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रविवार, 10 मार्च 2024

मार्च १०, दोहा, गीत, घनाक्षरी, होली, लोककथा, कहावत, कहमुकरी, हास्य, कुण्डलिया

सलिल सृजन मार्च १०
*
अनुरोध:
भोजन-स्थान पर निम्न सन्देश लिखवायें / घोषणा करवायें :
१. अन्न देवता का अपमान मत करें
२. भोजन फेंकना पाप है.
३. देवता भोग ग्रहण करते हैं, मनुष्य भोजन खाते हैं, राक्षस फेंकते हैं.
४. भोजन की बर्बादी,भूखे की मौत.
५. जितनी भूख उतना लें, जितना लें, उतना खाएं.
६. इस जन्म में भोजन फेंकें, अगले जन्म में भूखे मरें.
७. खाना खा. फेंक मत.
८. खाने से प्यार, बर्बादी से इंकार
९. खाना बचे, भूखे को दें.
१० जितना खा सकें उससे कुछ कम लें.
११. दाने-दाने पर खानेवाले का नाम
जो दाना फेंका उस पर था आपका नाम
अगले जनम में दाने पर नहीं होगा आपका नाम
तब क्या करेंगे?
१२. जीवनाधार
भोजन का सामान
बर्बादी रोकें.
१३. जितना खाना
परोसें उतना ही
फेकें न दाना
१४. भूखे-मुँह में देना दाना
एक यज्ञ का पुण्य कमाना.
१५. पशु-पक्षी को जूठन डालें
प्रभु से गलती क्षमा करा लें.
१६. कम खाना, कम बीमारी
ज्यादा खाना, मुश्किल भारी.
१७. खाना गैर का, पेट आपका.
१८. खाना सस्ता, इलाज मंहगा.
१९. सरल खाना / कठिन पचाना.
२०. भूख से कम खायें, सेहत बनायें.
२१. बचा हुआ शुद्ध ताजा भोजन अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम अथवा मंदिर के बाहर
भिक्षुकों को वितरित करा दें. जूठा भोजन / जूठन पशुओं को खाने के लिये दें.
***
कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
लोककथा कहावत की
ये मुँह और मसूर की दाल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
एक राजा था, अन्य राजाओं की तरह गुस्से का तेज हुए खाने का शौक़ीन। रसोइया बाँकेलाल उसके चटोरेपन से परेशान था। राजा को हर दिन कुछ नया खाने की लत और कोढ़ में खाज यह कि मसूर मसालेदार दाल की दाल राजा को विशेष पसंद थी। मसूर की दाल बाँकेलाल के अलावा और कोई बनाना नहीं जानता था। इसलिए बांके लाल राजा की मूँछ का बाल बन गया।
एक दिन बाँकेलाल की साली, अपने जीजा के घर आई। उसकी खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए इसलिए बाँकेलाल ने राजा से कुछ दिनों के लिए छुट्टी माँगी।
राजा के पास उसके मित्र पड़ोसी देश के राजा के आगमन का संदेश आ चुका था।
हुआ यह कि राजा ने अपने मित्र राजा से बाँकेलाल की बनाई मसूर की दाल की खूब तारीफ की थी। मित्र राजा अपनी रानी सहित आया, ताकि मसूर की दाल का स्वाद ले सके। इसलिए राजा ने बाँकेलाल की छुट्टी मंजूर नहीं की। बाँकेलाल की साली ने उसका खूब मजाक उड़ाया कि जीजाजी साली से ज्यादा राजा का ख्याल रखते हैं। घरवाली का मुँह गोलगप्पे की तरह फूल गया कि उसकी बहिन के कहने पर भी बाँकेलाल ने उसके साथ समय नहीं बिताया। बाँकेलाल मन मसोसकर काम पर चला गया।
खीझ के कारण उसका मन खाना बनाने में कम था। उस दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा पड़ गया और दाल कुछ कम गली। मेहमान राजा को भोजन में आनंद नहीं आया। नाराज राजा से बाँकेलाल को नौकरी से निकाल दिया। बेरोजगारी ने बाँकेलाल के सामने समस्या खड़ी कर दी। राजा एक रसोइया रह चुका था इसलिए किसी आम आदमी के घर काम करने में उसे अपमान अनुभव होता। घर में रहता तो घरवाली जली-कटी सुनाती।
कहते हैं सब दिन जात न एक समान, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, नगर सेठ मन ही मन राजा से ईर्ष्या करता था। उसे घमंड था कि राजा उससे धन उधार लेकर झूठी शान-शौकत दिखाता था। उसे बाँकेलाल के निकले जाने की खबर मिली तो उसने बाँकेलाल को बुलाकर अपन रसोइया बना लिया और सबसे कहने लगा कि राजा क्या जाने गुणीजनों की कदर करना?
अँधा क्या चाहे दो आँखें, बाँकेलाल ने जी-जान से काम करना आरंभ कर दिया। सेठ को राजसी स्वाद मिला तो वह झूम उठा।
सेठ की शादी की सालगिरह का दिन आया। अधेड़ सेठ युवा रानी को किसी भी कीमत पर प्रसन्न देखना चाहता था। उसने बाँकेलाल से कुछ ऐसा बनाने की फरमाइश की जिसे खाकर सेठानी खुश हो जाए। बाँकेलाल ने शाही मसालेदार मसूर की दाल पकाई। सेठ के घर में इसके पहले मसूर की दाल कभी नहीं बनी थी। सेठ-सेठानी और सभी मेहमानों ने जी भरकर मसूर की दाल खाई। सेठ ने बाँकेलाल को ईनाम दिया। यह देखकर उसका मुनीम कुढ़ गया।
अब सेठ अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मित्रों को दावत देकर वाहवाही पाने लगा।
बाँकेलाल खुद जाकर रसोई का सामान खरीद लाता था इस कारण मुनीम को पहले की तरह गोलमाल करने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। मुनीम बाँकेलाल से बदला लेने का मौका खोजने लगा। बही में देखने पर मुनीम ने पाया की जब से बाँकेलाल आया था रसोई का खर्च लगातार बढ़ था। उसे मौका मिल गया। उसने सेठानी के कान भरे कि बाँकेलाल बेईमानी करता है। सेठानी ने सेठ से कहा। सेठ पहले तो अनसुनी करता रहा पर सेठानी ने दबाव डाला तो उसकी नाराजगी से डरकर सेठ ने बाँकेलाल को बुलाकर डाँट लगाई और जवाब-तलब किया कि वह रसोई का सामान लाने में गड़बड़ी कर रहा है।
बाँकेलाल को काटो तो खून नहीं, वह मेहनती और ईमानदार था। उसने सेठ को मेहमानों और दावतों की बढ़ती संख्या और मसलों के लगातार लगातार बढ़ते बाजार भाव का सच बताया और मसूर की दाल में गरम मसाले और मखाने आदि डलने की जानकारी दी। सेठ की आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। उसने नौकर को भेजकर किरानेवाले को बुलवाया और पूछताछ की। किरानेवाले ने बताया कि बाँकेलाल हमेशा उत्तम किस्म के मसाले पूरी तादाद में लता था और भाव भी काम करते था। बाँकेलाल बेईमानी के झूठे इल्जाम से बहुत दुखी हुआ और सेठ की नौकरी छोड़ने का निश्चय कर अपना सामान उठाने चला गया।
वह जा ही रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी सेठानी नौकर से कह रही थी कि शाम को भोजन में मसूर की दाल बनाई जाए। स्वाभिमानी बाँकेलाल ने यह सुनकर कमरे में प्रवेश कर कहा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। मैं काम छोड़कर जा रहा हूँ।
सेठ-सेठानी मनाते रह गए पाए वन नहीं माना। तब से किसी को सामर्थ्य से अधिक पाने की चाह रखते देख कहा जाने लगा 'ये मुँह और मसूर की दाल'।
••
कुण्डलिया 
*
दर्शन के दर्शन बिना, रहता मन बेज़ार
तेवर वाली तेवरी, करे निरंतर वार
करे निरंतर वार, केंद्र में रखे विसंगति
करे कौन मनुहार, बढ़े हर समय सुसंगति
मत करिए वन काम, करे मन जिसका वर्जन 
अंतर्मन में झांक, कीजिए प्रभु का दर्शन 
देवर आए खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रंगा, भागे बिगड़ा काज
भागे बिगड़ा काज, न गुझिया पपड़ी पाई 
भौजी की बहिना, न सामने पड़ी दिखाई 
रंगों का पहन न सके, मनचाहा जेवर 
फीकी होली हुई, गए मन मारे देवर 
***
घनाक्षरी
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
१०-३-२०२०
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
१०-३-२०१७
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ..
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ! दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
गीत,
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
१०-३-२०१०
***

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