मुक्तक:
लहरियों में घटी, घाट पर है सदी
धार के भाग्य में मछलियाँ हैं बदी
चन्द्र को भाल पर टाँक कर खुश हुई,
वास्तव में रही श्री लुटाती नदी
*
कलियों को रंग, तितलियों को पंख दे रही
तेरी शरारतें नयी उमंग दे रहीं
भँवरों की क्या खता जो लुटा दिल दिया मचल
थीं संगदिल जो आज 'सलिल' संग दे रहीं
*
जिसका लेख न हो सका, देख लेखिये आप
लिखा जा चुका श्रेष्ठ फिर, दुहराना है जाप
दृष्टि-कोण की भिन्नता, बदले कथ्य न सत्य
लिखे हुए पर प्रतिक्रिया, करना है अनुमाप
*
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