गीत:
चलते-चलते
संजीव 'सलिल'
*
चलते-चलते अटक रहे हैं.
मिलते-मिलते भटक रहे हैं.....
*
गति-मति की युति हुई अनछुई.
मंजिल पग ने छुई-अनछुई..
लट्ठम-लट्ठा सूत ना रुई-
दुनियादारी ठगी हो गयी..
ढलते-ढलते सटक रहे हैं.....
*
रीति-नीति से प्रीति नहीं है.
सत की सत्य प्रतीति नहीं है.
हाय असत से भीती नहीं है.
काव्य रचे पर गीति नहीं है..
खुद को खुद ही खटक रहे हैं.....
*
भारी को भी आभारी हैं.
हे हरि! अद्भुत लाचारी है.
दृष्टि हो गयी गांधारी है.
सृष्टि समूची व्यापारी है..
अनचाहा भी गटक रहे हैं.
******************
चलते-चलते
संजीव 'सलिल'
*
चलते-चलते अटक रहे हैं.
मिलते-मिलते भटक रहे हैं.....
*
गति-मति की युति हुई अनछुई.
मंजिल पग ने छुई-अनछुई..
लट्ठम-लट्ठा सूत ना रुई-
दुनियादारी ठगी हो गयी..
ढलते-ढलते सटक रहे हैं.....
*
रीति-नीति से प्रीति नहीं है.
सत की सत्य प्रतीति नहीं है.
हाय असत से भीती नहीं है.
काव्य रचे पर गीति नहीं है..
खुद को खुद ही खटक रहे हैं.....
*
भारी को भी आभारी हैं.
हे हरि! अद्भुत लाचारी है.
दृष्टि हो गयी गांधारी है.
सृष्टि समूची व्यापारी है..
अनचाहा भी गटक रहे हैं.
******************
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें