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मंगलवार, 14 सितंबर 2010

दो गीत : श्री प्रकाश शुक्ल


दो गीत :

श्री प्रकाश शुक्ल                                             

१. 

जाने क्यों यह मन में आया......

प्रकृति जननि आँचल में अपने, भरे हुए अनगिनत सुसाधन
चर-अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवनयापन  

बढ़ती आबादी, अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग   

जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक?
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक
 
प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको  प्रतिपल  

असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर  ठहरा  

प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, ,  जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक               

हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानवजन्य उपकरण                                                 
सामूहिक सद्भाव  सहित, खोजेंगे   हल उतम  प्रगाड़
गतिविधियाँ  वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़

निश्चित उद्देश्य पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक 
 
२.

जाने क्यों यह मन में आया

"जाने क्यों यह मन में आया?" अभी-अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुई इस पर?

कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल?             
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ  मनोबल.                         

कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएँ?
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की  ये  तृष्णाएँ?
                                                                                
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल  मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी, जब सुखद, मनोरम हो परिणाम 

हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तःस्वर? 
                                                  
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति?
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति?

छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे.
(टीप: उक्त दोनों गीत ई कविता की समस्या पूर्ति में प्रकाशित हुए थे.
    पाठक इनमें निहित प्रश्नों पर विचार कर उत्तर, सुझाव या अन्य जानकारियाँ बाँटें तो सभी का लाभ होगा. गीत, नवगीत, अगीत, प्रगीत, गद्य गीत आदि पर भी जानकारी आमंत्रित है.-सं.)
*
२८  अगस्त  २०१०

सोमवार, 13 सितंबर 2010

दोहा सलिला: नैन अबोले बोलते..... संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला:

नैन अबोले बोलते.....

संजीव 'सलिल'
*
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*
नैन अबोले बोलते, नैन समझते बात.
नैन राज सब खोलते, कैसी बीती रात.
*
नैन नैन से मिल झुके, उठे लड़े झुक मौन.
क्या अनकहनी कह गए, कहे-बताये कौन?.
*
नैन नैन में बस हुलस, नैन चुराते नैन.
नैन नैन को चुभ रहे, नैन बन गए बैन..
*
नैन बने दर्पण कभी, नैन नैन का बिम्ब.
नैन अदेखे देखते, नैनों का प्रतिबिम्ब..
*
गहरे नीले नैन क्यों, उषा गाल सम लाल?
नेह नर्मदा नहाकर, नत-उन्नत बेहाल..
*
मन्मथ मन मथ मस्त है. दिव्य मथानी देह.
सागर मंथन ने दिया अमिय, नहीं संदेह..
*
देह विदेहित जब हुई, मिला नैन को चैन.
आँख नैन ने फेर ली, नैन हुए बेचैन..
*
आँख दिखाकर नैन को, नैन हुआ नाराज़.
आँख मूँदकर नैन है, मौन कहो किस व्याज..
*
पानी आया आँख में, बेमौसम बरसात.
आँसू पोछे नैन चुप, बैरन लगती रात..
*
अंगारे बरसा रही आँख, धरा है तप्त.
किसके नैनों पर हुआ, नैन कहो अनुरक्त?.
*
नैन चुभ गए नैन को, नैन नैन में लीन.
नैन नैन को पा धनी, नैन नैन बिन दीन..
****
http://divyanarmada.blogspot.com

तीन पद: ---- संजीव 'सलिल'

तीन पद:                                                                                                   
                                                                                                     संजीव 'सलिल'
*
धर्म की, कर्म की भूमि है भारत,
     नेह निबाहिबो हिरदै को भात है.
          रंगी तिरंगी पताका मनोहर-
               फर-फर अम्बर में फहरात है.
                    चाँदी सी चमचम रेवा है करधन,
                        शीश मुकुट नागराज सुहात है.
                            पाँव पखारे 'सलिल' रत्नाकर,
                                 रवि, ससि, तरे, शोभा बढ़ात है..
                                                                        *
नीम बिराजी हैं माता भवानी,
     बंसी लै कान्हा कदम्ब की छैयां.
          संकर बेल के पत्र बिराजे,
              तुलसी में सालिगराम रमैया.
                   सदा सुहागन अँगना की सोभा-
                        चम्पा, चमेली, जुही में जुन्हैया.
                             काम करे निष्काम संवरिया,
                                 नाचे नचा जगती को  नचैया..
                                                                      *
बाँह उठाय कहौं सच आपु सौं,
     भारत-सुत मैया गुन गाइहौं.
        स्वर्ग के सुख सब हेठे हैं छलिया.
            ध्याइहौं भारत भूमि को ध्याइहौं.
               जोग-संजोग-बिजोग हिये धरि,
                  सेस सन्जीवनि सौं सरसाइहौं.
                     जन-गण-मन के कारण पल में-
                         प्रान दे प्रान को मान बढ़ाइहौं..
                                                                    *
--- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

एक तेवरी : रमेश राज, अलीगढ़.

एक तेवरी :

रमेश राज, अलीगढ़.
*
*
नैन को तो अश्रु के आभास ने अपना पता-
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता..
*
सादगी-मासूमियत इस प्यार को हम क्या कहें?
खुरपियों को दे दिया है घास ने अपना पता..
*
मरूथलों के बीच भी जो आज तक भटके नहीं.
उन मृगों को झट बताया प्यास ने अपना पता..
*
फूल तितली और भँवरे अब न इसके पास हैं-
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता..
*
बात कुछ थी इस तरह की चौंकना मुझको पड़ा-
चीख के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता..
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प्रेषक: http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 12 सितंबर 2010

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन... नेतृत्व ? या नीतियां

नवोन्मेषी वैचारिक  आलेख :

संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये जबाबदार कौन...  नेतृत्व ? या नीतियाँ?

                                            -- विवेक रंजन श्रीवास्तव

( लेखक को नवोन्मेषी वैचारिक लेखन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर रेड एण्ड व्हाइट पुरुस्कार मिल चुका है- सं.)

                  कारपोरेट मैनेजर्स की पार्टीज में चलनेवाला जसपाल भट्टी का लोकप्रिय व्यंग है, जिसमें वे कहते हैं कि किसी कंपनी में सी. एम. डी. के पद पर भारी-भरकम पे पैकेट वाले व्यक्ति की जगह एक तोते को बैठा देना चाहिये , जो यह बोलता हो कि "मीटिंग कर लो", "कमेटी बना दो" या "जाँच करवा लो ". यह सही है कि सामूहिक जबाबदारी की मैनेजमेंट नीति के चलते शीर्ष स्तर पर इस तरह के निर्णय लिये जाते हैं  पर विचारणीय है कि क्या कंपनी नेतृत्व से कंपनी की कार्यप्रणाली में वास्तव में कोई प्रभाव नही पड़ता? भारतीय परिवेश में यदि शासकीय संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि नौकरी की उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर, जब मुश्किल से एक या दो बरस की नौकरी ही शेष रहती है, तब व्यक्ति संस्थान के शीर्ष पद पर पहुँच पाता है.सेवा निवृत्ति के निकट इस उम्र के शीर्ष प्रबंधन की मनोदशा यह होती है कि किसी तरह उसका कार्यकाल अच्छी तरह निकल जाए. कुछ लोग अपने निहित हितों के लिये पद-दोहन की कार्य प्रणाली अपनाते हैं, कुछ शांति से जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जाए और अपनी पेंशन पक्की की जाए की नीति पर चलते हैं  वे नवाचार को अपनाकर विवादास्पद बनने से बचते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मनमानी करने पर उतर आते हैं . उनकी सोच होती है कि कोई उनका क्या कर लेगा? उच्च पदों पर आसीन ऐसे लोग अपनी सुरक्षा के लिये राजनैतिक संरक्षण ले लेते हैं, और यहीं से दबाव में गलत निर्णय लेने का सिलसिला चल पड़ता है. भ्रष्टाचार के किस्से उपजते हैं. जो भी हो हर हालत में नुकसान तो संस्थान का ही होता है .                                                                                          
                 इन स्थितियों से बचने के लिये सरकार की दवा स्वरूप सरकारी व अर्धसरकारी संस्थानो का नेतृत्व आई .ए .एस . अधिकारियों को सौंप दिया जाता है. संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों में यह भावना होती है कि ये नया लड़का हमें भला क्या सिखायेगा? युवा आई. ए. एस. अधिकारी को संस्थान से कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता, वह अपने कार्यकाल में कुछ करिश्मा कर नाम कमाना चाहता है जिससे जल्दी ही बेहतर पदांकन मिल सके. जहाँ तक भ्रष्टाचार के नियंत्रण का प्रश्न है, आई. ए. एस. अधिकारियों का मूल राजस्व विभाग पटवारी से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है. फिर भला आई .ए. एस. अधिकारियों के नेतृत्व से किसी संस्थान में भ्रष्टाचार नियंत्रण कैसे संभव है ? 

                 आई. ए. एस. अधिकारियों को प्रदत्त असाधारण अधिकारों, उनकेलंबे विविध पदों पर संभावित सेवाकाल के कारण, संस्थान के आम कर्मचारियों में भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है. मसूरी स्थित आई. ए .एस. अधिकारियों के ट्रेनिंग स्कूल का प्रशिक्षण यह है कि एक कौए को मारकर टाँग दो, बाकी स्वयं ही डर जायेंगे. मैने अनेक बेबस कर्मचारियों को इसी नीति के चलते बेवजह प्रताड़ित होते हुये देखा है, जिन्हें बाद में न्यायालयों से मिली विजय इस बात की सूचक है कि भावावेश में शीर्ष नेतृत्व ने गलत निर्णय लिया था. मजेदार बात है कि हमारी वर्तमान प्रणाली में शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गये गलत निर्णयों हेतु उन्हें किसी तरह की कोई सजा का प्रवधान ही नहीं है..ज्यादा से ज्यादा उन्हें उस पद से हटा कर एक नया वैसा ही पद किसी और संस्थान में दे दिया जाता है. इसके चलते अधिकांश आई. ए. एस. अधिकारियों की अराजकता सर्वविदित है . सरकारी संस्थानो के सर्वोच्च पदो पर आसीन लोगों का कहना है कि उनके जिम्मे तो क्रियान्वयन मात्र का काम है नीतिगत फैसले तो मंत्री जी लेते हैं, इसलिये वे कोई रचनात्मक परिवर्तन नही ला सकते.
             
                 कार्पोरैट जगत के मध्यम श्रेणी के निजी संस्थानों में मालिक की मोनोपाली व वन मैन शो हावी है. पढ़े-लिखे शीर्ष प्रबंधक भी मालिक या उसके बेटे की चाटुकारिता में निरत देखे जाते हैं. बहू राष्ट्रीय कंपनियाँ अपने बड़े आकर के कारण कठिनाई में हैं. शीर्ष नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, आधुनिकीकरण, नवीनतम विज्ञापन, संस्थान को प्रायोजक बनाने, शासकीय नीतियों में सेध लगाकर लाभ उठाने में ही ज्यादा व्यस्त दिखता है. वर्तमान युग में किसी संस्थान की छबि बनाने, बिगाड़ने में मीडीया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. रेल मंत्रालय में लालू यादव ने अपने समय में खूब नाम कमाया. कम से कम मीडिया में उनकी छबि एक नवाचारी मंत्री की रही . आई. सी. आई. सी. आई. के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन से उस संस्थान के दिन बदलते भी सबने देखा है. शीर्ष नेतृत्व हेतु आई. आई. एम. जैसे संस्थानो में जब कैम्पस सेलेक्शन होते हैं तो जिस भारी-भरकम पैकेज के चर्चे होते हैं वह इस बात का द्योतक है कि शीर्ष नेतृत्व कितना महत्वपूर्ण है . किसी संस्थान में काम करनेवाले लोग तथा संस्थान की परम्परागत कार्य प्रणाली भी उस संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये बराबरी से जबाबदार होते हैं . कर्मचारियों के लिये पुरस्कार, सम्मान की नीतियाँ उनका उत्साहवर्धन करती हैं. कर्मचारियों की आर्थिक व अहम् की तुष्टि औद्योगिक शांति के लिये बेहद जरूरी है, नेतृत्व इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है .

                 राजीव दीक्षित भारतीय सोच के एक सुप्रसिद्ध विचारक हैं, व्यवस्था सुधारने के प्रसंग में वे कहते हैं कि यदि कार खराब है तो उसमें किसी भी ड्राइवर को बैठा दिया जाये, कार तभी चलती है जब उसे धक्के लगाये जावें. प्रश्न उठता है कि किसी संस्थान की प्रगति के लिये, उसके सुचारु संचालन के लिये सिस्टम कितना जबाबदार है ? हमने देखा है कि विगत अनेक चुनावों में पक्ष-विपक्ष की अनेक सरकारें बनी पर आम जनता की जिंदगी में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नही आ सके. लोग कहने लगे कि साँपनाथ के भाई नागनाथ चुन लिये गये. कुछ विचारक भ्रष्टाचार जैसी समस्याओ को लोकतंत्र की विवशता बताने लगे हैं , कुछ इसे वैश्विक सामाजिक समस्या बताते हैं. अन्य इसे लोगो के नैतिक पतन से जोड़ते हैं. आम लोगो ने तो भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेककर इसे स्वीकार ही कर लिया है, अब चर्चा इस बात पर नही होती कि किसने भ्रष्ट तरीको से गलत पैसा ले लिया,  चर्चा यह होती है कि चलो इस इंसेटिव के जरिये काम तो सुगमता से हो गया. निजी संस्थानों में तो भ्रष्टाचार की एकांउटिग के लिये अलग से सत्कार राशि, भोज राशि, उपहार व्यय आदि के नये-नये शीर्ष तय कर दिये गये हैं. सेना तक में भ्रष्टाचार के उदाहरण देखने को मिल रहे है . क्या इस तरह की नीति स्वयं संस्थान और सबसे बढ़कर देश की प्रगति हेतु समुचित है?
                      
                विकास में विचार एवं नीति का महत्व सर्वविदित है. इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को हमने जनप्रतिनिधियों को सौंप रखा है. एक ज्वलंत समस्या बिजली की है.  आज सारा देश बिजली की कमी से जूझ रहा है. परोक्ष रूप से इससे देश की सर्वांगीण प्रगति बाधित हुई है. बिजली, रेल की ही तरह राष्ट्रव्यापी सेवा व आवश्यकता है बल्कि रेल से कहीं बढ़कर है फिर क्यों उसे टुकड़े-टुकड़े में अलग-अलग मंडलों, कंपनियों के मकड़जाल में उलझाकर रखा गया है? क्यों राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विद्युत सेवा जैसी कोई व्यवस्था अब तक नहीं बनाई गई? समय से पूर्व भावी आवश्यकताओं का सही पूर्वानुमान लगाकर नये बिजली घर क्यों नहीं बनाये गये? इसका कारण बिजली व्यवस्था का खण्ड-खण्ड होना ही है, जल विद्युत निगम अलग है, ताप-बिजली निगम अलग, परमाणु बिजली अलग, तो वैकल्पिक उर्जा उत्पादन अलग हाथों में है, उच्चदाब वितरण , निम्नदाब वितरण अलग हाथों में है .एक ही देश में हर राज्य में बिजली दरों व बिजली प्रदाय की स्थितयों में व्यापक विषमता है. 

  केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा व आतंकी गतिविधियों के समन्वय में जिस तरह की कमियाँ उजागर हुई हैं ठीक उसी तरह बिजली के मामले में भी केंद्रीय समन्वय का सर्वथा अभाव है जिसका खामियाजा हम सब भोग रहे हैं. नियमों का परिपालन केवल अपने संस्थान के हित में किये जाने की परंपरा गलत है. यदि शरीर के सभी हिस्से परस्पर सही समन्वय से कार्य न करे तो हम चल नहीं सकते. विभिन्न विभागों की परस्पर राजस्व, भूमि या अन्य लड़ाई के कितने ही प्रकरण न्यायालयों में है, जबकि यह एक जेब से दूसरे में रुपया रखने जैसा ही है. इस जतन में कितनी सरकारी उर्जा नष्ट हो रही है,  यह तथ्य विचारणीय है. पर्यावरण विभाग के शीर्ष नेतृत्व के रूप में श्री टी. एन. शेषन जैसे अधिकारियों ने पर्यावरण की कथित रक्षा के लिये तत्कालीन पर्यावरणीय नीतियों की आड़ में बोधघाट परियोजना जैसी जल विद्युत उत्पादन परियोजनाओ को तब अनुमति नहीं दी. इससे उन्होंने स्वयं तो नाम कमा लिया पर बिजली की कमी का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह अब तक थमा नहीं है. बस्तर के जंगल सुदूर औद्योगिक महानगरों का प्रदूषण किस स्तर तक दूर कर सकते हैं यह अध्ययन का विषय हो सकता है, पर यह स्पष्ट दिख रहा है कि आज विकास की किरणें न पहुँच पाने के कारण जंगल नक्सली गतिविधियो का केंद्र हैं . आम आदमी भी सहज ही समझ सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित विकास होना चाहिये पर हमारे नीति-निर्धारक यह नहीं समझ पाते. मुम्बई जैसे महानगरों में जमीन के भाव आसमान को बेध रहे हैं.प्रदूषण की समस्या, यातायात का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. देश में जल स्रोतों के निकट नये औद्योगिक नगर बसाये जाने की जरूरत है पर अभी इस पर कोई काम नहीं हो रहा!   
   
                  आवश्यकता है कि कार्पोरेट जगत व सरकारी संस्थान अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझें व देश के सर्वांगीण हित में नीतियाँ बनाने व उनके क्रियान्वयन में शीर्ष नेतृत्व राजनेताओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी भूमिका निर्धारित करे, देश के विभिन्न संस्थानों की प्रगति देश की प्रगति की इकाई है.
                                                                                                                                                                             - vivek1959@yahoo.co.in
                                    
                                            ****************

स्मरण : नागार्जुन" उर्फ "यात्री - विवेक रंजन श्रीवास्तव

स्मरण : 

विविधता , नूतनता व परिवर्तनशीलता के धनी रचनाकार :  
                       ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री".

- विवेक रंजन श्रीवास्तव                                                                            

                "जब भी बीमार पडूँ तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊँगा। "... अपने बेटे शोभाकांत से हँसते हुये ऐसा कहनेवाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, "यात्री" नाम से लिखे यह   स्वाभाविक ही है .यह साल बाबा का जन्म शताब्दी वर्ष है . हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। 
                                                                                                          
                अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन...मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते-रिश्तेदारों के यहाँ जगह-जगह जाता-आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया जो जीवन पर्यंत जारी रहा .राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड...अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था , जो न केवल जो कुछ आँखों से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट , अप्रत्यक्ष होता , उसे भी भाँपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता .. उनके ये ही सारे अनुभव समय-समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे  जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं.
                                                                       
              "हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!" उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये पर "नागार्जुन" की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे , और जनभावों को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया बल्कि अपने काव्य के लिये स्वयं की नयी लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली-पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट-घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन  व मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन , व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है  किंतु उनकी रचनाधर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा , वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे .उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है.

                 उनकी वर्ष १९३९ में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष १९९८ में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

१९३९  में प्रकाशित‘उनको प्रणाम’......

...जो नहीं हो सके पूर्ण-काम                                                                                               

मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय 

पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके 

कर दिए मनोरथ चूर-चूर! 

- उनको प्रणाम...

*

१९९८  में ‘अपने खेत में’......

.....अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही 

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो 

तो अंकुर कैसे निकलेंगे?

जाहिर है बाजारू बीजों की 

निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और 

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही 

चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की 

चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को 

चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में 

गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता "प्रतिबद्ध" की पंक्तियाँ:

प्रतिबद्ध हूँ,

संबद्ध हूँ,

आबद्ध हूँ...

जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ.

तुमसे क्या झगड़ा है

हमने तो रगड़ा है

इनको भी, उनको भी, 

उनको भी, इनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है .

                अपनी कई प्रसिद्ध कविताओं जैसे कि 'इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको','अब तो बंद करो हे देवी!,  यह चुनाव का प्रहसन' और 'तीन दिन, तीन रात'  आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओं पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है .

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए.............

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!                                                                           
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

                व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं….. कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्य शब्द-चित्रों का विशाल अलबम है. देखिये झलकियाँ:

                  कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, "फटी भीत है छत चूती है…" उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढेरों गाँवों का सच नहीं है ? अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है.                                  .....पारो से.

                 “क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई। 
                                                                                                ..... दुख मोचन से.
                 पंचायत गाँव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी,  अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात-पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि-परंपरा का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं. आज भी कमोबेश हमारे गाँवों की यही स्थिति नही है क्या ?

                  समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर ..... वैद्यनाथ मिश्र..... "नागार्जुन" उर्फ "यात्री" ....विविधता, नित नूतनता एवं परिवर्तनशीलता के धनी...पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे , जिससे भले ही आनेवाले समय में नागार्जुन की रचनायें भले ही अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके . 
                                                                                               -- vivek1959@yahoo.co.इन, चलभाष:  ९४२५४८४४५२
                                                                       **********
                                                                                              

तकनीक : रचना के साथ चित्र लगायें: जोगेंद्र सिंह

तकनीक :

रचना के साथ चित्र लगायें:

जोगेंद्र सिंह
*
आदरणीय आचार्य जी,

रचना के साथ चित्र लगाना आसान है जिसे मैं नीचे लिख दूंगा, परन्तु मुझे एक बहुत ही बड़ी कमी लगती है इस प्रकार इमेज के रूप मे रचना बनाने मे,

१- सर्च इंजन आप के लिखे शब्दों के आधार पर सर्च करते है, आप की रचना अंतरजाल पर होते हुये भी वो सर्च इंजन के पकड़ मे नहीं आता, और रचना के लिये जितना श्रेय रचनाकार को मिलना चाहिये नहीं मिल पाता साथ ही आपकी रचना से बहुत लोग महरूम हो जाते हैं जो सर्च के माध्यम से पढ़ पाते |

२- यदि आप की रचना का कोई नक़ल कर लेता है और उसे किसी साईट पर टेस्ट के माध्यम से पोस्ट कर देता है तो सर्च इंजन उसको सर्च कर लेगा और आपकी रचना को नहीं, इस प्रकार साईट चलाने वाले को भी पता नहीं चलता कि रचना के मूल लेखक कौन है, मुमकिन है की नक़ल को असल और असल को नक़ल समझ लिया जाये |
३- जिस साईट पर आपकी इमेज वाली रचना छपती है उस साईट को भी सर्च इंजन वो सम्मान नहीं दे पाते जो उसे मिलना चाहिये था |

अब मैं बताता हूँ कि इमेज वाली रचना कैसे बनाई जाती है ----

यह आसान है Microsoft power point खोल ले, Insert Image मे जो फोटो चाहते हो अपने कंप्यूटर से इन्सर्ट कर ले , फिर इनसेर्ट text कर अपनी रचना को पेस्ट कर दे, जरूरत के हिसाब से डिजाईन कर ले फिर Save as से सेव करे, वहा जो बॉक्स खुलता है उसमे Other Formet को क्लिक करे और उसमे save as type में JPEG क्लिक कर दे , फिर Save क्लिक कर दे , हो गया आप का काम, फिर एक फोटो कि तरह जहा चाहे वहा चिपका दे |

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मुक्तिका कुछ भला है..... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                   

कुछ भला है.....                                                                                               

संजीव 'सलिल'
*
जो  उगा  है, वह  ढला है.
कुछ बुरा है, कुछ भला है..

निकट जो दिखते रहे हैं.
हाय!  उनमें  फासला  है..

वह  हुआ जो  रही  होनी
जो न चाहा क्या टला है?

झूठ  कहते - चाहते सच
सच सदा सबको खला है..

स्नेह के सम्बन्ध नाज़ुक
साध  लेना  ही  कला  है..

मिले  पहले, दबाते  फिर
काटते वे क्यों?  गला है..

खरे  की  है  पूछ अब कम
टका  खोटा  ही  चला  है..

भले  रौशन  हों   न  आँखें
स्वप्न  उनमें  भी  पला है..

बदलते    हालात    करवट
समय  भी  तो  मनचला है.. 

लाख़   उजली   रहे   काया.
श्याम  साया  दिलजला  है..

ज़िंदगी  जी  ली,  न  समझे
'सलिल' दुनिया क्या बला है..
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शनिवार, 11 सितंबर 2010

मुक्तिका: डाकिया बन वक़्त... --- संजीव 'सलिल'

theek hai abstract Pictures, Images and Photos
मुक्तिका:

                          डाकिया बन  वक़्त...

संजीव 'सलिल'
*

*
सुबह की  ताज़ी  हवा  मिलती  रहे  तो  ठीक  है.
दिल को छूता कुछ, कलम रचती रहे तो ठीक है..

बाग़ में  तितली - कली  हँसती  रहे  तो  ठीक  है.
संग  दुश्वारी  के   कुछ  मस्ती  रहे  तो  ठीक  है..

छातियाँ हों  कोशिशों  की  वज्र  सी  मजबूत तो-
दाल  दल  मँहगाई  थक घटती  रहे  तो ठीक है..

सूर्य  को  ले ढाँक बादल तो न चिंता - फ़िक्र कर.
पछुवा या  पुरवाई  चुप  बहती रहे  तो ठीक  है.. 

संग  संध्या,  निशा, ऊषा,  चाँदनी  के  चन्द्रमा
चमकता जैसे, चमक  मिलती  रहे  तो ठीक है..

धूप कितनी भी  प्रखर हो, रूप  कुम्हलाये  नहीं.
परीक्षा हो  कठिन  पर फलती  रहे  तो ठीक  है..

डाकिया बन  वक़्त खटकाये  कभी कुंडी 'सलिल'-
कदम  तक  मंजिल अगर चलती रहे  तो ठीक है..

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Acharya Sanjiv Salil

शोध आलेख: भूगर्भीय हलचल और भूकंपीय श्रंखला : एक दृष्टिकोण --प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव,

शोध आलेख:

भूगर्भीय हलचल और भूकंपीय श्रंखला : 
                                                        एक दृष्टिकोण
                              

प्रो विनय कुमार श्रीवास्तव, 
अध्यक्ष, 
इन्डियन जिओटेक्निकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर

विश्व में कहीं न कहीं दो-चार दिनों के अंतराल में छोटे-बड़े भूकंप आते रहते हैं किन्तु भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र जिसे सुरक्षित क्षेत्र (शील्ड एरिया) मन जाता है, में भूकम्पों की आवृत्ति भू वैज्ञानिक दृष्टि से अजूबा होने के साथ-साथ चिंता का विषय है. दिनाँक २२ मई १९९७ को आये भीषण भूकंप के बाद १७ अक्टूबर को ५.२ शक्ति के भूकंप ने नर्मदा घाटी में जबलपुर के समीपवर्ती क्षेत्र को भूकंप संवेदी बना दिया है. गत वर्षों में आये ५ भूकम्पों से ऐसा प्रतीत होता है कि १९९७ के भूकंप को छोड़कर उत्तरोत्तर बढ़ती भूकंपीय आवृत्ति का पैटर्न भावी विनाशक भूकंप की पूर्व सूचना तो नहीं है?

विश्व में अन्यत्र आ रहे भूकम्पों पर दृष्टिपात करें तो विदित होता है कि गत ४ वर्षों से भूकंपीय गतिविधियाँ दक्षिण-पूर्व एशिया में केन्द्रित हैं. विश्व के अन्य बड़े महाद्वीपों यथा अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका तथा यूंरेशिया आदि में केवल १-२ बड़े भूक्न्म आये हैं जबकि भारत, चीन. जापान. ईराक, ईरान, तुर्की, ताइवान, फिल्लिपींस, न्यूजीलैंड्स, एवं इंडोनेशिया में प्रति २-३ दिनों के अन्तराल में कहीं न कहीं एक बड़ा भूकम्प आ जाता है या एक ज्वालामुखी फूट पड़ता है. यहाँ तक कि हिंद महासागर में एक नए द्वीप नव भी जन्म ले लिया है.

दक्षिणी-पूर्व एशिया की भू-गर्भीय हलचलें अब जापान, ताइवान एवं भारत में होनेवाली भूकंपीय गतिविधियों में केन्द्रित हैं. दक्षिण ताइवान में ४ अप्रैल को आये भूकंप (५.२) से प्रारंभ करें तो ५ अप्रैल को माउंट एटनाविध्वंसक विस्फोट के साथ सक्रिय हुआ. इसके साथ ही भारत में ७, ११ एवं २७ अप्रैल को क्रमशः महाराष्ट्र, त्रिपुरा एवं शिमला में तथा २ मई को छिंदवाड़ा में भूकंप के झटके महसूस किये गए. २५ मई को कोयना में झटके आये तथा २६ मई को नए द्वीप का जन्म हुआ. दिनांक ३.६.२०० को सुमात्रा में ७.९ तीव्रता का भूकंप आया. ५.६.२००० को तुर्की में ५.९ तीव्रता का, ७ व ८ जून को क्रमशः जापान (४.४), म्यांमार (६.५), अरुणांचल (५.८), सुमात्रा (६.२) तथा १०-११ जून को ताइवान(६.७) व (५.०) तीव्रता के भूकम्पों ने दिल दहला दिया. 
इसके अतिरिक्त १६ से २० जून के बीच ७.५ से ४.९ तीव्रता के भूकम्पों की एक लम्बी श्रंखला कोकस आईलैंड्स, इंडोनेशिया, ताइवान, मनीला, लातूर, शोलापुर, उस्मानाबाद आदि स्थानों में रही. २३.६.२०० नागपुर एवं चंद्रपुर (२.८) २५.६.  २००० जापान (५.६) के अतिरिक्त इम्फाल, शिलोंग, व म्यांमार (४.२) में भी भूकप का झटके कहर ढाते रहे.    
५ जुलाई २००० को जापान में ४ झटके, ७ जुलाई को भारत में खरगौन तथा ८ जुलाई को जापान में ज्वालामुखीय उदगार, ११ जुलाई को जापान में बड़ा भूकंप, १३ जुलाई को जापान में बड़ा सक्रिय ज्वाला मुखी १८ से २४ जुलाई तक जापान में २, ताईवान में ३ एवं एवं इंडोनेशिया में १ भूकंप दर्ज हुआ जिसके साथ भारत में पंधाना, भावनगर एवं कराड में झटके महसूस किये गए. २ अगस्त को उत्तरी जापान में तीसरा ज्वालामुखी सक्रिय रहा.
 ५ जुलाई २००० को जापान में ४ झटके, ७ जुलाई को भारत में खरगौन तथा ८ जुलाई को जापान में ज्वालामुखीय उदगार, ११ जुलाई को जापान में बड़ा भूकंप, १३ जुलाई को जापान में बड़ा सक्रिय ज्वाला मुखी १८ से २४ जुलाई तक जापान में २, ताईवान में ३ एवं एवं इंडोनेशिया में १ भूकंप दर्ज हुआ जिसके साथ भारत में पंधाना, भावनगर एवं कराड में झटके महसूस किये गए. २ अगस्त को उत्तरी जापान में तीसरा ज्वालामुखी सक्रिय रहा. १

सितम्बर से १२ सितम्बर तक भारत में ४ भूकंप दर्ज हुए. १४ सितम्बर को जापान में ५.३ तीव्रता तीव्रता का भूकंप आया. ६ अक्तूबर को पश्चिमी जापान में ७.१, अंडमान में ५.४, सरगुजा में लंबी दरारें पड़ना, तथा अंबिकापुर में भूकंप के हलके झटके अनुभव किये गए. १२.१०.२००० को हिमाचल प्रदेश में तथा १७.१०.२००० को जबलपुर (५.२), १९.१०.२००० को भारत-पाक सीमा तथा कोयना क्षेत्र में भूकंप आया. २७.१०.२०० को जापान में चौथा ज्वालामुखी सक्रिय हुआ.   अद्यतन ये भूगर्भीय हलचलें जो गहरी ज्वालामुखीय घटनाओं को प्रेरित कर रही हैं, इनके कारण ही भूकम्पों की बारम्बार पुनरावृत्ति हो रहे ऐसी मेरी मान्यता है.

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भजन: सुन लो विनय गजानन संजीव 'सलिल'

भजन:
सुन लो विनय गजानन

संजीव 'सलिल'



जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.

हर बाधा हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..

*

सुन लो विनय गजानन मोरी

सुन लो विनय गजानन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.

भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..

जनवाणी-हिंदी जगवाणी

हो, वर दो मनभावन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.

सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी!

भारत माता का हर घर हो,

शिवसुत! तीरथ पावन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*

प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.

पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.

रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर

श्री गणेश तव आसन.

करो कृपा हो देश हमारा

सुरभित नंदन कानन....

*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

भजन : एकदन्त गजवदन विनायक ..... संजीव 'सलिल'

भजन :

एकदन्त गजवदन विनायक .....

संजीव 'सलिल'
 *






*
एकदन्त गजवदन विनायक, वन्दन बारम्बार.
तिमिर हरो प्रभु!, दो उजास शुभ, विनय करो स्वीकार..
*
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!
रिद्धि-सिद्धि का पूजनकर, जन-जीवन सफल बनाओ रे!...
*
प्रभु गणपति हैं विघ्न-विनाशक,
बुद्धिप्रदाता शुभ फलदायक.
कंकर को शंकर कर देते-
वर देते जो जिसके लायक.
भक्ति-शक्ति वर, मुक्ति-युक्ति-पथ-पर पग धर तर जाओ रे!...
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
अशुभ-अमंगल तिमिर प्रहारक,
अजर, अमर, अक्षर-उद्धारक.
अचल, अटल, यश अमल-विमल दो-
हे कण-कण के सर्जक-तारक.
भक्ति-भाव से प्रभु-दर्शन कर, जीवन सफल बनाओ रे!
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
संयम-शांति-धैर्य के सागर,
गणनायक शुभ-सद्गुण आगर.
दिव्य-दृष्टि, मुद मग्न, गजवदन-
पूज रहे सुर, नर, मुनि, नागर.
सलिल-साधना सफल-सुफल दे, प्रभु से यही मनाओ रे.
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

गीत: मनुज से... संजीव 'सलिल'

गीत:

मनुज से...

संजीव 'सलिल'
*

*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.

नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..

तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..

कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..

मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..

हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..

नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..

ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..

नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मुक्तिका: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'

                        मुक्तिका::                                                           कहीं निगाह...

संजीव 'सलिल'
*
कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..

न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

पड़े जो काम तो तू बाप गधे को  कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..

जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..

किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
एके आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..

चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..

गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

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बाल गीत: काम करें... संजीव 'सलिल'

बाल गीत:

काम करें...

संजीव 'सलिल'
*












*
हम हिन्दी में काम करें.
जग में ऊँचा नाम करें..

मिलें, कहें- 'जय हिंद' सखे..
बिछुड़ें तो 'जय राम' कहें..

आलस करें न पल भर भी.
सदा समय पर काम करें..

भेद-भाव सब बिसराएँ.
भाई-चारा आम करें..

'माँ', मैया, माता' बोलें.
ममी, न मम्मी,माम करें..

क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ तजें.
जीवन को सुख-धाम करें..

'सलिल'- साधना सफल तभी.
कोशिश आठों याम करें..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

दोहा सलिला : भू-नभ सीता-राम हैं ------संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला :                                                                                     

संजीव 'सलिल' 

*
भू-नभ सीता-राम हैं, दूरी जलधि अपार.
कहाँ पवनसुत जो करें, पल में अंतर पार..

चंदा वरकर चाँदनी, हुई सुहागिन नार.
भू मैके आ विरह सह, पड़ी पीत-बीमार..

दीपावली मना रहा जग, जलता है दीप.
श्री-प्रकाश आशीष पा, मन मणि मुक्ता सीप.

जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल' न उन सा अन्य..

दो वेदों सम पंक्ति दो, चतुश्वर्ण पग चार.
निशि-दिन सी चौबिस कला, दोहा रस की धार..

नर का क्या, जड़ मर गया, ज्यों तोडी मर्याद.
नारी बिन जीवन 'सलिल', निरुद्देश्य फ़रियाद..


जिनके चरण पखार कर, जग हो जाता धन्य.
वे महेश तुझ पर सदय,'सलिल'न उन सा अन्य..

 खरे-खरे प्रतिमान रच, जी पायें सौ वर्ष.
जीवन बगिया में खिलें, पुष्प सफलता-हर्ष..

चित्र गुप्त जिसका सकें, उसे 'सलिल' पहचान.                                      
काया-स्थित ब्रम्ह ही, कर्म देव भगवान.

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Acharya Sanjiv Salil

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