लेख
नवगीत में सरारात्मकता के पक्षधर डॉ. श्याम निर्मम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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नवगीत के पारंपरिक तत्व
नवगीत साहित्य की वह विधा है जिसमें नवता, गीतात्मकता और छाँदसिकता के निकष पर खरा उतरना ही कसौटी है। विद्या नंदन राजीव के अनुसार- ''हम उस गीत को नवगीत कहेंगे जो परंपरागत भावबोध से अलग, नवीन भावबोध तथा शिल्प द्वारा प्रस्तुत किया गया हो।१ डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा के मत में ''नवगीत और पारंपरिक गीत में एक अंतर उसकी गेयता को लेकर है। नवगीत गाया न जाकर भी गीत है। नवगीत की कथन शैली में ही उसका गीतत्व है।२ नवगीत के पुरोधा, नवगीत दशक १-२-३ के संपादक डॉ. शंभुनाथ सिंह की मान्यता है- ''जितनी आसानी से कोई समकालीन कवि बन सकता है, उतनी आसानी से नवगीतकार नहीं। नवगीत में छंद लिखना जरूरी है, छंद लिखना आसान नहीं है। छंद नहीं होगा तो वह नवगीत होगा ही नहीं।३
नवता कहाँ, कितनी और कैसी? नवता का निकष क्या हो?
डॉ. हरिवंश राय बच्चन मानते हैं ''अपने युग की आवश्यकतानुरूप जब गीत बदलता है तो हम उसे नवगीत कह सकते हैं। .... गीत की कुछ रूढ़ियाँ हो जाती हैं, लीक बन जाती है और कवि उस लीक से नहीं हटते हैं तो पारंपरिक गीतकार कहा जाता है। इनसे हटकर जब कवि आवश्यकताओं के अनुरूप नए काव्य को नए बिंबों और नए प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं तो उसे नवगीतकार कहते हैं। यही पारंपरिक गीत और नवगीत की विभाजक रेखा है।४
गीतात्मकता अनिवार्य है या स्वैच्छिक? इस बिंदु पर विमर्श करते समय यह स्पष्ट होना चाहिए कि गीत होना नवगीत होने की पहली शर्त है। यह भी कि हर नवगीत मूलत: गीत होता है जबकि हर गीत नवगीत नहीं होता।
छाँदसिकता के सिलसिले में निराला की अभिव्यक्ति 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' को मानक मानें तो क्या हर बार नवगीत में नया छंद लाना होगा? क्या किसी नवगीत में शेष सभी तत्व होते हुए भी उसे केवल इसीलिए अमान्य किया जाएगा कि उसमें पारंपरिक छंद है? क्या एक से अधिक पारंपरिक छंदों का मिश्रण नया छंद मान्य होगा? ख्यात नवगीतकार श्याम निर्मम नवगीत में छंद की अपरिहार्यता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
छंदहीन दग्ध अग्नि-लपटों से / झुलसा गीतों का छायानट,
छंदों का एक बीज तुझको भी बोन है / लेकिन तू बेखबर
उक्त के अतिरिक्त नवगीत में समय की भी भूमिका है। किसी नवगीत की नवता समय सापेक्ष है या सनातन? क्या ७-८ दशक पहले रचे गए नवगीत आज भी नवगीत हैं? क्या नव नवगीतों को आदर्श मानकर आज लिखा गया नवगीत नवता के निकष पर खरा होगा। रचनाकार के नजरिए से नवता वह है जो उसने पहले नहीं किया/लिखा। समीक्षक की दृष्टि में नवता वह है जो किसी भी अन्य रचना में पहले व्यक्त न हुई हो।
नवगीत में सकारात्मकता और नकारात्मकता तथा नवगीत से समाज में सकारात्मकता और नकारात्मकता का निकष समाज शास्त्रियों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। साहित्य समाज का दर्पण नहीं हो सकता, दर्पण वस्तु को ज्यों का त्यों किंतु दाहिने को वाम और वाम को दाहिना दिखाता है। साहित्य था, है और होगा/होना चाहिए तीनों का समावेश करता है।
उक्त विमर्श का आशय यह है कि नवगीत संबंधी सभी और प्रत्येक मान्यता पर मत-मतांतर थे, हैं और रहेंगे। हिंदी नवगीत के कालजयी हस्ताक्षरों में से एक डॉ. श्याम निर्मम की एक मात्र कृति 'हाशिये पर हम' पर चर्चा उक्त बिंदुओं के प्रकाश में आवश्यक इसलिए भी है कि असीम शुक्ल के अनुसार ''श्याम ने गीत नहीं रचे वरन गीतों ने श्याम को रचा है।'' अपनी बात को स्पष्ट करते हुए असीम कहते हैं- 'जब कोई रचनाकार अपने आत्म रूप में रचनाधर्मी होता है, तब निश्चित ही कहा जा सकता है कि रचना रचनाकार नहीं रचता वरन रचना रचनाकार को रचती है।' चेतना अगणित वीथियों से होकर गुजरती है। सभी वीथियों में चाहे वे कैसी हों श्याम की रचनाएँ हर मोड़ पर प्रासंगिक प्रतीत होती हैं।''५
नवगीतकार श्याम निर्मम पारंपरिक गीत और कविता के पथ पर पग रखते हुए नवगीत की रह पर मुड़े। उनके गीतों/नवगीतों का वैशिष्ट्य लोक के लिए सहज ग्राह्य बोधात्मकता व रागात्मकता है। प्रगतिशील कविता प्रणीत नव बिंब बोध और महानगरीय संवेदनात्मक संत्रास को श्याम ने ग्राम्य सहजता और सरसता में लोकभाषिक टटकापन सम्मिश्रित कर श्याम ने नवगीतों को नवाकर्षण प्रदान किया। श्याम ने महानगरीय जीवन शैली के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव को अनुभव कर नवगीतीय संवेदना द्वारा उपचारित करने की प्रभावी कोशिश की। इस कोशिश की कशिश श्याम के नवगीतों को औरों से भिन्न बनाती है।
श्याम अपने कथ्य को किसी आवरण में छिपाते नहीं। वे पूरी साफ गोई के साथ कहते हैं-
स्वर्णिम भविष्य को ये / दीमक सा चाट रहे
इनके विष बुझे शस्त्र / अपनों को काट रहे
अंधी आँखों को ये / दिखलाते हैं सपने
हैं इनके हाथों में / सुरमई सलाइयाँ
सत्य उद्घाटित करने पर शिव हों, सुकरात या मीरा विषपान ही नियति रही है। श्याम यह जानते हुए भी उसे पथ को अंगीकार कर कहते हैं-
शिव तो करते आए / आचमन जहर का,
ये गरल-पुरुष पीते / हर्ष हर प्रहर का
कागा के वंशज पर हँस से सलोने।
ताड़ से हुए ऊँचे / पीते हैं ताड़ी
दु:शासन बन खींचें / द्रुपदा की साड़ी
दुर्योधन तात हुए / कृष्ण हुए छौने
पौराणिक चरित्रों को उनकी मिथकीय विशेषताओं के साथ श्याम के नवगीत इस तरह बिम्बित करते हैं कि अन्य किसी अन्य के लिए वैसे अभिव्यक्त करना संभव नहीं होता। 'द्रौपदी' के लिए 'द्रुपदा' शब्द उनका अपना मौलिक प्रयोग है।
धृतराष्ट्र और गांधारी नवगीतकारों के प्रिय पात्र हैं। श्याम इन दोनों पात्रों के माध्यम से युगीन वैषम्य को उद्घाटित करते हुए सामाजिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हैं-
राह के पत्थर हुए / संबंध अपने
हो गई है जिंदगी / अभिशप्त गांधारी
साथ में- / धृतराष्ट्र स यह मौन
फिर अंधे सफर की / एक तैयारी
सामान्यत: यह भ्रामक धारणा प्रचलित है की नवगीतों मे प्रेम, शृंगार आदि वर्जित है। स्व. उमाकांत मालवीय ने नवगीतों में रूमानियत की पैरवी ही नहीं की उसे आवश्यक भी बताया।५ नवगीत के शिखर हस्ताक्षर स्व. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इससे सहमत होते हुए भी उसे अपवाद रूप में इस शर्त के साथ स्वीकारते हैं कि वह ललित, मानव संवेगोच्छित तो हो किंतु उसमें लिजलिजी भावुकता न आए पाए।६ इसके बाद भी पश्चातवर्ती नवगीतकार प्राय: 'रोमान' को नवगीत के लिए अस्पृश्य ही मानते रहे हैं। श्याम ने अपने समय के अन्य नवगीतकारों से भिन्न नीति अपनाते हुए अपने नवगीतों को यथावश्यक रोमानियत से अलंकृत करने में संकोच नहीं किया। यह रोमानियत पारिवारिक संबंधों में आवृत्त होकर ग्रंथारंभ में अभिव्यक्त हुई है। रचनाकार ने कृति अपने जीवन में रोमांस को पूर्णता देनेवाली अपनी जीवन संगिनी को समर्पित की है। प्रथम गीत 'माँ' में कवि कहता है-
माँ का आँचल / हर सुख-दुख में / साया होता है
गहरे घावों पर / मरहम का / फाहा होता है
संकट के क्षण / याद करे जो / 'हरि' ही धाये हैं
सुख देने को / दुख के क्षण भी / माँ ने गाये है।
अगले गीत में 'पिता' को सुमिरते हुए कवि सपने देखता है-
'पिता' तुम- / वृक्ष छायादार
धूप से हमको बचाकर सह रहे खुद भार।
गोद... / डाली की तरह / झूला झुलाती है,
और सुनी आँख भी सपने दिखाती है।
नवगीत में धर्म और धार्मिक आस्था को श्याम निर्मम ने वर्ज्य नहीं माना। वे नवगीत में अपनी आस्था और विरासत दोनों का समयक सम्मिश्रण करते हुए लिखते हैं-
मन-अयोध्या / और तन काशी हुआ,
कौन जाने / कौन सा पल राम हो जाये।
साँस में / भरने लगी है / बाँसुरी की तान,
सब दिशाएँ / गा रही हैं / गूँजते हैं गान।
आरती सजने लगी / दीपक बले हैं,
कौन जाने / कौन सा पल / 'शाम' हो जाये।
एक खुशबू / चंदनी- / बहने लगी भीतर
देह को / पर लग गये- / ऊँचा उड़ा जी भर।
यह सफर ही सत्य-शिव-सुंदर हुआ,
कौन जाने / कौन सा पल / 'धाम' हो जाये।
श्याम ने अपने नवगीतों में पुरुषार्थ और कर्म को समुचित महत्व दिया है। वे केवल विसंगतियों का महिमा मंडन नहीं करते अपितु 'प्यार के नाम अपनी भी सौगात हो', 'मैं सफर के बाद / मंजिल खोजता हूँ' जैसी अभिव्यक्तियों के माध्यम से नवगीत में आशावादिता का अंकुर रोपते हैं। एक उदाहरण देखें-
जब अकेला / मैं नदी तट पर / अकेला बैठता हूँ
तब नदी के बोल / मन में फूटते हैं।
भूल कर सब / तैरता हूँ / मैं लहर के साथ में
भीड़ में छूटा अचानक / हाथ जैसे / आ गया हो हाथ में।
श्याम के नवगीतों में 'पौरुष' को प्रतिष्ठित और पारंपरिक जीवन मूल्यों की जयकार होते हुए देखना एक और सुखद अनुभूति है। आज के नवगीतकारों को यह समझना होगा कि साम्यवादी वर्ग वैषम्य और संघर्ष की वैचारिक कारा में बंदी तथा नवगीत को 'रुदाली' (शोकगीत) बनाने के लिए प्रतिबद्ध कलमों ने नवगीत ही नहीं हिंदी का भी अहित ही किया है। गत ७ दशकों के हिंदी साहित्य में जिजीविषा और आस्था के स्वर दिन-ब-दिन घटते-घटते मिटने की स्थिति में आ गए हैं। साहित्य समाज का प्रेरणा स्रोत भी होता है। उपन्यास, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, नवगीत, गजल आदि विधाओं में सामाजिक टकराव, बिखराव, वैषम्य और नैराश्य के वर्चस्व ने साहित्य के माध्यम से समाज में अनास्था, अविश्वास, असहयोग और हताशा के वन बो दिए हैं। फलत:, सामाजिक समरसता और संबंध मरने की कगार पर हैं। मनुष्य अपने साये से भी डरने लगा है। श्याम को संभवत: इस विषम स्थिति का पूर्वाभास हो गया था इसलिए उन्होंने अपने नवगीतों में सत्य-शिव-सुंदर को विशेष स्थान दिया-
सत्य जिनकी चेतना में है / झूठ उनके पाँव पढ़ता है।
कुछ खरोंचे वक्ष पर सहकर / वह नया इतिहास गढ़ता है।
और
सामने छल के न झुकता जो / टेकता घुटने नहीं अपने,
वह विजय के द्वार तक जाकर / देखता साकार सब सपने।
रोशनी उसको सदा मिलती / जो अँधेरे घूँट जाता है।
'सूरज के वंशधर हैं' शीर्षक नवगीत में श्याम निर्मम की कलम एक और भाव-भंगिमा को निखारती है-
हम भोर के सिपाही / रक्षक हैं रोशनी के
सूरज के वंशधर हैं / अभिमान जिंदगी के ।
नयनों में आ बसी है / एक मृग-दृगी प्रतीक्षा,
संघर्ष से ही गुजरे / देते रहे परीक्षा
हम धूप के सगे हैं / पर काल कालिमा के
किरणों के रहनुमा हैं / अरमान ज़िंदगी के।
श्याम के नवगीतों का आस्थावादी स्वर यहीं नहीं थमता। वह समाज विशेषकर साहित्यकारों को चेताते हुए कहता है- 'बह न जाएँ प्यार की / जर्जर पुरानी कश्तियाँ'। किसी समाज में निरमान न हो और विनाश होता रहे तो भविष्य का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। श्याम निर्ममता के साथ नकारात्मकता फैला रहे लेखन और उसके लेखकों को दुष्परिणामों के प्रति इंगितों में सचेत करते हैं-
एक हँसती भोर / देती कहकहा
और ढलती साँझ / पढ़ती मर्सिया
लग रहा बनती नहीं / बस मिट रही हैं हस्तियाँ
लोकप्रिय जननेता और कवि स्व. अटल बिहारी बाजपेई ने लांछित करने की दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध चेताते हुए कहा था कि मूल्यों और आदर्शों को नष्ट करना आसान है किंतु उन्हें स्थापित करना बहुत कठिन है। विडंबना है कि यह कुप्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और उजाले की अन्त्येष्टि कर अँधियारे की फसल उगाने का काम साहित्यकार भी कर रहा है। बकौल श्याम- 'ढो रहे कंधे कलश / रखकर स्वयं की अस्थियाँ'।
श्याम निर्मम पत्रकार भी रह चुके थे इसलिए उन्हें समाज के सच की जानकारी और उसकी कुरूप भयवाहता का बहाली-भाँति अहसास था। भाषा पर अच्छी पकड़ और शब्दों के सटीक प्रयोग में श्याम निष्णात थे। शब्दों के निहितार्थ, भावार्थ और व्यंजनार्थ श्याम के नवगीतों की मारक क्षमता में वृद्धि करते हैं-
जन्म नहीं लेते जो / ऐसे ये महापुरुष
इनका प्रागट्य हुआ / दीजिए बधाइयाँ।
कीचड़ से कमलों का / जो अटूट नाता है,
इनके भी जीवन का / वही बही-खाता है।
नीलकंठ विष पीते/ ये भी तो पीते हैं,
पचा गए सब कुछ ही / चाटते मलाइयाँ।'
श्याम के ऐसे तेवर हिंदी के कालजयी गजलकार दुष्यंत कुमार की याद दिलाते है जिन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान की नाराजगी की परवाह किए बिना कहा था-
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।
श्याम के गीतों का आलंकारिक वैभव पाठक को मुग्ध करता है। यमक- अपशकुन हो गए सब शकुनी, रूपक- राह के पत्थर हुए संबंध अपने, उपमा- दूर कुहरे में धँसी / मस्तूल सी ज्योतिर्वलय की पालकी जैसी अनगिनत पंक्तियाँ श्याम के गीतों में नग की तरह जड़ी हैं।
ग्रामीण जनों के घर से दूर आजीविका के लिए जाने पर उनकी अल्प शिक्षित पत्नियाँ बड़े-बूढ़ों से छिपाकर बमुश्किल प्राप्त किए पोस्ट कार्ड पर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी व्यथा-कथा इंगित करती रही हैं। कम लिखकर अधिक कहने की यह कला श्याम के गीतों में सर्वत्र अंतर्निहित है। धधकती रेत, बादलों की चादरें, समय बहुरूपिए, आब के अक्स, मदन गंधा हुईं साँसें, देह पथरीली, मूक क्षण अविराम, आँसुओं का ज्वार, जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के लिए कम शब्दों में व्यापक और गहन अनुभूति संप्रेषित कर सोचने के लिए विस्तृत आयाम छोड़ देता है।
श्याम निर्मम ने तमाम सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित करने, उन पर प्रहार करने, आस्था और विश्वास को जिलाए रखने, कोशिश और परिश्रम की जयकार करने के साथ-साथ अपने नवगीतों में नवपीढ़ी का आह्वान भी किया है कि वह नव संकल्पों को पूर्ण करे, तिमिर के खिलाफ रणभेरी फूँककर पूरी सामर्थ्य के साथ संघर्ष करे और नव निर्माण का सूरज उगाकर सुनहरी भोर करे। श्याम के नवगीत पर्यावरणीय चेताने जगाने में भी सफल हुए हैं-
पक्षियों से / चहचहाते पल बुला / आवाज तो दे,
दुधमुहाँ आँगन / महक जाए जरा / अँगड़ाइयाँ ले।
रह सके तू ,रह हमेशा / गंध झरते / हरसिंगारों सा।
टाक थे जो / शुष्क मरुथल हो गए / तू तरल कर दे,
चूक गए संवाद / उनमें गुनगुनी सी / धूप भर दे
नवगीतीय नश्तर से सामाजिक विद्रूपताओं के फोड़े को चीरने-मिटाने का कार्य श्याम निर्मम ने पूरी ईमानदारी के साथ किया है। उन्हें नवगीतों में सामाजिक चेतना का संवाहक स्वीकारा जाना चाहिए। वे नवपीढ़ी को राह दिखाते हुए लिखते हैं-
अंधकार / डूबे कोनों में / तू प्रकाश भर आ।
सभी को ज्योति पंथ दिखला।
'सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:' का वैदिक आदर्श और संवैधानिक लक्ष्य श्याम की उक्त पंक्तियों में दृष्टव्य है। उगते सवेरे के माध्यम से श्याम नवगीतों ही नहीं हर साहित्यिक विधा में आशावाद और विकास क जयघोष करते हुए सकल साहित्यिक समाज का पथ प्रदर्शन करते हैं-
एक चिड़िया / फड़फड़ाती / बारजे की खिड़कियों पर।
भोर की पहली किरन / अठखेलियाँ करती
मुँडेरों से उतरती / अनछुई सी धूप
धीरे, बहुत धीरे / आँगनों के बीच / डगमग पयानक धरती।
रोज उगता है / सवेरा- / बारजे की खिड़कियों पर।
यह आस्था वादी जीवन-दर्शन गीत-दर-गीत नए नए प्रसंगों में सामने आता है-
जीवन है- / रेत औ' धुएँ सा / लगता है - / कभी-कभी कुएँ सा।
दुख आए / दुख दिए, चले गए / छाप गए भाल पर उदासी
रोम-रोम बिंधा / अंधकार से / टूटेंगे जाल सब कुहासी।
सारत:, श्याम निर्मम का यक एकमात्र नवगीत संग्रह, नवगीत का पुरोधा कहे जा रहे विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध मठाधीशों के दर्जनों नवगीत संग्रहों पर भारी है। 'हाशिये पर हम' के नवगीत वस्तुत: गीत-मंत्र की तरह है जो सूक्ष्म में विराट की उपस्थिति से संप्राणित हैं। इन नवगीतों से वर्तमान नवगीतकारों को प्रकाशस्तंभ का काम लेकर नवगीत ही नहीं सभी साहित्यिक सृजन विधाओं में सनतानता के बीज बोने, अंकुर रोपने आउए फसल सीकहने का काम लेना चाहिए।
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संदर्भ: १. राजस्थान पत्रिका, कविता का एक जीवंत रूप : नवगीत १७ जून २००१, २. स्वातंत्रयोत्तर राजस्थान का हिन्दी इतिहास सं. राजेन्द्र शर्मा पृष्ठ ४३, ३-४. मधुमती मार्च १९९१ पृष्ठ ७, ५. सुबह रक्त पलाश की तथा एक चाँवल नेह रीधा की भूमिकाएँ, ६. हाशिये पर हम आरंभिक लेख.
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संपर्क: सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल salil.sanjiv@gmil.com
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