एक कविता:
दिया
संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 3 नवंबर 2010
एक कविता: दिया संजीव 'सलिल'
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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5 टिप्पणियां:
सलिल जी 'दिये' की आत्म कथा बखानती सुंदर कविता है ये|
Gita Pandit
वाह....
इसे ही जीवन कहते हैं...
सुंदर......
आभार......
बहुत सुन्दर आचार्य जी, कविता की सारी ही विधाओं में आप पारंगत हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
संदेशपरक कविता, खुबसूरत है, दिये को प्रतिक बना बहुत बड़ा सन्देश दिया है आपने, बधाई !
गीत भी, अगीत भी, मीत भी अमीत भी.
दीप देखता है सच, सुनीत भी अनीत भी..
*
ऐसा भ्रम मत पालिए, सीख रहा हूँ नित्य.
ऐसे ही उत्साह दें, लिख पाऊँ कुछ सत्य..
*
बहुत बहुत आभार आपका, बहुत-बहुत आभार..
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