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मंगलवार, 10 मई 2022

गीता चौबे 'गूँज'

काव्य सुमन
गीता चौबे 'गूँज'


















जन्म - ११-१०-१९६७ 
शीक्षा- स्नातकोत्तर 
प्रकाशित - क्यारी भवनों की काव्य संग्रह, बंद घरों के रोशनदान उपन्यास, 
ब्लॉग - मन के उद्गार 
ईमेल - choube.geeta@gmail.com  
*
बजाकर तार वीणा के, सकल संसार को स्वर दो।
जलाकर ज्ञान की बाती, अँधेरा दूर ये कर दो।
तिमिर-अज्ञान हट जाए, बहे जब ज्ञान की सरिता-
बने अनिवार्य अब शिक्षा, सभी में प्रेरणा भर दो।

नहीं है ज्ञान छंदों का, नहीं सुर-ताल की ज्ञानी ।
लिखे कुछ लेखनी ऐसा, जगे संवेदना धानी।
किसी के दर्द पर मरहम, लगाएँ शब्द ये मेरे-
मुझे वरदान दो ऐसा, रुधिर मेरा न हो पानी।
*
नाक सिकोड़ें सारे बच्चे, जब देख हरी सब्जी को।
कुंदरून, तुरई, बैंगन, करेले और भिंडी को।।
सभा बुलाई सब्जी दल ने, कुछ अब तो करना होगा।
इन बच्चों की खातिर हमको, रूप नया धरना होगा।।

ध्यान-मनन सब्जी ने करके, उपाय निकाला।
खूब सँवर थाली में बैठीं, अद्भुत अंदाज निराला।।
देख बगीचा थाली अंदर, बच्चे मारें किलकारी।
लगीं सब्जियाँ मन को भाने, माँ रोज बना फुलवारी।।
*
लघुकथा
पशुता
*
“मीनू! आजकल तुम बिलकुल दिखाई नहीं देती। किट्टी-ग्रुप भी छोड़ दिया। क्या बात है?”
“वो माँजी गाँव चली गयीं हैं। पिंकी को अकेली छोड़कर कैसे आ सकती हूँ? उसकी परीक्षाएँ भी चल रही हैं।”
“अरे! तो ट्यूशन लगा दो न!”
“ट्यूशन तो लगाया ही है, पर आजकल किसी पर भरोसा करना मुश्किल है। “
“हाँ, सही बोल रही हो मीनू, लड़की जात चाहे किसी भी उम्र की हो, अकेली छोड़ना खतरे से खाली नहीं है। आए दिन पेपर में बलात्कार की खबरें आती रहतीं हैं। “
“वही तो! बेटी की सुरक्षा को दाँव पर लगाकर मैं एन्जॉय कैसे कर सकती हूँ?”
“हाँ, मैं तो इस मामले में खुशकिस्मत हूँ कि मुझे बेटा है जो है तो तुम्हारी बेटी की ही उम्र का, पर लड़का है न, इसलिए मैं इस तरह की चिंता से मुक्त हूँ।”
“पशुओं में लिंग-निर्धारण की समझ कहाँ होती है। इसी पशुता से बचने के लिए हमें तीसरी आँख खुली रखनी है।”
काँप गयी सुधा! उसकी नजरों के सामने अपने बेटे का अवसादग्रस्त चेहरा कौंध उठा, जब उसने पड़ोस वाले लड़के से ट्यूशन नहीं पढ़ने की उसकी जिद को झिड़क दिया था।
***
लघुकथा
अस्तित्व
*
माँ की मृत्यु के ४ वर्षों के बाद आज रमेश गाँव जा रहा था। ट्रेन के चलते ही उसकी यादों का कारवां भी चल पड़ा… आँगन में बिछी खाट पर लेटी बीमार माँ के आखिरी शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे – “दोनों बहुएँ इतनी लड़ती हैं कि मुझे डर है कि मेरे मरने के बाद इस घर के हिस्से न करवा दें।” “माँ! तुम चिंता मत करो। तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी तरह सेतु बनूँगा और इस घर के टुकड़े नहीं होने दूँगा। इस आँगन का अस्तित्व कभी खत्म नहीं होने दूँगा।” “मुझे तुमसे यही उम्मीद थी बेटा! अब मैं चैन की साँस मर सकूँगी… ।”
तब से रमेश ने दोनों भाइयों की हर संभव मदद की। हालाँकि दोनों भाभियों के मनभेद के कारण उनकी रसोई अलग हो चुकी थी। यहाँ तक कि घर के बरतन और कमरे, अनाज सभी दो भागों में बँट चुके थे। न चाहते हुए भी घर की शांति के लिए रमेश ने इसे स्वीकार कर लिया था। वह यही सोचकर खुश था कि चलो फिर भी आँगन संयुक्त रह गया और वह किसी भी कीमत पर आँगन को बनाए रखना चाहता था। उस आँगन में उसे अपना अस्तित्व नजर आता था।
पिछले साल एक तरफ का छप्पर गिर गया था जिसे नए सिरे से बनवाने के लिए उसने भाइयों को पर्याप्त पैसे भी दिए थे, परंतु विभागीय कार्य की वजह से स्वयं नहीं जा सका था।
इस बार उसने किसी को नहीं बताया था कि वह गाँव आ रहा है। सोचा था कि अचानक से पहुँचकर सरप्राइज देगा और उस आँगन में पहले की तरह खटिया लगाकर दोनों भाइयों के साथ अपना बचपन और माँ-बाबुजी की याद ताजा करेगा।
उसका स्टेशन आ गया था। उसने गाँव जाने के लिए एक कैब किया। गाँव के अंदर जाने के लिए भी अच्छी सड़क बन गयी थी जो उसके घर के दरवाजे तक जाती थी। दरवाजे पर पहुँच कर गाड़ी से उतरा तो उसे घर का नक्शा बदला हुआ दिखाई दिया। घर के दो हिस्से हो चुके थे और दोनों दरवाजों पर दोनों भाइयों के नेमप्लेट लगे हुए थे।
आँगन के अस्तित्व के साथ रमेश का अस्तित्व भी मिट चुका था।
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कृति चर्चा :
'बंद घरों के रोशनदान'
रेणु झा 'रेणुका', राँची, झारखंड
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गीता चौबे 'गूँज' द्वारा लिखी गई पुस्तक बंद घरों के रोशनदान समाज के लिए बहुत ही प्रेरणादायक है। कहानी के माध्यम से लेखिका ने समाज के एक विशेष वर्ग का सामाजिक, मानसिक और पारिवारिक दशा का सटीक विश्लेषण किया है। किन्नरों के जज़्बों को सहलाने की कोशिश की है।उनका कहना है कि जब न्यायालय ने किन्नरों को हर क्षेत्र में बराबरी का हक दिया है तो समाज या परिवार उन्हें हर खुशी से महरूम क्यों रखता है? यहाँ तक कि बच्चे के सगे माता-पिता भी उसे अपनाना नहीं चाहते। कितना भी काबिल इंसान हो रूप, रंग, गुणों से भरपूर लेकिन जैसे ही किन्नर शब्द उससे जुड़ता है,उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है सभी के नजरों में हाथ नचाकर ताली बजाने वाले ही नजर आते हैं। उसकी भावना, संवेदना वहीं ध्वस्त हो जाती है।
कहानी इंदु नामक एक संघर्षशील महिला से शुरू होती है, तीन बेटियाँ परी,रानी और सुहाना जो एक किन्नर थी, उसके जन्म के बाद सुहाना के पिता ने माँ और तीनों बच्चियों का त्याग कर दिया। इंदु अपनी तीनों बच्चियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए दूसरे शहर में आ बसी और स्वयं कमाकर तीनों बच्चियों का भविष्य बनाने में जुट गई। इस पुरूष प्रधान समाज में अकेले रहकर तीन बेटियों की परवरिश और वो भी सुहाना के रहस्यों को छुपाकर करना आसान नहीं था। परी का ब्याह हो गया। रानी अभिनेत्री बनने की इच्छा में मुम्बई चली गई। वहाँ एड्स जैसी बीमारी की शिकार हो गई और लौटना नहीं चाहती, लेकिन सुहाना एक मेडिकल छात्रा थी उसका एक दोस्त मोहित खन्ना जिसने बड़ी मशक्कत से परी को लौटाया। मोहित सुहाना से बेइंतहा प्यार करता था लेकिन जैसे ही पता चला वो किन्नर है, उसने उसे ठुकरा दिया। सुहाना के जज्बात तहस-नहस हो गए। मोहित की पत्नी ने जब एक संतान को जन्म दिया वो किन्नर हुआ और सदमे में मोहित की पत्नी चल बसी।बच्ची का जन्म सुहाना के हाथ से हुआ था सो मोहित ने क्षमा माँगते हुए बच्ची सुहाना को दे दी। सुहाना ने उसे दिल से अपनाया और उसका नाम मोहिनी रखा।
सुहाना सब कुछ समझती थी एक किन्नर को किन परिस्थितियों से गुजरना होगा और सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए मोहिनी को धीरे-धीरे सभी समस्याओं से अवगत कराया और हौसले से उसे समस्याओें का सामना करना सिखाया, धीरे-धीरे सारे रिश्ते-नातों से भी अवगत करवाया ताकि किसी उलझन से वो घबराए नहीं। यह कहानी के माध्यम से लेखिका ने समाज को सुंदर संदेश देने की कोशिश की है कि किन्नर के जन्म में उनका कोई दोष नहीं। उन्हें जीने का उतना ही हक है जितना हम आम लोगों को। उनके अंदर भी प्रेम, संवेदना, भावना वैसे ही पलते हैं जैसे आम लोगों के! उन्हें भी सुख दुख का अहसास है। उन्हें भी प्यार करने, खुश होने का बराबर का हक है। जब हम अपने दिमाग रूपी रोशनदान को खोलेंगे तभी हम उन्हें दिल से अपनाएँगे यानी वायु का अवागमन होगा तभी वातावरण शुद्ध और खुशनुमा होगा।
कहानी समाज की सोच से हटकर है लेकिन लेखिका ने एक ज्वलंत समस्या का समाधान दिखाने की कोशिश की है। कहानी में किन्नरों के प्रति कसावट काबिले-तारीफ है। कहानी के हर किरदार ने अपना प्रभाव छोड़ा है। पुरुषप्रधान समाज और परिवार पर कटाक्ष, लेखिका ने बड़ी सहजता से की है। कहानी के कथ्य ने शानदार छाप छोड़ी है पाठकों के मन पर। कहानी आकर्षित करती है अपनी ओर और यही लेखिका की सफलता है।
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