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बुधवार, 3 नवंबर 2010

नवगीत: हिल-मिल दीपावली मना रे! -संजीव 'सलिल'

नवगीत:                                                                               
हिल-मिल
दीपावली मना रे!

संजीव 'सलिल'
*
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
चक्र समय का
सतत चल रहा.
स्वप्न नयन में
नित्य पल रहा.
सूरज-चंदा
उगा-ढल रहा.
तम प्रकाश के
तले पल रहा,
किन्तु निराश
न होना किंचित.
नित नव
आशा-दीप जला रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*
तन दीपक
मन बाती प्यारे!
प्यास तेल को
मत छलका रे!
श्वासा की
चिंगारी लेकर.
आशा-जीवन-
ज्योति जला रे!
मत उजास का
क्रय-विक्रय कर.
'सलिल' मुक्त हो
नेह लुटा रे!
हिल-मिल
दीपावली मना रे!...
*

1 टिप्पणी:

Naveen C Chaturvedi ने कहा…

नव गीतों के जागीरदार आचार्य सलिल जी द्वारा प्रस्तुत नव गीतों को पढ़ना सदैव सुखकर होता है| आपकी प्रस्तुतियों में लय की महत्ता ठीक उसी तरह होती है जैसे कि दाल में नमक| ठीक उतनी ही, जितनी कि चाहिए| शब्दों का तो जैसे भंडार है आप के पास| मुझे सारी दुनिया की जानकारी तो नहीं, परन्तु जो कुछ दिख रहा है उस के मुताबिक आप वर्तमान समय के सशक्त रचनाकारों में से एक हैं|

चक्र समय का
सतत चल रहा
तम प्रकाश के
तले पल रहा

आप पढ़ के देखिए कितना अद्भुत प्रवाह है इन पंक्तियों में| साधु साधु|