सलिल सृजन मई १५
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लघुकथा:
प्यार ही प्यार
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'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
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ॐ
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
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छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
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सारस / छंद
संजीव
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छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
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एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
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'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
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अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
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तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
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तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
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तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
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पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
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बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
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तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
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'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
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