माँ अभी-अभी अपने पति से झगड़ रही थी, "बिना बच्चों के अकेली कहीं नहीं जाऊँगी।"  ३० शब्द  
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२. 
क़ाज़ी का घर : 
एक गरीब भूखा काज़ी के यहाँ गया, कहने लगा - 'मैं भूखा हूँ, कुछ मुझे दो तो मैं खाऊँ।'
काज़ी ने कहा - "यह काज़ी का घर है - कसम खा और चला जा।"               ३१ शब्द 
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३. 
कहूँ कहानी : रमेश बतरा  
ऐ रफ़ीक़ भाई! सुनो। उत्पादन के सुख से भरपूर नींद की खुमारी लिए जब मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही - "एक लाजा था, वो बौत गलीब है।"  ३१ शब्द 
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४. 
एकलव्य : संजीव वर्मा 'सलिल' 
दूरदर्शन पर नेताओं की बहस चल रही थी। 
'बब्बा जी ! क्या एकलव्य भौंकते हुए कुत्ते का मुँह तीर चलाकर बंद कर देता था?' 
"हाँ बेटा।" 
'काश, वह आज भी होता।' पोते ने कहा।  ३३ शब्द 
*
५. 
आज़ादी : खलील जिब्रान 
वह मुझसे बोले  - "किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत; हो  सकता है वह आज़ादी का सपना देख रहा हो।"
'अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे में बताओ। मैंने कहा।"               ३८  शब्द 
*
६. 
मुँहतोड़ जवाब : भारतेन्दु हरिश्चंद्र 
एक ने कहा - 'न जाने इसमें इतनी बुरी आदतें कहाँ से आईं? हमें यकीन है कि हमसे इसने कोई बुरी बातें नहीं सीखीं।'
लड़का सच से बोल उठा - "बहुत ठीक है क्योंकि हमने आपसे बुरी आदतें पाई होती तो आपमें बहुत सी काम हो जातीं।" ४५ शब्द
गीत
*
आओ! कुछ काम करें 
लोक से जुड़े रहें 
न मीत दूर हों
हाजमोला खा न भूख 
लिखें सू़र हों
रेहड़ीवाले से करें
मोलभाव औ'
बारबालाओं पे लुटा
रुपै क्रूर क्यों?
मेहनत पैगाम करें
नाम से इतर
सार्थक भू धाम करें
वाम से इतर
खेतों में नहीं; जिम में
पसीना बहा रहे
पनहा न पिएँ कोक-
फैंटा; घर में ला रहे
चाट ठेले हँस रहे
रोती है अँगीठी
खेतों को राजमार्ग
निगलते ही जा रहे
जलजीरा पान करें
जाम से इतर
पनघटों का नाम करें
वाम से इतर
शहर में न लाज बिके
किसी गाँव की
क्रूज से रोटी न छिने
किसी नाव की
झोपड़ी उजाड़ दे न
सेठ की हवस
हो सके हत्या न नीम
तले छाँव की
सत्य का सम्मान करें
दाम से इतर
छोड़ खास, आम वरें
वाम से इतर
***
मानवता पर दोहे
*
मानवता के नाम पर, मजलिस बनी कलंक
शहर शहर को चुभ रहा, यह तबलीगी डंक
*
मानवता कह रही है, आज पुकार पुकार
एकाकी रहकर करो, कोरोना पर वार
*
मानवता लड़ रही है, अजब-अनूठी जंग
साधनहीनों की मदद, मानवता का रंग
*
मानवता के घाट पर, बैठे राम-रसूल
एक दूसरे की मदद, करें न लड़ते भूल
*
मानवता के बन गए, तबलीगी गद्दार
रहम न कर सख्ती करे, जेल भेज सरकार
*
मानवता लिख रही है, एक नया अध्याय
कोरोना से जीतकर, बनें ईश पर्याय
*
मानवता को बचाते, डॉक्टर पुलिस शहीद
मिल श्रद्धांजलि दें करें, अर्पित होली ईद
***
मुक्तिका
*
जब बसंत हो, मुदित रहें राधे माधव
सुनें सभी की, कहें कभी राधे माधव
हीरा-लाल सदृश जोड़ी मनबसिया की
नारीभूषण पुरुषोत्तम राधे माधव
अमर स्नेह अमरेंद्र मिले हैं वसुधा पर
अमरावति बृज बना रहे राधे माधव
प्रभा किशोरी की; आलोक कन्हैया का
श्री श्रीधर द्वय मुकुलित मन राधे माधव
नत नारीश पगों में नरपति मुस्काते
अद्भुत मनोविनोद करें राधे माधव
***
विनय
हम भक्तों की पीर हरें राधे माधव
हम निज मन में धीर धरें राधे माधव
तबलीगी मजलिस जमात से दूर रहें
मुस्लिम भाई यही करें राधे माधव
समझदार मिल मुख्य धार में आ जाएँ
समय कहे सद्भाव वरें राधे माधव
बने रहे धर्मांध अगर वे तो तय है
बिन मारे खुद मार मरें राधे माधव 
मरने का मकसद हो पाक जरूरी है
परहित कर मर; क्यों न तरें राधे माधव
लगा अकल पर ताला अल्ला ताला क्यों?
गलती मान खुदी सुधरें राधे माधव
१४-४-२०२०
***
एक गीत 
*
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
इस-उस दल के यदि प्यादे हो
जिस-तिस नेता के वादे हो
पंडे की हो लिए पालकी
या झंडे सिर पर लादे हो 
जाति-धर्म के दीवाने हो
या दल पर हो निज दिल हारे
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
आम आदमी से क्या लेना? 
जी लेगा खा चना-चबेना
तुम अरबों के करो घोटाले
स्वार्थ नदी में नैया खेना 
मंदिर-मस्जिद पर लड़वाकर
क्षेत्रवाद पर लड़ा-भिड़ा रे! 
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
जा विपक्ष में रोको संसद
सत्ता पा बन जाओ अंगद०
भाषा की मर्यादा भूलो
निज हित हेतु तोड़ दो हर हद
जोड़-तोड़ बढ़ाकर भत्ते
बढ़ा टैक्स फिर गला दबा रे! 
दूर रहो नोटा से प्यारे!
१४-४-२०१९
***
समय साक्षी गीत:
तुमने स्वर दे दिया 
*
१. 
तुमने स्वर दे दिया 
चीखें, रोएँ, सिसकी भर ये, 
वे गुर्राते हैं दहाड़कर। 
चिंघाड़े कोई इस बाजू 
फुफकारे कोई गुहारकर। 
हाय रे! अमन-चैन ले लिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
२. 
तुमने स्वर दे दिया 
यह नेता बेहद धाँसू है 
ठठा रहा देकर आँसू है 
हँसता पीड़ित को लताड़कर। 
तृप्त न होता फिर भी दानव 
चाकर पुलिस लुकाती है शव 
जाँच रपट देती सुधारकर।
न हो योगी को दर्द मिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
३. 
तुमने स्वर दे दिया 
वादा कह जुमला बतलाया 
हो विपक्ष यह तनिक न भाया 
रख देंगे सबको उजाड़कर।
सरहद पर सर हद से ज्यादा 
कटें, न नेता-अफसर-सुत पर 
हम बैठे हैं चुप निहारकर।
छप्पन इंची छाती है, न हिया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
४. 
तुमने स्वर दे दिया 
खाला का घर है, घुस आओ 
खूब पलीता यहाँ लगाओ 
जनता को कूटो उभाड़कर।
अरबों-खरबों के घपले कर 
मौज करो जाकर विदेश में 
लड़ चुनाव लें, सच बिसारकर।
तीन-पाँच दो दूनी सदा किया 
तुमने स्वर दे दिया 
*
५ 
तुमने स्वर दे दिया 
तोड़ तानपूरा फेंकेंगे 
तबले पर रोटी सेकेंगे 
संविधान बाँचें प्रहारकर।
सूरत नहीं सुधारेंगे हम 
मूरत तोड़  बिगाड़ेंगे हम 
मार-पीट, रोएँ गुहारकर 
फर्जी हो प्यादे ने शोर किया 
तुमने स्वर दे दिया 
१४.४.२०१८ 
(टीप: जांच एजेंसियाँ ध्यान दें कि इस रचना का भारत से कुछ लेना-देना नहीं है।
***
नवलेखन कार्यशाला 
*
आ गुरूजी
एक प्रयास किया है । कृपया मार्गदर्शन दें । सादर ।
शारदे माँ ( मधुमालती छंद)
माँ शारदे वरदान दो 
सद्बुद्धि दो संग ज्ञान दो 
मन में नहीं अभिमान हों
अच्छे बुरे की पहचान दो ।
वाणी मधुर रसवान दो 
मैं मैं का न गुणगान हों 
बच्चे अभी नादान हम 
निर्मल एक मुस्कान दो
न जाने कि हम कौन हैं 
हमें अपनी पहचान दो 
अल्प ज्ञानी मानो हमें 
बस चरण में तुम स्थान दो ।।
कल्पना भट्ट
*
प्रिय कल्पना!
सदा खुश रहें।
मधुमालती १४-१४ के दो चरण, ७-७ पर यति, पदांत २१२ ।
शारदे माँ ( मधुमालती छंद)
माँ शारदे! वरदान दो 
सदबुद्धि दो, सँग ज्ञान दो 
मन में नहीं अभिमान हो
शुभ-अशुभ की पहचान दो।
वाणी मधुर रसवान दो 
'मैं' का नहीं गुण गान हो  
बच्चे अभी नादान हैं  
निर्मल मधुर मुस्कान दो
किसको पता हम कौन हैं 
अपनी हमें पहचान दो 
हम अल्प ज्ञानी माँ! हमें 
निज चरण में तुम स्थान दो ।।
१४-४-२०१७ 
***
ॐ 
छंद बहर का मूल है: २ 
*
छंद परिचय:
ग्यारह मात्रिक रौद्र जातीय छंद।
सप्तवार्णिक उष्णिक जातीय समानिका छंद।
संरचना: SIS ISI S
सूत्र: रगण जगण गुरु / रजग। 
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं ।
*
सूर्य आप भी बने 
          * 
सत्य को न मारना 
झूठ से न हारना 
गैर को न पूजना 
दीन से न भागना 
बात आत्म की सुनें 
सूर्य आप भी बने 
          * 
काम काम से रखें 
राम-राम भी भजें 
डूब राग-रंग में 
धर्म-कर्म ना तजें                                     
शुभ विचार कर गुनें 
सूर्य आप भी बने 
          * 
देव दैत्य आप हैं 
पुण्य-पाप आप हैं
आप ही बुरे-भले 
आप ही उगे-ढले 
साक्ष्य भाव से जियें 
सूर्य आप भी बने 
१४.४.२०१७ 
       ***
रसानंद दे छंद नर्मदा २५ :                                                                         १४-०४-२०१६  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला,  आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका,  उल्लाला, गीतिका, घनाक्षरी, बरवै,  त्रिभंगी, सरसी,  छप्पय, भुजंगप्रयात तथा   कुण्डलिनी  छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सवैया   छन्द  से.
दोहा, सोरठा, रोला,  आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका,  उल्लाला, गीतिका, घनाक्षरी, बरवै,  त्रिभंगी, सरसी,  छप्पय, भुजंगप्रयात तथा   कुण्डलिनी  छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सवैया   छन्द  से.
सरस सवैया रच पढ़ें 
गण की आवृत्ति सात हों, दो गुरु रहें पदांत।
सरस सवैया नित पढो, 'सलिल' न तनिक रसांत।। 
बाइस से छब्बीस वर्णों के (सामान्य वृत्तो से बड़े और दंडक छंदों से छोटे) छंदों को सवैया कहा जाता है। सवैया वार्णिक छंद हैं। विविध गणों में से किसी एक गण की सात बार आवृत्तियाँ तथा अंत में दो दीर्घ अक्षरों का प्रयोग कर सवैये की रचना की जाती है। यह एक वर्णिक छन्द है। सवैया को वार्णिक मुक्तक अर्थात वर्ण संख्या के आधार पर रचित मुक्तक भी कहा जाता है। इसका कारन यह है की सवैया में गुरु को लघु पढ़ने की छूट है। जानकी नाथ सिंह ने अपने शोध निबन्ध 'द कंट्रीब्युशन ऑफ़ हिंदी पोयेट्स टु प्राजोडी  के चौथे अध्याय में सवैया को वार्णिक सम वृत्त मानने का कारण हिंदी में लय में गाते समय 'गुरु' का 'लघु' की तरह उच्चारण किये जाने की प्रवृत्ति को बताया है। हिंदी में 'ए' के लघु उच्चारण हेतु कोई वर्ण या संकेत चिन्ह नहीं है। रीति काल और भक्ति काल में कवित्त और सवैया बहुत लोकप्रिय रहे हैं. कवितावलि में तुलसी ने इन्हीं दो छंदों का अधिक प्रयोग किया है।  कवित्त की ही तरह सवैया भी लय-आधारित छंद है।
विविध गणों के प्रयोग के आधार पर इस छन्द के कई प्रकार (भेद) हैं। यगण, तगण तथा रगण पर आधारित सवैये की गति धीमी होती है जबकि भगण, जगण तथा सगण पर आधारित सवैया तेज गति युक्त होता है। ले के साथ कथ्य के भावपूर्ण शब्द-चित्र अंकित होते हैं। श्रृंगार तथा भक्ति परक वर्ण में विभव, अनुभव, आलंबन, उद्दीपन, संचारी भाव, नायक-नायिका भेद आदि के शब्द-चित्रण में तुलसी, रसखान, घनानंद, आलम आदि ने भावोद्वेग की उत्तम अभिव्यक्ति के लिए सवैया को ही उपयुक्त पाया। भूषण ने वीर रस के लिए सवैये का प्रयोग किया किन्तु वह अपेक्षाकृत फीका रहा।
प्रकार-
सवैया के मुख्य १४ प्रकार हैं। 
१. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखि, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी सवैया।
मत्तगयंद (मालती) सवैया 
इस वर्णिक छंद के चार चरण होते हैं। हर चरण में सात भगण (S I I) के पश्चात् अंत में दो गुरु (SS) वर्ण होते हैं। 
उदाहरण:
१.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैंसी बनी सिर सुन्दर चोटी। 
खेलत-खात फिरें अँगना, पग पैंजनिया, कटी पीरि कछौटी।। 
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ली गयो माखन-रोटी।।
२.
यौवन रूप त्रिया तन गोधन, भोग विनश्वर है जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में, जिमि मंदर देखत जात बिलाई।। 
देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।
ज्यों मृग को हरि दौड़ दले, वन-रक्षक ताहि न कोई लखाई।।
३.
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ी पीताम्बर लै लकुटी, वन गोधन गजधन संग फिरौंगी।। 
भाव तो याहि कहो रसखान जो, तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ सगण (I I S) और अंत में दो गुरु मिलाकर कुल २५ वर्ण होते हैं.
उदाहरण:
बरसा-बरसा कर प्रेम सुधा, वसुधा न सँवार सकी जिनको।
तरसा-तरसा कर वारि पिता, सु-रसा न सुधार सकी जिनको।।
सविता-कर सी कविता छवि ले, जनता न पुकार सकी जिनको।
नव तार सितार बजा करके, नरता न दुलार सकी जिनको।।
उपजाति सवैया (जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों) तुलसी की देन है। सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में तथा बाद में रसखान व केशवदास ने इसका प्रयोग किया। 
मत्तगयन्द - सुन्दरी
प्रथम पद मत्तगयन्द (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"। तीसरा पद सुन्दरी (७ सगन + १ गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।
मदिरा - दुर्मिल 
तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। पहला मदिरा का पद (७ भगण + एक गुरु) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"। दूसरा दुर्मिल का पद (८ सगण) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।
मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी की उपजातियाँ तुलसी (कवितावली) में तथा केशव (रसिकप्रिया) में सुप्राप्य है।  कवियों ने भाव-चित्रण में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने हेतु ऐसे प्रयोग किये हैं।
आधुनिक कवियों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।
१४-४-२०१६ 
***
एक दोहा 
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार 
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक शुभ उपहार
***
मुक्तक :
आपने आपको साथ में लेकर आपके साथ ही घात किया है 
एक बनेंगे नेक बनेंगे वादा भुला अपराध किया है 
मौक़ा न चूकें, न फिर पायेंगे, काम करें मिल-बाँट सभी जन 
अन्ना के सँग बैठ मिटा मतभेद न क्यों मन एक किया है?
***
हिंदू देवी-देवता : ३३ कोटि (प्रकार) 
१२ आदित्य(धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था, विष्णु)
८ वसु (धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभाष)
११ रूद्र (हर, बहुरूप, त्रयंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शंभु, कपार्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्वा, कपाली)
२ अश्विनी-कुमार
१४.४.२०१५ 
***
मुक्तक सलिला:  
बोल जब भी जबान से निकले,
पान ज्यों पानदान से निकले। 
कान में घोल दे गुलकंद 'सलिल-
ज्यों उजाला विहान से निकले।।
*
जो मिला उससे है संतोष नहीं, 
छोड़ता है कुबेर कोष नहीं। 
नाग पी दूध ज़हर देता है- 
यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।। 
*
बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी, 
गंध में गंध घुल रही न्यारी।
मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-
तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।
* 
आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,
शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।
नेह की भेंट आप लाई हैं-
चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।
*
ये प्रभाकर ही योगराज रहा, 
स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।
ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-
हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।
*  
करी कल्पना सत्य हो रही,
कालिख कपड़े श्वेत धो रही।
कांति न कांता के चहरे पर- 
कलिका पथ में शूल बो रही।।
१८-४-२०१४
***
 
 
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