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शुक्रवार, 29 मार्च 2024

मार्च २९, कहमुकरी

सलिल सृजन २९ मार्च
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विश्ववाणी हिंदी में छीन का उद्भव लोक में लोक के द्वारा, लोक के लिए हुआ है। अधिकतर समझदार किंतु अशिक्षित / अल्पशिक्षित लोक ने लय को आधार बनाकर छंदों की रचना की। कोई बात कहकर उससे मुकर जाना अथवा स्वीकार न कर कोई अन्य बात कह देने के प्रवृत्ति सामान्य है। 'कहने' और 'मुकरने' का क्रिया-कलाप हइओ 'कहमुकरी' छंद है। इस लोक छंद से प्रभावित होकर 'अमीर खुसरो' ने कई कहमुकरियाँ रचीं। उसके बाद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अन्यान्य कवियों ने भी इस विधा को आगे बढ़ाया।

दुमदार दोहा

एक दिन आमिर खुसरो कुदरत के हसीन नज़ारे देखते-देखते दूर गाँव की ओर चले गए। उन्हें जोर से प्यास लगी। चारों ओर देखा तो कुछ दूरी पर ४ ग्रामीण महिलाएँ कुएँ से जल भरती दिखाई दीं। खुसरो ने उनसे जल पिलाने के आग्रह किया। वे महिलाएँ खुसरो को पहचान गईं और उनमें से एक ने खुसरो से कहा कि जल तो तबही मिलेगा जब आप हमें हमारे दिए विषय पर तुरंत कविता रच कार सुनाएँगे। खुसरो समझ गए कि जिन्हें वे सामान्य भोली बालाएँ समझ रहे हैं वे चतुरा नारियाँ हैं। प्यास से गला सूखने की बेचैनी, मीठा ठंडा पानी समीप होने के बाद भी पी नहीं पा रहे थे। राज हठ और बाल हठ से भी अधिक विषम होता है त्रिया हठ। खुसरो इसी त्रिया हाथ का सामना कार रहे थे। बहुत आरज़ू-मिन्नत के बाद भी कोई रियायत न मिली तो खुसरो ने उनसे विषय पूछे। उन महिलाओं ने विषय दिए खीर,चरखा, कुत्ता और ढोल। कोई सामान्य कवि होता तो उसके छक्के छूट जाते पर खुसरो तो बाकमाल शख्स थे। कुछ पल दाढ़ी खुजलाते हुए सोचते रहे और झट से एक ऐसी रचना सुनाई जिसमें चारों विषय सम्मिलित हो गए। महिलाओं ने रचना सुनकर खुसरो की कविताई का कमाल सुन, सराहा और सहर्ष पानी पिलाकर खुसरो की प्यास बुझाई। वह कविता थी-

खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता कहा गया, तू बैठी ढोल बजाय।।
ला पानी पिला।

इस तरह हिंदी में चिरकाल से प्रचलित सर्वाधिक लोक प्रिय छंद दोहे ने 'दुमदार दोहे' के रूप में अपनी वंश वृद्धि की।

खेतों में मचान पर बैठ कर फसल की रखवाली करते किसान शाम-रात के समय अकेलापन मिटाने के लिए कोई गीत गाते हैं। दूर किसी अन्य मचान पर इस पंक्ति को सुनकर उस पर बैठा किसान अपनी ओर से नई पंक्ति जोड़ देता है। यह क्रम चलता रहता है, गीत में कड़ियाँ जुड़ती रहती हैं। इन पंक्तियों के रचयिता स्त्री-पुरुष दोनों हो सकते हैं और वे अपरिचित भी होते हैं।
कहमुकरी भी लोक गीतों की ऐसी ही एक स्वतंत्र शैली है जिसका वैशिष्ट्य बिम्बात्मकता, लयात्मकता, गेयता तथा प्रश्नोत्तरता है। आरंभ में कहमुकरी की संरचना चौपाई के समान, (१६ मात्रा के ४ चरण) रही है। एक सखी दूसरी सखी से अपने साजन के बारे में बात करती है। प्रथम दो पंक्तियों में ऐसा बिंब बनाती कि दूसरी को लगता है कि वह साजन के बारे में बता रही है, लेकिन जब वह पूछती है तो वह मुकर जाती है। इस प्रकार यह छंद रोचक रचना विधान के साथ पाठक के मन की जिज्ञासा को बढ़ाता है। कहमुकरी दो सखियों/कवियों के वार्तालाप का जीवंत दृश्य उपस्थित करती है। सहज प्रवाहमयी लय और लोक ग्राह्य तुक कहमुकरी में चार चाँद लगाती हैं। कहमुकरी लोक छंद है, इसलिए इसके चरण भार में वैविध्य दिखता है,। सामान्यत: १५, १६ या १७ मात्राओं के समभारिक चरण प्रयोग में लाए जाते हैं हैं। चरण के अंत में नगण, सगण, भगण , यागन आदि का प्रयोग चारुत्व वर्धक होता है।

कहमुकरी की प्रथम ३ पंक्तियों में एक सखी अपनी दूसरी अंतरंग सखी से अपने साजन (पति, प्रेमी आदि) के बारे में अपने मन की कोई बात लाक्षणिक रूप से इस प्रकार कहती है कि वह किसी अन्य बिम्ब पर भी सटीक बैठे। दूसरी सखी कहे गए लक्षणों के आधार पर ४ थी पंक्ति के पूर्वार्ध में कहमुकरी- नायक को पहचान लेती है। तब पहली सखी लजाते हुए कहमुकरी के अंत (४ थी पंक्ति के उत्तरार्ध) में अपनी बात से मुकरते हुए लक्षण साम्य के आधार पर किसी अन्य का नाम लेती है।

आरंभिक कहमुकरियों में 'न' की जगह 'ना' या 'नहिं' शब्द का प्रयोग तथा 'सखी' को 'सखि लिखा जाता रहा है। आधुनिक कहमुकरीकार शिल्पगत विरासत को यथावत रखने अथवा उसमें यथोचित परिवर्तन करने को लेकर एकमत नहीं हैं। हिंदी काव्य में अर्थचमत्कृति के लिए श्लेष व छेकापहृति अलंकारों का विशेष प्रयोग किया जाता है। कहमुकरी में यमक अलंकार का प्रयोग बहुअर्थ की प्रतीति करता है। श्लेष अलंकार में कहनेवाला मूल अर्थ में तथा सुनने वाला भिन्न अर्थ में ग्रहण करता है।छेकापहृति अलंकार में में प्रस्तुत को अस्वीकार व अप्रस्तुत को स्वीकार करवाया जाता है।

एक उदाहरण:-

वा बिन रात न नीकी लागे, वा देखें हिय प्रीत ज जागे,
अद्भुत करता वो छल छंदा। क्या सखि साजन? ना री चंदा।।

पहली तीन पंक्तियों में उसके बिना रात अच्छी नहीं लगती, उसे देखकर मन में प्रेम-भावना जागती है तथा वह अद्भुत क्रीड़ाएँ करता है कहकर प्रेमी को संकेतित किया गया है। चौथी पंक्ति के पूर्वार्ध में सखी द्वारा संकेत समझ लिए जाने पर नायिका प्रस्तुत को अस्वीकृत करअप्रस्तुत (चंद्रमा) को मान्य करती है। यही कहमुकरी विधा का वैशिष्ट्य व काव्यगत लालित्य है। कहमुकरी मे लय-प्रवाह व गति-यति के सुचारु संतुलन हेतु द्विकल का प्रयोग अधिक होता है। कह मुकरी में कल बाँट २२ २२ २२ २२, २२ २२ २२ २१ या २२ २२ २२ २१२ तथा दो-दो सम तुकांती चरण रखने की प्रथा है।

पारंपरिक कहमुकरी में 'सखि' और 'साजन' का प्रयोग किया गया है किंतु आधुनिक कहमुकरीकार (मैं भी) इनके स्थान पर अन्य शब्द भी प्रयोग करते हैं। कहमुकरी की जान भावविलास व कथ्य चातुर्य में बसती है, जीवंतता बनाए रखने के लिए शिल्पगत तथा विषयगत परिवर्तन कार इस विधा को समयानुकूल तथा लोकोपयोगी बनाए रखा जाना आवश्यक है।

अमीर खुसरो की मुकरियाँ मनोरंजन प्रधान हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र की मुकरियों में तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियाँ हैं। साहित्य सृजन की हर विधा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परिवेश की साक्षी तथा विसंगतियों को उद्घाटित कर उनके निवारण में सहायक हो तभी उसकी उपादेयता है। आधुनिक कहमुकरियाँ इस दायित्व के निर्वहन हेतु सक्रिय हैं।
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खुसरो की कुछ कहमुकरियाँ

रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहिं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥
मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे॥
मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीलो। है गुणवंत बहुत चटकीलो॥
राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आया भौन। सुंदरता बरने कवि कौन॥
निरखत ही मन भयो अनंद। क्यों सखि साजन? ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखिन से छिन होत न न्यारा॥
आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन? ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै॥
हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन? ना सखि नीर॥

बिन आये सबहीं सुख भूले। आये ते अँग-अँग सब फूले॥
सीरी भई लगावत छाती। क्यों सखि साजन? ना सखि पाति॥

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कुछ कहमुकरियाँ

रूप दिखावत सरबस लूटै, फंदे में जो पड़ै न छूटै।
कपट कटारी जिय मैं हुलिस, क्यों सखि साजन? नहिं सखि पुलिस।

नई- नई नित तान सुनावै, अपने जाल मैं जगत फँसावै।
नित नित हमैं करै बल सून, क्यों सखि साजन? नहिं कानून।

तीन बुलाए तेरह आवैं, निज निज बिपता रोइ सुनावैं।
आँखौ फूटे भरा न पेट, क्यों सखि साजन? नहिं ग्रैजुएट।
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कहमुकरी : मेरे कुछ प्रयोग
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
वस्त्र सफेद पहनतीं हरदम
नयनों में ममता होती नम
अधरों पर मुस्कान सजाएँ
माँ? नहिं शारद;
आ! गुण गाएँ
रहे प्रतीक्षा इसकी सबको
कौन न चाहे कहिए इसको?
इस पर आए सबको प्यार
सखि! दिलदार?,
नहिं रविवार
काया छोटी; अर्थ बड़े
लगता रच दें खड़े-खड़े
मोह न छूटे जैसे नग का
वैसे नथ का?;
ना सखि! क्षणिका
बिंदु बिंदु संसार बना दे
रेखा खींचे भाव नया दे
हो अंदाज न उसकी मति का
सखी! शिक्षिका?,
नहीं अस्मिता
साथ बहारें उसके आएँ
मन करता है गीत सुनाएँ
साथ उसी के समय बिताएँ
प्यारी! कंत?,
नहीं बसंत
कभी न रीते उसका कोष
कोई न देता उसको दोष
रहता दूर हमेशा रोष
भैया! होश?,
ना संतोष
समझ न आए उसकी माया
पीछा कोई छुड़ा न पाया
संग-साथ उसका मन भाया
मीता! काया?,
ना रे! छाया
कभी न करती मिली रंज री!
रहती मौन न करे तंज री!
एक बचाकर कई बनाए
सखी! अंजुरी?,
नहीं मंजुरी
४-१२-२०२२
***
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
विक्रम के काँधे बेताल
प्रश्न पूछता दे-दे ताल
उत्तर देता सीना तान
क्या अज्ञान?
ना, प्रज्ञान।
जहँ जा लिख-पढ़ बनते शिक्षित
कर घुमाई, बिन गए अशिक्षित
मानव मति शशि-रवि छू दक्षा
सखी है शिक्षा?
नहिं सखि कक्षा।
घटता-बढ़ता, नष्ट न होता
प्रेम कथाएँ फसलें बोता
पल में चमके, पल में मंदा
गोरखधंधा?
मितवा! चंदा।
मन कहता हँस पगले! मत रो
अपने सपने नाहक मत खो
सपने पूरे होते किस रो?
फ़ाइलों-पसरो?
नहिं सखि! इसरो।
नयन मूँदते रूप दिखाया
ना अपना नहिं रहा पराया
सँग भीगना कँपना तपना
माला जपना?
नहिं रे! सपना।
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
८.१०.२०२३
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वस्त्र सफेद पहनतीं हरदम
नयनों में ममता होती नम
अधरों पर मुस्कान सजाएँ
माँ? नहिं शारद;
आ! गुण गाएँ
रहे प्रतीक्षा इसकी सबको
कौन न चाहे कहिए इसको?
इस पर आए सबको प्यार
सखि! दिलदार?,
नहिं रविवार
काया छोटी; अर्थ बड़े
लगता रच दें खड़े-खड़े
मोह न छूटे जैसे नग का
वैसे नथ का?;
ना सखि! क्षणिका
बिंदु बिंदु संसार बना दे
रेखा खींचे भाव नया दे
हो अंदाज न उसकी मति का
सखी! शिक्षिका?,
नहीं अस्मिता
साथ बहारें उसके आएँ
मन करता है गीत सुनाएँ
साथ उसी के समय बिताएँ
प्यारी! कंत?,
नहीं बसंत
कभी न रीते उसका कोष
कोई न देता उसको दोष
रहता दूर हमेशा रोष
भैया! होश?,
ना संतोष
समझ न आए उसकी माया
पीछा कोई छुड़ा न पाया
संग-साथ उसका मन भाया
मीता! काया?,
ना रे! छाया
कभी न करती मिली रंज री!
रहती मौन न करे तंज री!
एक बचाकर कई बनाए
सखी! अंजुरी?,
नहीं मंजुरी
स्वार्थ बिना नित सेवा करता,
प्रभु का ध्यान हमेशा धरता।
हँसे इष्ट का कष्ट सभी हर,
क्या हरि-चाकर? नहिं सखि किंकर।
रामचन्द्र का बहुत दुलारा,
राम नाम प्राणाधिक प्यारा।
मानस मीमांसक अजरामर,
क्या सखि शंकर?, नहिं री! किंकर।
शब्द शब्द को अर्थ नए दे,
भक्ति नर्मदा, भजन नाव खे।
भवसागर से पार कराता,
सखी! विधाता?, किंकर त्राता।
२९.४.२०२४
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