दोहा सलिला
सबखों कुरसी चाइए,बिन कुरसी जग सून.
राजनीति खा रई रे, आदर्सन खें भून.
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करें वंदना शब्द की ले अक्षर के हार
सलिल-नाद सम छंद हो, जैसे मंत्रोच्चार
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पौधों, पत्तों, फूल को, निगल गया इंसान
मैं तितली निज पीर का, कैसे करूँ बखान?
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मन में का? के से कहें? सुन हँस लैहें लोग.
मन की मन में ही धरी नदी-नाव संजोग.
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लोकतंत्र का हो रहा, भरी दुपहरी खून.
सद्भावों का निगलते, नेता भर्ता भून.
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द्विपदी,
जितने भी दाना हैं, स्वार्थ घिरे बैठे हैं
नादां ही बेहतर जो, अहं से न ऐंठे हैं.
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मुक्तक
शिखर पर रहो सूर्य जैसे सदा तुम
हटा दो तिमिर, रौशनी दो जरा तुम
खुशी हो या गम देन है उस पिता की
जिसे चाहते हम, जिसे पूजते तुम
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