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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

दोहा, द्विपदी, मुक्तक

दोहा सलिला 
सबखों कुरसी चाइए,बिन कुरसी जग सून.
राजनीति खा रई रे, आदर्सन खें भून.
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करें वंदना शब्द की ले अक्षर के हार 
सलिल-नाद सम छंद हो, जैसे मंत्रोच्चार
*
पौधों, पत्तों, फूल को, निगल गया इंसान
मैं तितली निज पीर का, कैसे करूँ बखान?
*
मन में का? के से कहें? सुन हँस लैहें लोग.
मन की मन में ही धरी नदी-नाव संजोग.
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लोकतंत्र का हो रहा, भरी दुपहरी खून.
सद्भावों का निगलते, नेता भर्ता भून.
*
द्विपदी,  
जितने भी दाना हैं, स्वार्थ घिरे बैठे हैं 
नादां ही बेहतर जो, अहं से न ऐंठे हैं.
*
मुक्तक 
शिखर पर रहो सूर्य जैसे सदा तुम
हटा दो तिमिर, रौशनी दो जरा तुम
खुशी हो या गम देन है उस पिता की
जिसे चाहते हम, जिसे पूजते तुम
*




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