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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

नवगीत

नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की 
बहता है पानी 
विद्रोहों का बीज 
उठाता शीश, न झुकता 
तंत्र शिला सा निठुर 
लगे जब निष्ठुर चुकता 
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी 
जन-पीड़ा बन रोष 
दिशाओं को भी तब 
दहला देती है
*

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