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बुधवार, 3 सितंबर 2014

nibndh: dohe ki wapsi -bhartendu mishra

साहित्यिक निबंध
दोहे की वापसी--भारतेन्दु मिश्र
समकालीन कविता में नवदोहा अभियान छंद की वापसी का प्रमुख
दस्तावेज़ है। जिस प्रकार उर्दू का शायर एक शेर में ही बड़ी से ड़ी
बात कह जाता है उसी प्रकार हिंदी में दोहा सूक्ष्मातिसूक्ष्म संवेदना 
को मुखर करने तथा गूढ़ातिगूढ़ वैचारिक दृष्टि को अभिव्यक्त करने 
की सामर्थ्य रखता है। दोहा लोकजीवन में रचा-बसा छंद है। 

संप्रति नये दोहे में आंचलिकता, ग्राम्यता, जनपदीयता के ललित
सौंदर्य-बोध व महानगरीय विरूपता की विसंगतियाँ सुंदरतम ढंग से
 अभिव्यक्त की जा रही हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक, लौकिक बिंबों व 
प्रतीकों के माध्यम से आज का दोहा अपने वर्तमान की विविधवर्णी 
संवेदनाओं को बहुत अच्छे ढंग से मुखरित कर रहा है। आज का 
दोहा संसद से सड़क और गलियारों से हो कर सुदूर गाँव की पगडंडी 
से, खेतों-खलिहानों व चौपालों तक से समान रूप से जुड़ा है। 
गृह-रति-व्यंजक, पारिवारिक बिंब भी नये दोहे की मौलिक भूमि कहे 
जा सकते हैं। जिन दोहाकारों के स्वतंत्र दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके 
हैं उनके अतिरिक्त कुमार रवींद्र, योगेंद्र दत्त शर्मा, हरीश निगम, यश 
मालवीय, शरद सिंह, कुँअर बेचैन, राजेंद्र गौतम, राम बाबू रस्तोगी, 
कैलाश गौतम, गंगा प्रसाद शर्मा, माहेश्वर तिवारी, विज्ञान व्रत, 
चिरंजीत, उर्मिलेश, भगवान दास एजाज़, अब्दुल बिस्मिल्लाह, रमा 
सिंह, विद्या बिंदु सिंह आदि भी सार्थक दोहाकारों की सूची में शामिल 
किए जा सकते हैं।

आज के दोहे में कबीर का समाज सुधारक वाला स्वर प्रबल है। तुलसी 
की भक्तिपरकता, बिहारी की शृंगारिकता व रहीम की सूक्तिधर्मिता आज 
के दोहाकारों का विषय नहीं है। यह युग व्यंग्य विडंबनाओं और 
विसंगतियों की अभिव्यक्ति का है। गत कई दशकों से समकालीन 
कविता का यही केंद्रीय स्वर रहा है। कबीर अपने समाज को 
व्यवस्थित करने के उद्देश्य से धर्म के ठेकेदारों को फटकारते हैं, 
आडंबर का विरोध करते हैं। आज का कवि भी अपने दोहों के 
माध्यम से अपनी शक्ति भर अपने वर्तमान से जूझ रहा है। 
परिस्थितियाँ भिन्न हैं, परंतु दोहे का केंद्रीय स्वर बहुत कुछ वही 
है। जिन कवियों को अपने कठिन वर्तमान से जूझना पड़ रहा है 
उनके दोहे निश्चित रूप से दमदार हैं। अच्छी कविता में अपने 
युग का साक्ष्य विद्यमान होता है, सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य
करते हुए कुछ दोहे इस प्रकार हैं :
वर्गभेद की नीतियाँ, जाति धर्म की मेज़
अब भी अपने मुल्क में, राज करें अंग्रेज़।- दिनेश शुक्ल

पुलिस-पतुरिया-पातकी-नेता-नमक हराम

हाथ जोड़ कर दूर से, इनको करो प्रणाम।- विश्वप्रकाश दीक्षित 'वटुक'

मेरे हिंदुस्तान का, है फ़लसफ़ा अजीब
ज्यों-ज्यों आई योजना, त्यों-त्यों बढ़े गरीब।- हस्तीमल हस्ती

राजनीति के ठूँठ पर, तने वक्त के शाह

रोज़ चिरायैंध उठ रही, उठे किसे परवाह।- पाल भसीन

मंदिर-मस्जिद चुप खड़े, रहे चीखते भक्त
अब अजान औ आरती, लगे मांगने रक्त।- देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'


समकालीन दोहों में लोक जीवन को कवियों ने नये ढंग से 
रेखांकित किया है। लोक जीवन का अर्थ छप्पर-मोह नहीं होता।
छंदोबद्ध कवियों ने ग्राम्य अंचल के मनोरम चित्र खींचे हैं। नव
गीत के बाद दोहों में ही लोक जीवन अपनी समग्रता के साथ 
उभरकर सामने आया है। लोक जीवन के कुछ मार्मिक चित्र 
निम्नवत है :

नदियाँ सींचे खेत को, तोता कुतरे आम

सूरज ठेकेदार सा, सब को बाँटे काम।- निदा फ़ाज़ली

सरे राह नंगा हुआ, फागुन वस्त्र निकाल

काली टेसू की कली, हुई शर्म से लाल।- किशोर काबरा

पंडित जी बैठे रहे, अपनी पोथी खोल
नक्कारे में गुम हुए, सप्तपदी के बोल।- माहेश्वरी तिवारी


पहले जैसे आत्मीय, रहे न अपने गाँव
तेरे मेरे में बँटे, सुर्ती-चिलम-अलाव।- इसाक अश्क़

पोर पोर पियरा गई, खड़ी फसल की देह
डरती है फिर पालकी, शायद छेंके मेह।- कैलाश गौतम

नीलकंठ बोल कहीं, इतने बरसों बाद
फिर माँ का आँचल उड़ा, बचपन आया याद।- योगेंद्र दत्त शर्मा


समकालीन कविता में गृहरति के बड़े मनोरम दृश्य कवियों ने 
उपस्थित किए हैं। दोहों में ऐसे पारिवारिक संबंधों की खटास व 
मिठास के स्वर सुंदर ढंग से व्यक्त किए जा रहे हैं, यथा :

बच्चे दादा की छड़ी, दादी की आसीस
माँ की छाती, बाप के दिन भर श्रम की फीस।- भारतेंदु मिश्र

भाभी पीली रोशनी, करती घर उजियार

सोन चिरैया थी कभी उड़ी न पंख पसार।- राधेश्याम शुक्ल

आज के दोहे में कथ्य की ताज़गी व पैनापन भी विद्यमान है। 
समकालीन दोहे की भाषा नई है- उस के मुहावरे भी नये तेवर 
लिए हुए हैं। आज के दोहे की संवादधर्मिता व अनगढ़ भाषा 
उसे उद्धरणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। आज का दोहा विचार-
भाषा-कथ्य व संवेदना के स्तर पर पारंपरिक दोहे से नितांत
भिन्न हैं। जहाँ तक पौराणिक-ऐतिहासिक व लोक में प्रचलित 
पात्रों व संदर्भों को प्रतीक रूप में ग्रहण करने की बात है, 
दोहे में पौराणिक व ऐतिहासिक बिंब भी दोहोकारों ने बखूबी 
गढ़े हैं। किंतु उन बिंबों अथवा आख्यानों से नवीन कथ्य 
और समकालीन जीवन की संवेदना स्पष्ट रूप से मुखर हुई है।
यह अच्छी बात है कि समकालीन कविता में दोहे को धीरे-धीरे 
सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है। हालांकि असली 
दोहाकार व देखादेखी दोहे लिखने वाले कवियों की इस भीड़ में
अभी तक इस दोहा अभियान की परिणति क्या होगी, नहीं
 कहा जा सकता, पर समकालीन कविता में यह नवदोहा लेखन 
की परंपरा हमें कहीं न कहीं काव्यानुशासन व भारतीय काव्य 
परंपरा से अवश्य जोड़ती है।

वस्तुत: दोहा रचना इतना सरल नहीं है, जितना कि आज के 

कवि ने मान लिया है। दोहा तो जीवन में दैनंदिन अनुभूत 
संवेदनाओं के शब्दार्थमय दोहन की प्रक्रिया है। वह लिखा नहीं 
जा सकता, उसका दोहन किया जा सकता है, उसकी रचना की 
जाती है। वह बात-बात में कहा भी जा सकता है।
साभार : अभिव्यक्ति 

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