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शनिवार, 30 मई 2015

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान 
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान 
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धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक 
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक 
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जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक 
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
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अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब 
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