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शनिवार, 14 मई 2022

लेख, सुभद्रा कुमारी चौहान, लक्ष्मण सिंह चौहान

लेख
राष्ट्रीयता के पर्याय सुभद्रा जी-लक्ष्मण सिंह जी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                          भारतीय इतिहास में गाँधी युग को 'न भूतो; न भविष्यति' कहना इसलिए न्यायोचित है कि इस काल में उग्र, सहिष्णु और नम्र तीनों तरह के सामूहिक असंतोष राष्ट्रीयता की पराकाष्ठा के साथ एक साथ न केवल विकसित हुए अपितु उनका सुपरिणाम भारतीय स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के रूप में विश्व के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सका। उग्र राष्ट्रवाद के दो रूप भगतसिंह-आजाद और सुभाषचंद्र बोस-आजाद हिंद फ़ौज के रूप में जनगण के आराध्य बने। सहिष्णु राष्ट्रवाद कांग्रेस के गरम दल के रूप में लाल-बाल-पाल में दिखा तो नम्र-सहयोगी राष्ट्रवाद का शतदली कमल गोखले-गाँधी की सत्याग्रही वृत्ति के रूप में सामने आया। साहित्यकारों ने इन तीनों ही विचारधाराओं के अनुरूप साहित्य रचकर लोक को दिशा दी। एक भारतीय आत्मा के विशेषण से जाने गए पद्मभूषण दादा माखनलाल चतुर्वेदी (४ अप्रैल १८८९ बाबई होशंगाबाद - ३० जनवरी १९६८ भोपाल) ने शिक्षक-पत्रकार-क्रान्तिकारी तथा सत्याग्रही की भूमिकाओं में अपनी अमिट छाप रचनाओं ही नहीं; अपने शिष्यों के माध्यम से भी छोड़ी। दादा के अन्यतम शिष्ययुग्म ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान (वैशाख कृष्ण १५ वि. सं. १९५१/ ६ मई १८९४ खंडवा - ३० अगस्त १९५३ जबलपुर) तथा सुभद्रा कुमारी चौहान (श्रावण शुक्ल (नाग)पंचमी वि.सं. १९६१/ १६ अगस्त १९०४ निहालपुर, इलाहाबाद - १५ फरवरी १९४८ सिवनी) ने स्वातंत्र्य संघर्ष तथा लोकचेतना जागरण के महायज्ञ में अपनी आहुति समाजसेवी, आंदोलनकारी, साहित्यकार, राजनेता तथा लोकनायक के रूप में दी। अपने कार्यक्षेत्र जबलपुर में उन्हें स्थानीय समृद्ध नेताओं के प्रच्छन्न विरोध का भी सामना करना पड़ा। कच्ची गृहस्थी, नन्हे बच्चे, अर्थाभाव तथा पारिवारिक असहमतियों के बावजूद लक्ष्मणसिंह-सुभद्रा दंपत्ति ने अपने मार्गदर्शक गुरु माखनलाल चतुर्वेदी के मार्गदर्शन में कर्मवीर के प्रकाशन, सत्याग्रहों और सभाओं के आयोजनों और शासकीय दमन की चुनौतियों का अविचलित रहकर सामना किया।

                          सुभद्रा जी की ख्याति राष्ट्रवादी प्रथमत: कवयित्री और बाद में सभानेत्री के रूप में फ़ैली किन्तु उनको आगे बढ़ाने के लिए आधार, पृष्ठष्भूमि और संबल बनाने और बननेवाले ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान का त्याग-बलिदान, समर्पण और कर्मठता अल्पचर्चित होकर रह गयी। सुभद्रा जी की सहज-स्वाभाविक राष्ट्रीय भावधारापरक काव्यधारा के प्रवाहित होने में उनकी अभिन्न सखी महीयसी महादेवी वर्मा जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शालेय जीवन से ही सुभद्रा-महादेवी की जोड़ी विद्रोही प्रवृत्ति के लिए चर्चित रही किन्तु यह विद्रोह सुविचारित और सकारात्मक था। महादेवी का बाल विवाह को नकारकर अविवाहित रहना और सुभद्रा का विवाह में दहेज़ और पर्दा प्रथा को ठुकराना तत्कालीन परिवेश में दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कदम थे। लक्ष्मणसिंह जी ने परिवारिक विरोधों और आर्थिक अभावों की परवाह न कर सुभद्रा के साथ मिलकर देश के स्वतंत्रता हेतु सर्वस्व के संकल्प को प्राणप्रण से पूर्ण किया। राष्ट्रीय भावधारा सुभद्रा जी और लक्ष्मण सिंह जी दोनों के काव्य में पल्ल्वित-पुष्पित होकर सत्याग्रहियों और जन सामान्य के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में सामने आई।

                          ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान परिवार के पोषण के लिए वकालत करते थे किन्तु अधिकांश मुकदमे दरिद्र ग्रामीणों और सत्ग्रयाहियों के होते थे जिनमें वकील का पारिश्रमिक देने की सामर्थ्य ही न होती; बहुत सा समय कर्मवीर और कांग्रेस की संगठनात्मक गतिविधियों को देना होता; बढ़ते परिवार की जिम्मेदारियाँ और पैतृक परिवार का नाराजगीजनित असहयोग। किसी भी मनुष्य के मनोबल को तोड़ने के लिए इनमें से एक ही पर्याप्त है किन्तु लक्ष्मणसिंह जी न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन पर किसी भी कठिनाई का कोई असर न होता। लक्ष्मण सिंह जी के एक अभिन्न मित्र की बहिन थीं सुभद्रा। प्रथम साक्षात् में ही दोनों के मन में यह भाव आया कि वे पूर्व परिचित हैं। सुभद्रा जी 'प्रथम दर्शन' शीर्षक से लिखती हैं -

प्रथम जब उनके दर्शन हुए, हठीली आँखें अड़ ही गईं
बिना परिचय के एकाएक, हृदय में उलझन पड़ ही गई

मूँदने पर भी दोनों नेत्र, खड़े दिखते सम्मुख साकार
पुतलियों में उनकी छवि श्याम मोहिनी, जीवित जड़ ही गई

भूल जाने को उनकी याद. किए कितने ही तो उपचार
किंतु उनकी वह मंजुल-मूर्ति, छाप-सी दिल पर पड़ ही गई

                          लक्ष्मण सिंह जी ने सुभद्रा जी को किस दिव्य दृष्टि से देखा, इसकी बानगी उनकी यह कविता प्रस्तुत करती है -

'' वह ठिठक अड़ैली चंचल थी, ज्यों प्रीति लाज में घुली हुई।
थी हँसी रसीले होंठों की, नव रूप सुधा से धुली हुई।।
वह अजब छबीली चितवन थी, था तरल वेग पर तुली हुई।
उन घनी लचीली पलकों में, कुछ छिपी हुई कुछ खुली हुई।।
है याद मुझे मैं चौंक पड़ा, जब बजी ह्रदय की बाँसुरिया।
वह दृष्टि तुम्हारी कहती थी, मैं राधा हूँ; तुम साँवरिया।।
थे शब्द कहाँ?; पद-वाक्य कहाँ?; बस भाव सुनाई देता था।
था राग अहा! अनुराग बना, साकार दिखाई देता था।।
पूर्णेन्दु उगा; नव पुष्प खिले, हाँ लगी कुहकने कोइलिया।
यों पूजा का सामान जुटा, मैं राधा था; तुम साँवरिया।।
दो एक हुए स्वच्छंद बने, मिल गई राह आजादी की।
जग मंजुल मंदिर गूँज उठा, सुन पड़ी बधाई शादी की।।
आलोक हुआ; भ्रम लोप हुआ; क्या दीख पड़ा. मैं था तुम थीं।
मैं विश्व बना तुम विश्वात्मा, मैं तुममें था; तुम मुझमें थीं।।''

                          इस दिव्य दंपत्ति का मिलन दैहिक से अधिक आत्मिक अद्वैत का महायज्ञ था। दोनों एक दूसरे के पूरक थे और दोनों का प्राप्य था भारत का स्वातंत्र्य। लक्ष्मण सिंह जी के कवि की पहचान हिंदी साहित्य में अपेक्षाकृत कम है। लक्ष्मण सिंह चौहान रचित साहित्य में नाटक कुली-प्रथा, उत्सर्ग, दुर्गावती और अंबपाली लिखे जो लोकप्रिय हुए। अंग्रेजी उपन्यासों के अनुवादों (विक्टर ह्यूगो रचित ला मिजरेबल्स और लॉफिंगमैन तथा बर्नार्डशॉ की कृति 'द मैन ऑफ़ डेस्टिनी' का 'सौभाग्य लाड़ला नेपोलियन' शीर्षक अनुवाद) तथा उपन्यास उपन्यास मस्तानी उनकी बहुचर्चित रचनाएँ रहीं। उन्होंने 'त्रिधारा' सामूहिक काव्य संकलन का संपादन-प्रकाशन भी किया था जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, केशवप्रसाद पाठक तथा सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिनिधि रचनाएँ सम्मिलित थीं। त्रिधारा की एक हजार प्रतियाँ एक वर्ष से भी कम अवधि में समाप्त होना अपनी मिसाल आप है। आपने महाकाव्य 'कृष्णावतार' भी लिखा था जो प्रकाशित न हो सका। 'वंदे मातरम्' शीर्षक निम्न हिंदी ग़ज़ल में उनकी काव्य कुशलता और राष्ट्रीय भावना की बानगी है -

''चल दिए माता के बंदे जेल वंदे मातरम्
देशभक्तों की यही है गैल वंदे मातरम्
हैं जहाँ गाँधी गए; बरसों तिलक भी थे जहाँ
हम भी वहाँ के कष्ट लेंगे झेल वंदे मातरम्
जानते हैं क्रूर है; खूँखार है सैयाद वह
जाँच ले हरगिज न होंगे फेल वंदे मातरम्
एक को ले जाएगा तो सैंकड़ों आगे बढ़े
जेल जाने को समझते खेल वंदे मातरम्
देशभक्तों ने जिसे सींचा है अपने खून से
लहराएगी; फल लाएगी वह बेल वंदे मातरम्''

उदित हुआ नक्षत्र गगन पर

                          जन्मजात काव्य प्रतिभा की धनी सुभद्रा जी ने मात्र ६ वर्ष की आयु में पहली तुकबन्दी की -

तुम बिन व्याकुल हैं सब लोगा।
तुम तो हो इस देश के गोगा।।

                          गोगा उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों में पूजित लोकदेवता हैं जो अदृश्य रहकर भक्तों का भला करते हैं। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह गोगा जी के भजन गाते थे।

                          अपनी प्रिय शिक्षिका इंदुबाला को काव्य पंक्तियाँ समर्पित करते हुए नन्हीं सुभद्रा ने लिखा -

आई एम ए रोमांटिक लेडी, इंदुबाला इस माय नेम.
आल द गर्ल्स वेयर वैरी हैप्पी, इन द स्कूल व्हेन आई केम.

                          एक दिन उनकी सहपाठिनी सुशीला कक्षा में कुछ देर से आई, कारण पूछा जाने पर उसने अपनी दाई मुनिया को जिम्मेदार बताया जो अकारण उलझ गयी थी। नटखट सुभद्रा ने तत्क्षण आशुकविता कर दी -

देखो एक लड़की है आई,
जिससे लड़ती उसकी दाई।
'लूकरगंज' है उसका धाम,
सुशीला देवी उसका नाम।'

                          मात्र ९ वर्ष की आयु में १९१३ में प्रयाग से प्रकाशित पत्रिका मर्यादा में 'सुभद्रा कुँवरि' नाम से उनकी प्रथम काव्य रचना 'नीम प्रकाशित हुई जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ निम्न हैं -

सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं।
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है।

अपनी मिसाल आप

                          स्वातंत्र्य सत्याग्रह के समांतर हिंदी साहित्य में सतत प्रवहित राष्ट्रीय विचार सलिला का अंतरवर्ती उन्मेष सुभद्रा जी के काव्य में अपनी श्रेष्ठ छवि दर्शाता है। मात्र पंद्रह वर्ष की किशोरावस्था में अपने अग्रज के मित्र ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ विवाहित सुभद्रा जी के साहित्य में स्वदेश गौरव, राष्ट्र के प्रति समर्पित बलिदानियों का यशगायन सर्वत्र व्याप्त है। पाँच संतानों सुधा, अजय, विजय, अशोक व ममता की माता सुभद्रा जी ने दुधमुँहे बच्चों को अपनी राष्ट्रभक्ति-पथ और साहित्यिक सृजन में बाधक नहीं बनने दिया। उन्होंने पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन में समन्वय, समंजय और संतुलन की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। वर्ष १९१९ में लक्ष्मण सिंह जी से विवाह पश्चात सुभद्रा जी जबलपुर आ गईं हुए १९२० में स्वातंत्र्य संघर्ष में कूद पड़ीं। बापू के सादगी के महामंत्र को इस तरह अंगीकार किया कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी तक त्याग दी। १९२० में अखिल भारतीय कोंग्रस के नागपुर अधिवेशन में लक्ष्मण सिंह जी और सुभद्रा जी दोनों कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सम्मिलित थे। बापू ने पूछ 'बेन तुम्हारा ब्याह हो गया।' सुभद्रा ने कहा 'हाँ,' उत्साहपूर्वक बताया पति भी साथ आए हैं। बापू आश्वस्त हुए तो 'बा' ने सस्नेह डाँटा कि चूड़ी-बिंदी और किनारेवाली साड़ी पहनो। गृहप्रवेश के साथ ही पर्दा प्रथा का विरोध करनेवाली विद्रोहिणी सुभद्रा ने 'बा' का स्नेहादेश शिरोधार्य किया। १९२२ में झंडा सत्याग्रह में सुभद्रा जी देश की प्रथम महिला सत्याग्रही बनीं तथा १९२३ तथा १९४२ के सत्याग्रह आंदोलनों में हिस्सेदारी कर दो बार कारावास भी पाया। उनकी कविताओं की सहज-स्वाभाविक वृत्ति राष्ट्रीय पौरुष को ललकारने-जगाने की है। देश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा जी के ३ कहानी संग्रह बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे-सादे चित्र तथा काव्य संग्रह मुकुल व त्रिधारा प्रकाशित हुए हैं। भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकिट निर्गत किया तथा एक भारतीय तट रक्षक जहाज का नामकरण किया है। जबलपुर नगर निगम प्रांगण में उनकी मानवाकार संगमरमरी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

सुभद्रा जी का साहित्यिक वैशिष्ट्य

                          सुभद्रा जी कविता लिखती नहीं थीं, कविता उनके माध्यम से खुद को व्यक्त करती थी। अभिन्न सखी महादेवी जी की ही तरह सुभद्रा जी का भी काव्य माथामच्ची का परिणाम नहीं, ह्रदय की तीव्रतम भावनाओं और गहन अनुभूतियों का सहज प्रागट्य होता था। देश-प्रेम, नारी- जागरण और अन्याय से संघर्ष सुभद्रा जी की जन्मजात प्रवृत्तियाँ थीं। उन्होंने छायावादी आत्माभिव्यक्ति और राष्ट्रीय लोकाभिव्यक्ति नारी जागरण और समाज सुधार का नीर-क्षीर मिश्रण प्रकृत एवं आकर्षक परिधान में प्रस्तुत कर जन-मन जीत लिया। उनकी अभिव्यक्तियाँ सरल, सहज बोधगम्य एवं अकृत्रिम हैं। प्रगीत शिल्प उनकी अनुभूतियों का आवरण नहीं, आत्मिक तत्व है। वे अनुभूतियों पर काव्य को आरोपित नहीं करतीं, वे काव्यमय अनुभूतियाँ अनुभव करती हैं। उनकी अभिव्यंजना ही काव्यमयी है। राजनैतिक परवशता का विरोध, समाजिक विसंगतियों पर प्रहार, पारिवारिक ममत्व की प्रतीति के साथ राष्ट्रीय गौरव गान करते समय सुभद्रा जी की रचनाओं में कहीं अंतर्विरोध नहीं है। वे सर्वत्र राग, सृजन और नव निर्माण के गीत जाती हैं, कहीं भी विनाश या ध्वंस की कामना नहीं करतीं। वे क्रांतिकारिणी हैं, विद्रोहिणी हैं पर उनकी क्रांति बंदूक की नली से नहीं उपजती, उनका विद्रोह रक्तधार नहीं बहाता।

                          वे नवीन जी या दिनकर जी की तरह विपथगा की जयकार नहीं करतीं, महादेवी की तरह वीतरागी नहीं होतीं, भगवतीचरण की तरह महानाश को नहीं न्योततीं, निराला की तरह कटाक्ष से आहत नहीं करतीं। उनके साहित्य में उनकी व्यक्ति चेतना 'अहं' से सर्वथा दूर है। वे द्विवेदी युगीन पारंपरिक अतिशयतापरक राष्ट्रवाद से भी दूर हैं। सुभद्रा गुरुवत माखनलाल जी और हिंदी गीतों के राजकुमार कहे गए बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' से साम्यता रखती हैं। अपनीकर्म भूमि जबलपुर में ही सृजनरत दो समकालिक महारथियों रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरिवी' तथा 'केशव पाठक से नैकट्य होते हुए भी सुभद्रा जी के लेखन पर उनका प्रभाव नहीं मिलता। सुभद्रा जी अपनी कहानियों में व्यावहारिक धरातल पर वस्तुनिष्ठता की पक्षधर है, काल्पनिक आकाश कुसुमीय प्रवृत्ति की नहीं।

सुभद्रा जी के काव्य में आशावाद

                          उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से आरंभ काव्य यात्रा में सुभद्रा जी सतत अहिंसक सत्याग्रहों का भिन्न हिस्सा रहीं। वे पति की सहधर्मिणी रहीं, अनुगामिनी नहीं। लक्ष्मण सिंह जी जैसा अद्भुत जीवन साथी का अखंड विश्वास सुभद्रा का संबल और प्रेरणाशक्ति था। उन्हें पूर्ण विश्वास था की गाँधीवादी अहिंसक संघर्ष ही देश को स्वतंत्रता दिला सकेगा। १९२० में कांग्रेस अधिवेशन नागपुर में स्वागत गान में उन्होंने लिखा -

आ मैया कोंग्रेस! हमारी आकांक्षा की प्यारी मूर्ति।
राज्यहीन राजाओं के गत वैभव की स्वाभाविक पूर्ति।।
लुटे हुए दीनों की आशा, तू दासों की उज्जवल रत्न।
भारतीय स्वातंत्र्य प्राप्ति की तू चिरजीवी सात्विक यत्न।।

                          सुभद्रा जी के काव्य में देश और परिवार दो धुरियाँ सहज दृष्टव्य हैं। उनकी दो सर्वाधिक प्रसिद्ध गीति रचनाएँ 'झाँसी की रानी' तथा 'कदंब का प्रेम' इन धुरियों पर ही रची गई हैं। छायावाद काल तथा महीयसी का नैकट्य भी उन्हें कोरी कल्पनाशील भाव प्रवणता के प्रति आकर्षित नहीं कर सका, वे गुलाब की पंखुड़ियों पर नहीं, यथार्थ की खुरदुरी सतह पर चलती हैं। वे जन्म ही नहीं कर्म और लेखन से भी क्षत्राणी हैं। उनकी गृहणी घर और पति तथा माँ संतानों तक सिमित नहीं रहती। वे 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' की विरासत को ग्रहणकर समस्त देशवासियों की पीड़ा अपनी मानकर उसके शमन हेतु जूझती हैं। राष्ट्र सेवा के लिए त्याग, तितिक्षा तथा तर्पण (शहीदों का) उन्हें सहायक हुए। अभावों और कठिनाइयों से घिरी रहकर भी वे कभी निराश नहीं हुईं। वे आंग्ल कवि हेनरी वर्ड्सवर्थ लांगफेलो (२७ फरवरी १८०७ - २४ मार्च १८८२) की तरह जीवन के प्रति सकारात्मक भाव से भरी हुई हैं। लांगफेलो लिखते हैं -

Tell me not, in mournful numbers,
Life is but an empty dream!
For the soul is dead that slumbers,
And things are not what they seem.

नहीं बताएँ मुझको शोकाकुल अंकों में
केवल रीता सपना ही है सकल जिंदगी
क्योंकि आत्मा हुई दिवंगत जो सोती है
नहीं वस्तुएँ हैं वैसी; जैसी दिखतीं वे।

Life is real! Life is earnest!
And the grave is not its goal;
Dust thou art, to dust returnest,
Was not spoken of the soul.

जीवन है सच्चाई, जमा राशि है जीवन
केवल कब्र नहीं हो सकती इसकी मंज़िल
मिले धूल में भले; धूल से लौटेगी फिर
कथ्य नहीं यह जो आत्मा ने कहा कभी था।

सुभद्रा जी लिखती हैं -

मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना
बरसा करता पल-पल पर मेरे जीवन में सोना
मैं अब तक जान न पाई, कैसी होती है पीड़ा
हँस-हँस जीवन में कैसे करती है चिंता क्रीड़ा।
जग है असार सुनती हूँ, मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता मेरे मतवाले मन में।

                          सुभद्रा जी का आशावाद उनकी रचनाओं में उत्साह, उमंग, स्फूर्ति, साफल्य और विजय के रूप में शब्दित होकर पाठकों में नवाशा, विश्वास, ओज तथा कर्मठता का संचार करता है।

सुभद्रा काव्य में श्रृंगार रस

                          सुभद्रा जी के काव्य में श्रृंगार रस की मनोहर छवियाँ जहँ-तहँ शोभित हुई हैं। उनका श्रृंगार भोग-विलास नहीं, त्याग और समर्पण के साथ कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा बनता है।

मैं जिधर निकल जाती हूँ, मधुमास उतर आता है।
नीरस जन के जीवन में रस घोल-घोल जाता है।
सुखर सुमनों के दल पर मैं मधु संचालन करती।
मैं प्राणहीन का अपने प्राणों से पालन करती।

                          सुभद्रा जी की नारी प्रिय की अर्धागिनी के रूप में लक्ष्मण सिंह जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होने के साथ-साथ पाँच बच्चों के लालन-पालन में प्राण-प्राण से निमग्न होती है। वे नारी विमर्श और नारी जागरण करते हुए अर्धांगिनीत्व और मातृत्व को बाधक नहीं साधक पाती हैं। प्रस्तुत हैं दाम्पत्य जीवन में अपने प्रिय के प्रति सुभद्रा जी के अखंडित विश्वास की साक्षी देते कुछ काव्यांश-

तुम कहते हो आ न सकोगे, मैं कहती हूँ आओगे।
सखे! प्रेम के इस बंधन को यों ही तोड़ न पाओगे।
*
जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।
*
आओ चलो, कहाँ जाओगे मुझे अकेली छोड़, सखे!
बँधे हुए हो ह्रदय-पाश में, नहीं सकोगे तोड़, सखे! - स्मृतियाँ
*
मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।। - साध
*
जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो, है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता, तुमको मुझसे मेरे धन॥
*
आओ मेरे हृदय-कुंज में निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी मैं अपने अंतर का द्वार॥ - तुम
*
जब तिमिरावरण हटाकर, ऊषा की लाली आती।
मैं तुहिन बिंदु सी उनके, स्वागत-पथ पर बिछ जाती। -वेदना

सुभद्रा साहित्य में वात्सल्य सलिला

                          सुभद्रा जी का मातृत्व अपने बचपन और अपने बच्चों के बचपन का नीर-क्षीर सम्मिश्रण है। इन दोनों कालखंडों के पलों को वे बार-बार जीती हैं, और सुधियों के सुधारस से संजीवित होती हैं। कैशोर्य में कदम रखते ही सुभद्रा विवाहित हो कर प[रिय के भुजपाश में बँध गईं थीं। खुद को खोकर; प्रिय को पाते-पाते पाँच बच्चों और स्वतंत्रता सत्याग्रह की अँगुली थामे हुए वे तरुणाई का द्वार खटखटा रही थीं। जीवन की विविध जटिलताओं के बीच सुभद्रा जी बच्चों के बचपन में अपने बचपन को फिर-फिर जी रही थीं और सुधियों के सागर से संजीवनी पा रही थीं।  देखिए कुछ झलकियाँ -

शैशव के सुन्दर प्रभात का मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में जीवन का हुलास देखा।
*
जग-झंझा-झकोर में आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।
*
यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली
*
दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
*
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
*
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ - मेरा नया बचपन
*
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
*
सभा सभा का खेल आज हम, खेलेंगे जीजी आओ।
मैं गाँधी जी छोटे नेहरू, तुम सरोजिनी बन जाओ।
*
मेरा तो सब काम लंगोटी, गमछे से चल जायेगा।
छोटे भी खद्दर का कुर्ता, पेटी से ले आयेगा। -सभा का खेल

सुभद्रा काव्य में उद्दाम राष्ट्रीय भावधारा

                          तरुण सुभद्रा ने भारत-भारती को एक ही जाना था। उसके लिए हिंदी की सेवा भी भारत माता की सेवा थी। आज की कॉंवेंटी पीढ़ी को यह जानना चाहिए की जब देश में गिनी-चुनी आंग्ल शिक्षा संस्थाएं थीं तब सुभद्रा जी 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज प्रयाग' की मेधावी छात्र होते हुए, आंग्ल भाषा में काव्य रचना करने में समर्थ होते हुए भी हिंदी में काव्य रचना कर रही थीं। 

जिनको तुतला-तुतला करके शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।

उस हिन्दू जन की गरीबिनी हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की उस प्यारी कालिन्दी का ।।

है उसका ही समारोह यह उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य-भरी आँखों से देख रही हूँ यह सारा ।।
*
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।    - झाँसी की रानी 
*
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना। -जलियांवाला बाग़ में बसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥ - प्रभु तुम मेरे मन की जानो

तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज।

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान युद्ध में वे निर्भय मर मिटें।

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ, स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा, दूना प्रमुदित मन मेरा।

                          सारत: यह निर्विवाद है कि सुभद्रा जी एक साहित्य उनके जीवन-संघर्षों की अनकही गाथा कहता है। वे सत्य की आँखों में आँखें डालकर अपनी कलम चलाती हैं। यथार्थ की कुरुपता में भी सत्य-शिव-सुंदर की पाउस्थिति देख और दिखा सकने के लिए जो दिव्य दृष्टि चाहिए वह सुभद्रा जी में है। उनका स्त्री विमर्श कहीं और कभी पुरुष विरोधी नहीं होता, यह उनका वैशिष्ट्य है। विरूपता में सुरूपता की स्थापना करती सुभद्रा जी महीयसी की काल्पनिक छायावादी सौंदर्य सृष्टि का न तो अनुकरण करती हैं न विरोध। एक ही काल में पारस्परिक प्रगाढ़ स्नेह संबंध में गुँथी दोनों काव्य प्रतिभाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। महीयसी एक बार मुक्ति की कामना से बौद्ध धर्म में दीक्षित होने गईं भी तो मोह भंग होते ही वापिस आ गईं और सुभद्रा जी तो स्वामी विवेकानंद की तरह मृत्योपरांत भी धरती और जीवन से जुड़े रहने की कामना करती रहीं। वह अपनी मृत्यु के बारे में कहती थीं कि "मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है । मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियाँ गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे।" 
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ 
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