इं. आर. पी. खरे की कालजयी रचना
कुछ दिन पूर्व एक मित्र ने तवा बाँध के स्पिलवे से निकलने वाले प्रवाह का
मनोरम दृश्य पोस्ट किया था ।मुझे सुखद अनुभूति हुई क्योंकि निर्माण काल
में मैं इस परियोजना मे पदस्थ था ।  
तवा बाँध पर स्वप्न
———————————-
(यह कविता १९७० मे लिखी गई थी जब नर्मदा की सहायक नदी तवा पर बाँध
निर्माणाधीन था। एक और नदी देनवा का इसमें ज़िक्र है जो तवा में यहीं आकर मिलती है)
रात का दूसरा पहर
चाँदनी प्रगल्भ हुई
ऊपर उठा चाँद 
फैल गया सम्मोहक
श्लथ सा आह्लाद ।
प्रेक्षामंडप में खड़ा इंजीनियर
बन गया कवि 
तवा बनी तरुणी
देनवा से गलबहियाँ डालती
इठलाती बल खाती
काफर डैम की छेड़छाड से 
बचती कतराती 
शरमाती बह गई ।
फैल गया घाटी में रूप का प्रभाजाल
यौवन की पहिली पहिचान सी
मोहनी समाई सी रह गई ।
देखता रहा कवि-
तवा अभी वन्या है
किसी पुरुष की बाँहों मे नहीं बंधी 
अभी भी चंचला कुमारिका गिरिकन्या है
सतत प्रवाहमयी 
खोजती है राह
बाट जोहती उस विराट की
इस चट्टानी घाटी में 
जो कवि की अन्तर्भूमि मे जग रहा है धीरे धीरे
पत्थर पर पत्थर 
रखते हैं अनगिनत मज़दूर 
रूप ग्रहण करता है विराट
पत्थर से बनता परमेश्वर ।
बाँध जब पूरा होगा
विराट दृढ़ संकल्प शिव की तरह
उन्नत मस्तक 
फैलाकर मिट्टी के बाँध रूपी प्रलम्ब बाहु
बाँध लेगा इस पार्वती को
अपने बज्र वक्ष में
तवा बनेगी सरोवरा
यौवन की बाढ़ का हरहराता आवेग
शमित हो , जायेगा
शान्त हो जायेगा
तब यह बनेगी पयोधरा
फूटेंगी पयस्विनी ,रसस्विनी
वाम और दक्षिण नहर
और यहाँ अंतर मे 
लहरायेगा शान्त सरोवर 
वाम और दक्षिण भाग मे खड़े ये प्रेक्षामंडप
खड़े होंगे साक्षी से 
कहेंगे कथा उस चाँदनी रात की
जब यहाँ एक इंजीनियर ने देखा था स्वप्न ।।
 
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें