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शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

लेख : राजस्थानी पर्व : संस्कृति और साहित्य - बुलाकी शर्मा

लेख :
राजस्थानी पर्व : संस्कृति और साहित्य
- बुलाकी शर्मा
*
लेखक परिचय 
जन्म - १ मई, १९५७, बीकानेर ।
राजस्थानी और हिंदी में चार दशकों से अधिक समय से लेखन । ३० के लगभग पुस्तकें प्रकाशित ।
व्यंग्यकार, कहानीकार, स्तम्भलेखक के रूप में खास पहचान । दैनिक भास्कर, बीकानेर सहित कई समाचार पत्रों में  वर्षों से साप्ताहिक व्यंग्य स्तम्भ लेखन ।
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से राजस्थानी कहानी संग्रह - ' मरदजात अर दूजी कहानियां '
को सर्वोच्च राजस्थानी साहित्य पुरस्कार, २०१८। 
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर का शिवचंद्र भरतिया गद्य पुरस्कार राजस्थानी कहानी संग्रह ' हिलोरो ' पर, वर्ष १९९६, राजस्थान साहित्य अकादमी से कन्हैया लाल सहल पुरस्कार हिंदी व्यंग्य संग्रह 'दुर्घटना के इर्दगिर्द ' पर, १९९९।  
अनेकानेक मान- सम्मान- पुरस्कार।  
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हिंदी के सुपरिचित विद्वान आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के द्वारा संचालित विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर लंबे समय से हिंदी भाषा और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए सराहनीय कार्य कर रही है। इस कार्य में सभी लोगों को जोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने ' हिंदी भाषा और बोलियां ' व्हाट्सएप समूह भी शुरू कर रखा है। इस समय इस समूह के माध्यम से अलग-अलग भाषाओं और बोलियों के पर्व मनाए जा रहे हैं। पहले बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी और छत्तीसगढ़ी भाषा और बोलियों के पर्व मनाए गए और अब ५ अक्टूबर से ' राजस्थानी पर्व ' का शुभारंभ हुआ है जो २  सप्ताह तक चलेगा। इसके अंतर्गत राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति, साहित्य के साथ-साथ यहां के चित्रकला, भित्ति चित्रों सहित अनेक कला रूपों आदि के बारे में भी सहभागी साहित्यकार साथी जानकारी देंगे। इस २  सप्ताह के राजस्थानी पर्व के माध्यम से राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के बारे में हम सभी अपने विचार साझा करेंगे और इन विचारों के माध्यम से अन्य भाषा क्षेत्रों के लोग भी हमारी राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति से पहले से ज्यादा परिचित हो सकेंगे, इसके लिए मैं आचार्य सलिल जी और उन की सक्रिय और समर्पित टीम में शामिल सुषमा सिंह जी, वीना सिंह जी सहित सभी का आभार प्रदर्शित करता हूं ।

राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकारता 

आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी के निर्देश पर सुषमा सिंह जी ने मुझे ' राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकार्यता ' पर अपने विचार साझा करने का आग्रह किया, इसके लिए उनका साधुवाद । हमारी मातृभाषा राजस्थानी बहुत प्राचीन भाषा है ।इसकी एक समृद्ध और सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा रही है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व रहा है । राजस्थानी भाषा के अंकुर अपभ्रंश की कोख से आठवीं शताब्दी के अंदर दिखने लगे थे, जिसका प्रभाव उस समय के जैन कवि उद्योतन सूरि की रचना ' कवलय माला कहा ' में दृष्टिगत होता है । २ लाख से भी अधिक राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियां हैं, जो गुजरात और मध्य प्रदेश की शोध संस्थाओं, प्रतिष्ठानों, म्यूजियमों, निजी पोथी खानों इत्यादि में पड़ी हैं । १५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी के बीच की अनेक प्रसिद्ध पांडुलिपियां सरकारी प्रयासों से प्रकाशित हुई हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान की कई रियासतों और ठिकानों में सरकारी कामकाज की भाषा राजस्थानी ही थी । इसका प्रमाण राजकीय अभिलेखागार और जिला अभिलेखागार के अंदर सुरक्षित पट्टा पोली, फरमान, रुक्का, परवाना आदि दस्तावेज हैं । बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर सहित अनेक रियासतों और ठिकानों में राजस्थानी भाषा में ही कामकाज होता था। इससे स्पष्ट है कि राजस्थानी भाषा आरंभ से ही ग्राह्य और स्वीकार्य थी किंतु आजादी के पश्चात इसको संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाने से वह आज तक अपने वाजिब अधिकार के लिए संघर्षरत है । आज भी राजस्थानी भाषा करोड़ों कण्ठों में बसी है । राजस्थानी का वाशिंदा देश- विदेश के किसी भी कोने में रहता हो, वह अपनी मातृभाषा राजस्थानी में ही अपनों के बीच संवाद करता रहा है । हम राजस्थानी भाषियों को यह दर्द सालता रहता है कि इतनी समृद्ध और सम्पन्न राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता अब तक नहीं मिल पायी है किंतु यह सच्चाई है कि यह राजस्थान के जन-जन की भाषा है । यहां के जन नेता भी इस सच को स्वीकारते रहे हैं। चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से सम्बद्ध हों । जब भी वे वोटों के लिए आमजन से संवाद करते हैं, जब सार्वजनिक सभाएं करते हैं, तब अपनी बात राजस्थानी भाषा में ही करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि राजस्थानी में बात किए बिना उनकी बात का असर नहीं पड़ेगा। 

हमारी राजस्थानी भाषा और साहित्य की सामर्थ्य का गुणगान विश्वकवि रविंद्र नाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय, विदेशी विद्वान डॉक्टर ग्रियर्सन, डॉक्टर एल पी टेसीटोरी, मैकलिस्टर, भारतीय भाषाविद सुनीति कुमार चातुरज्या सहित अनेकानेक विभूतियों ने किया है ।साहित्य अकादमी नई दिल्ली वर्षों से अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राजस्थानी भाषाओं की पुस्तकों को भी प्रतिवर्ष पुरस्कृत करती रही है । राजस्थान में राज्य सरकार ने स्वायत्तशासी राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का गठन वर्षों पहले किया था । राजस्थानी भाषा की सामर्थ्य पूरा विश्व मानता है और इस की ग्राह्यता और स्वीकार्यता में किसी को कोई संदेह नहीं है किंतु एक चिंता सब को परेशान किए है । वह चाहे राजस्थानी भाषा हो या हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाएँ, हम शनै: शनै: अपनी मातृ भाषाओं और संस्कृति से कटते जा रहे हैं । बच्चों के भविष्य बनाने के सपनों में उलझे हम उन्हें अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढ़ाने को प्राथमिकता देने लगे हैं और चाहते हैं कि बच्चे घर में भी अंग्रेजी में ही हमसे बात करे । मैं सभी भाषाओं का पूरा सम्मान करता हूँ क्योंकि भाषाएं हमें एक-दूसरे को जोड़ने का पुल हैं। हमें अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए किन्तु अपनी भाषा और संस्कृति को अपनी जन्मदात्री माँ की तरह सर्वोच्च आदर और सम्मान देना कभी नहीं भूलें । 

- संपर्क : सीताराम द्वार के सामने, जस्सूसर गेट के बाहर, बीकानेर -334004 राजस्थान
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हिंदी के सुपरिचित विद्वान आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के द्वारा संचालित विश्व वाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर लंबे समय से हिंदी भाषा और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए सराहनीय कार्य कर रही है। इस कार्य में सभी लोगों को जोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने ' हिंदी भाषा और बोलियां ' व्हाट्सएप समूह भी शुरू कर रखा है। इस समय इस समूह के माध्यम से अलग-अलग भाषाओं और बोलियों के पर्व मनाए जा रहे हैं। पहले बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी और छत्तीसगढ़ी भाषा और बोलियों के पर्व मनाए गए और अब ५ अक्टूबर से ' राजस्थानी पर्व ' का शुभारंभ हुआ है जो २  सप्ताह तक चलेगा। इसके अंतर्गत राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति, साहित्य के साथ-साथ यहां के चित्रकला, भित्ति चित्रों सहित अनेक कला रूपों आदि के बारे में भी सहभागी साहित्यकार साथी जानकारी देंगे। इस २  सप्ताह के राजस्थानी पर्व के माध्यम से राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के बारे में हम सभी अपने विचार साझा करेंगे और इन विचारों के माध्यम से अन्य भाषा क्षेत्रों के लोग भी हमारी राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति से पहले से ज्यादा परिचित हो सकेंगे, इसके लिए मैं आचार्य सलिल जी और उन की सक्रिय और समर्पित टीम में शामिल सुषमा सिंह जी, वीना सिंह जी सहित सभी का आभार प्रदर्शित करता हूं ।

राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकारता 

आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी के निर्देश पर सुषमा सिंह जी ने मुझे ' राजस्थानी भाषा की ग्राह्यता और स्वीकार्यता ' पर अपने विचार साझा करने का आग्रह किया, इसके लिए उनका साधुवाद । हमारी मातृभाषा राजस्थानी बहुत प्राचीन भाषा है ।इसकी एक समृद्ध और सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा रही है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व रहा है । राजस्थानी भाषा के अंकुर अपभ्रंश की कोख से आठवीं शताब्दी के अंदर दिखने लगे थे, जिसका प्रभाव उस समय के जैन कवि उद्योतन सूरि की रचना ' कवलय माला कहा ' में दृष्टिगत होता है । २ लाख से भी अधिक राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियां हैं, जो गुजरात और मध्य प्रदेश की शोध संस्थाओं, प्रतिष्ठानों, म्यूजियमों, निजी पोथी खानों इत्यादि में पड़ी हैं । १५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी के बीच की अनेक प्रसिद्ध पांडुलिपियां सरकारी प्रयासों से प्रकाशित हुई हैं ।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान की कई रियासतों और ठिकानों में सरकारी कामकाज की भाषा राजस्थानी ही थी । इसका प्रमाण राजकीय अभिलेखागार और जिला अभिलेखागार के अंदर सुरक्षित पट्टा पोली, फरमान, रुक्का, परवाना आदि दस्तावेज हैं । बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर सहित अनेक रियासतों और ठिकानों में राजस्थानी भाषा में ही कामकाज होता था। इससे स्पष्ट है कि राजस्थानी भाषा आरंभ से ही ग्राह्य और स्वीकार्य थी किंतु आजादी के पश्चात इसको संवैधानिक मान्यता नहीं मिल पाने से वह आज तक अपने वाजिब अधिकार के लिए संघर्षरत है । आज भी राजस्थानी भाषा करोड़ों कण्ठों में बसी है । राजस्थानी का वाशिंदा देश- विदेश के किसी भी कोने में रहता हो, वह अपनी मातृभाषा राजस्थानी में ही अपनों के बीच संवाद करता रहा है । हम राजस्थानी भाषियों को यह दर्द सालता रहता है कि इतनी समृद्ध और सम्पन्न राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता अब तक नहीं मिल पायी है किंतु यह सच्चाई है कि यह राजस्थान के जन-जन की भाषा है । यहां के जन नेता भी इस सच को स्वीकारते रहे हैं। चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से सम्बद्ध हों । जब भी वे वोटों के लिए आमजन से संवाद करते हैं, जब सार्वजनिक सभाएं करते हैं, तब अपनी बात राजस्थानी भाषा में ही करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि राजस्थानी में बात किए बिना उनकी बात का असर नहीं पड़ेगा। 

हमारी राजस्थानी भाषा और साहित्य की सामर्थ्य का गुणगान विश्वकवि रविंद्र नाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय, विदेशी विद्वान डॉक्टर ग्रियर्सन, डॉक्टर एल पी टेसीटोरी, मैकलिस्टर, भारतीय भाषाविद सुनीति कुमार चातुरज्या सहित अनेकानेक विभूतियों ने किया है ।साहित्य अकादमी नई दिल्ली वर्षों से अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राजस्थानी भाषाओं की पुस्तकों को भी प्रतिवर्ष पुरस्कृत करती रही है । राजस्थान में राज्य सरकार ने स्वायत्तशासी राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का गठन वर्षों पहले किया था । राजस्थानी भाषा की सामर्थ्य पूरा विश्व मानता है और इस की ग्राह्यता और स्वीकार्यता में किसी को कोई संदेह नहीं है किंतु एक चिंता सब को परेशान किए है । वह चाहे राजस्थानी भाषा हो या हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाएँ, हम शनै: शनै: अपनी मातृ भाषाओं और संस्कृति से कटते जा रहे हैं । बच्चों के भविष्य बनाने के सपनों में उलझे हम उन्हें अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढ़ाने को प्राथमिकता देने लगे हैं और चाहते हैं कि बच्चे घर में भी अंग्रेजी में ही हमसे बात करे । मैं सभी भाषाओं का पूरा सम्मान करता हूँ क्योंकि भाषाएं हमें एक-दूसरे को जोड़ने का पुल हैं। हमें अंग्रेजी सहित अन्य विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए किन्तु अपनी भाषा और संस्कृति को अपनी जन्मदात्री माँ की तरह सर्वोच्च आदर और सम्मान देना कभी नहीं भूलें । 

- संपर्क : सीताराम द्वार के सामने, जस्सूसर गेट के बाहर, बीकानेर -334004 राजस्थान
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