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शनिवार, 9 मार्च 2024

मार्च ९, सॉनेट, नारी, भारत, माँ, सोरठा, लघुकथा, माली छंद, मुक्तक, होली, आलोक वर्मा, महिला दिवस , दोहा लेखन, मात्र विधान,

सलिल सृजन मार्च ९
*
सॉनेट
नारी
*
नारी! तूने साबित कर दिखलाया है,
जीत नहीं सकता है तुझको छल या बल,
कल से कल तक कल की कल तेरी कलकल,
वन अशोक में रहकर अडिग दिखाया है।  
नारी! तूने नर को पूर्ण बनाया है,
जननी, भगिनी, भाभी, अर्धांगिनी संबल,
रुष्ट रहे जीना मुश्किल कर दे किलकिल,
छाया-माया-काया शुभ सरमाया है। 
नारी! नर से दो मात्राएँ है भारी,
गलती से भी मत कहना इसको अबला, 
तबला बना बजाएगी यह तब तुमको। 
नारी! से ही विद्या-शक्ति मिले सारी, 
सबल तभी नर जब नारी होगी सबला,
प्रबला होकर प्रबल बनाएगी नर को। 
***
सॉनेट
सजग भारत
*
है सजग भारत मिलाकर आँख बातें कर रहा है,
ना झुकाता, ना चुराता आँख संकट देखकर यह,
चुनौती को दे चुनौती, जीतता नित लक्ष्य नव यह,
डराता है यह नहीं पर अब नहीं यह डर रहा है।
है सजग भारत जगत को छोड़ पीछे बढ़ रहा है,
कर रहा व्यवहार अपने हित हमेशा साधकर यह,
सुरक्षा-सुख-शांति सबकी सृष्टि हित आराधकर यह,
नए मानक आप अपने नित्य प्रति यह गढ़ रहा है।
सजग भारत दीन जन की गरीबी मिल मिटाता है,
मिटाता मतभेद, होकर एक, हरता है अँधेरा,
कर विकास प्रयास जन का बढ़ता है हौसला भी।
उद्यमी हो अधिक सक्षम, स्वप्न सुंदर दिखाता है,
दीप उन्नति के जलाकर उगाता है नव सवेरा,
कह रहा परिवार जग को और जग को घोंसला भी।
९.३.२०२४
***
सॉनेट
यूक्रेन
सत्य लिखेगा यह इतिहास।
हारा तिनके से तूफान।
धीरज इसका संबल खास।।
हर तिनका करता बलिदान।।
वह करता सब सत्यानाश।
धरती को करता शमशान।
अपराधी का करें विनाश।।
एक साथ मिल सब इंसान।।
भागें मत, संबल दें काश।
एक यही है शेष निदान।
गिरे पुतिन पर ही आकाश।।
यूक्रेनी हैं वीर महान।।
करते हैं हम उन्हें सलाम।
उनकी विपदा अपनी मान।।
९-३-२०२२
•••
आत्मकथ्य
मैं विवाह के पश्चात् प्राध्यापिका पत्नि को रोज कोलेज ले जाता-लाता था. फिर उन्हें लूना और स्कूटर चलाना सिखाया. बाद में जिद कर कार खरीदी तो खुद न चला कर उन्हें ही सिखवाई.शोध कार्य हेतु खूब प्रोत्साहित किया. सडक दुर्घटना के बाद मेरे ओपरेशन में उनहोंने और उन्हें कैंसर होने पर मैंने उनकी जी-जान से सेवा की. हर दंपति को अपने परिवेश और जरूरत के अनुसार एक-दुसरे से तालमेल बैठाना होता है. महिला दिवस मनानेवाली महिलायें घर पर बच्चों और बूढ़ों को नौकरानी के भरोसे कर जाती हैं तो देखकर बहुत बुरा लगता है.
***
कार्यशाला
राजीव गण / माली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भिगा दूँ चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भाँग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
९-३-२०२०
***
होली के दोहे
*
होली हो ली हो रही, होली हो ली हर्ष
हा हा ही ही में सलिल, है सबका उत्कर्ष
होली = पर्व, हो चुकी, पवित्र, लिए हो
*
रंग रंग के रंग का, भले उतरता रंग
प्रेम रंग यदि चढ़ गया कभी न उतरे रंग
*
पड़ा भंग में रंग जब, हुआ रंग में भंग
रंग बदलते देखता, रंग रंग को दंग
*
शब्द-शब्द पर मल रहा, अर्थ अबीर गुलाल
अर्थ-अनर्थ न हो कहीं, मन में करे ख़याल
*
पिच् कारी दीवार पर, पिचकारी दी मार
जीत गई झट गंदगी, गई सफाई हार
*
दिखा सफाई हाथ की, कहें उठाकर माथ
देश साफ़ कर रहे हैं, बँटा रहे चुप हाथ
*
अनुशासन जन में रहे, शासन हो उद्दंड
दु:शासन तोड़े नियम, बना न मिलता दंड
*
अलंकार चर्चा न कर, रह जाते नर मौन
नारी सुन माँगे अगर, जान बचाए कौन?
*
गोरस मधुरस काव्य रस, नीरस नहीं सराह
करतल ध्वनि कर सरस की, करें सभी जन वाह
*
जला गंदगी स्वच्छ रख, मनु तन-मन-संसार
मत तन मन रख स्वच्छ तू, हो आसार में सार
*
आराधे राधे; कहे आ राधे! घनश्याम
वाम न होकर वाम हो, क्यों मुझसे हो श्याम
होली २०१८
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दोहा लेखन विधान
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि, मुस्कानि जैसे देशज क्रिया-रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथा संभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि)का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
***
गीत
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
***
पुस्तक सलिला:
कोई रोता है मेरे भीतर : तब कहता कविता व्याकुल होकर
*
[पुस्तक विवरण- कोई रोता है मेरे भीतर, कविता संग्रह, आलोक वर्मा, वर्ष २०१५, ISBN ९७८-९३-८५९४२-०७-५ आकार डिमाई, आवरण, बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १२०, मूल्य १००/-, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७ सेक्टर ९, पथ ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क ७१ विवेकानंद नगर, रायपुर ४९२००१, ९८२६६ ७४६१४, lokdhvani@gmail.com]
*
कविता और ज़िन्दगी का नाता सूरज और धूप का सा है। सूरज ऊगे या डूबे, धूप साथ होती है। इसी तरह मनुष्य का मन सुख अनुभव करे या दुख अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से हो होती है। मनुष्येतर पशु-पक्षी भी अपनी अनुभूतियों को ध्वनि के माध्यम से व्यक्त करते हैं। ऐसी ही एक ध्वनि आदिकवि वाल्मीकि की प्रथम काव्याभिव्यक्ति का कारण बनी। कहा जाता हैं ग़ज़ल की उत्पत्ति भी हिरणी के आर्तनाद से हुई। आलोक जी के मन का क्रौंच पक्षी या हिरण जब-जब आदमी को त्रस्त होते देखता है, जब-जब विसंगतियों से दो-चार होता है, विडम्बनाओं को पुरअसर होते देखता तब-तब अपनी संवेदना को शब्द में ढाल कर प्रस्तुत कर देता है।
कोई रोता है मेरे भीतर ५८ वर्षीय कवि आलोक वर्मा की ६१ यथार्थपरक कविताओं का पठनीय संग्रह है। इन कविताओं का वैशिष्ट्य परिवेश को मूर्तित कर पाना है। पाठक जैसे-जैसे कविता पढ़ता जाता है उसके मानस में संबंधित व्यक्ति, परिस्थिति और परिवेश अंकित होता जाता है। पाठक कवि की अभिव्यक्ति से जुड़ पाता है। 'लोग देखेंगे' शीर्षक कविता में कवि परोक्षत: इंगित करता है की वह कविता को कहाँ से ग्रहण करता है-
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास
जब हम भाग रहे होंगे सड़कों पर / और लिखी नहीं जाएगी
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास
जब हमारे हाथों में / दोस्त का हाथ होगा
या हम अकेले / तेज बुखार में तप रहे होंगे / और लिखी नहीं जाएगी
दैनंदिन जीवन की सामान्य सी प्रतीत होती परिस्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति ही आलोक जी की कविताओं का उत्स हैं। इसलिए इन कविताओं में आम आदमी का जीवन स्पंदित होता है। अनवर मियाँ, बस्तर २०१०, फुटपाथ पर, हम साधारण, यह इस पृथ्वी का नन्हा है आदि कविताओं में यह आदमी विविध स्थितियों से दो-चार होता पर अपनी आशा नहीं छोड़ता। यह आशा उसे मौत के मुँह में भी जिन्दा रहने, लड़ने और जितने का हौसला देती है। 'सब ठीक हो जायेगा' शीर्षक कविता आम भारतीय को शब्दित करती है -
सुदूर अबूझमाड़ का / अनपढ़ गरीब बूढ़ा
बैठा अकेला महुआ के घने पेड़ के नीचे
बुदबुदाता है धीरे-धीरे / सब ठीक हो जायेगा एक दिन
यह आशा काम ढूंढने शहर के अँधेरे फुथपाथ पर भटके, अस्पताल में कराहे या झुग्गी में पिटे, कैसा भी भयावह समय हो कभी नहीं मरती।
समाज में जो घटता है उस देखता-भोगता तो हर शख्स है पर हर शख्स कवि नहीं हो सकता। कवि होने के लिए आँख और कान होना मात्र पर्याप्त नहीं। उनका खुला होना जरूरी है-
जिनके पास खुली आँखें हैं / और जो वाकई देखते हैं....
... जिनके पास कान हैं / और जो वाकई सुनते हैं
सिर्फ वे ही सुन सकते हैं / इस अथाह घुप्प अँधेरे में
अनवरत उभरती-डूबती / यह रोने की आर्त पुकार।
'एक कप चाय' को हर आदमी जीता है पर कविता में ढाल नहीं पाता-
अक्सर सुबह तुम नींद में डूबी होगी / और मैं बनाऊंगा चाय
सुनते ही मेरी आवाज़ / उठोगी तुम मुस्कुराते हुए
देखते ही चाय कहोगी / 'फिर बना दी चाय'
करते कुछ बातें / हम लेंगे धीरे-धीरे / चाय की चुस्कियाँ
घुला रहेगा प्रेम सदा / इस जीवन में इसी तरह
दूध में शक्कर सा / और छिपा रहेगा
फिर झलकेगा अनायास कभी भी
धूमकेतु सा चमकते और मुझे जिलाते
कि तुम्हें देखने मुस्कुराते / मैं बनाना चाहूँगा / ज़िंदगी भर यह चाय
यूं देखे तो / कुछ भी नहीं है
पर सोचें तो / बहुत कुछ है / यह एक कप चाय
अनुभूति को पकड़ने और अभिव्यक्त करने की यह सादगी, सरलता, अकृत्रिमता और अपनापन आलोक जी की कविताओं की पहचान हैं। इन्हें पढ़ना मात्र पर्याप्त नहीं है। इनमें डूबना पाठक को जिए क्षणों को जीना सिखाता है। जीकर भी न जिए गए क्षणों को उद्घाटित कर फिर जीने की लालसा उत्पन्न करती ये कवितायें संवेदनशील मनुष्य की प्रतीति करती है जो आज के अस्त-वस्त-संत्रस्त यांत्रिक-भौतिक युग की पहली जरूरत है।
***
मुक्तिका:
*
कर्तव्यों की बात न करिए, नारी को अधिकार चाहिए
वहम अहम् का हावी उस पर, आज न घर-परिवार चाहिए
*
मेरी देह सिर्फ मेरी है, जब जिसको चाहूँ दिखलाऊँ
मर्यादा की बात न करना, अब मुझको बाज़ार चाहिए
*
आदि शक्ति-शारदा-रमा हूँ, शिक्षित खूब कमाती भी हूँ
नित्य नये साथी चुन सकती, बाँहें बन्दनवार चाहिए
*
बच्चे कर क्यों फिगर बिगाडूँ?, मार्किट में वैल्यू कम होती
गोद लिये आया पालेगी, पति ही जिम्मेदार चाहिए
*
घोषित एक अघोषित बाकी,सारे दिवस सिर्फ नारी के
सब कानून उसी के रक्षक, नर बस चौकीदार चाहिए
*
नर बिन रह सकती है दावा, नर चाकर है करे चाकरी
नाचे नाच अँगुलियों पर नित, वह पति औ' परिवार चाहिए
*
किसका बीज न पूछे कोई, फसल सिर्फ धरती की मानो
हो किसान तो पालो-पोसो, बस इतना स्वीकार चाहिए
***
मुक्तक:
मुक्त देश, मुक्त पवन
मुक्त धरा, मुक्त गगन
मुक्त बने मानव मन
द्वेष- भाव करे दहन
*
होली तो होली है, होनी को होना है
शंका-अरि बनना ही शंकर सम होना है
श्रद्धा-विश्वास ही गौरी सह गौरा है
चेत न मन, अब तुझको चेतन ही होना है
*
मुक्त कथ्य, भाव,बिम्ब,रस प्रतीक चुन ले रे!
शब्दों के धागे से कबिरा सम बुन ले रे!
अक्षर भी क्षर से ही व्यक्त सदा होता है
देना ही पाना है, 'सलिल' सत्य गुण ले रे!!
***
लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
९-३-२०१६
***
सोरठा सलिला
भजन-कीर्तन नित्य, करिए वंदना-प्रार्थना।
रीझे ईश अनित्य, सफल साधना हो 'सलिल'।
*
हों कृपालु जगदीश , शांति-राज सुख-चैन हो।
अंतर्मन पृथ्वीश, सत्य सहाय सदा रहे।।
*
ऐसे ही हों कर्म, गुप्त चित्र निर्मल रहे।
निभा 'सलिल' निज धर्म, ज्यों की त्यों चादर रखे।।
९-३-२०१०
***

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