दोहे और द्विपदियाँ तेरह-ग्यारह; विषम-सम, दोहा में दुहराव
ग्यारह-तेरह सोरठा, करिए सहज निभाव *
दोहा ने दोहा सदा, शब्द-शब्द का अर्थ
दोहा तब ही सार्थक, शब्द न हो जब व्यर्थ
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जिया जिया में बसा ले, दोहा छंद पुनीत
दोहा छंद जिया अगर, दिन दूनी हो प्रीत
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गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक
सहज गेय जो वह सही, माने बुद्धि-विवेक
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कुछ अपनी कुछ और की, बात लीजिए मान.
नहीं किसी भी एक ने, पाया पूरा ज्ञान.
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ओ शो मत कर; खुश रहो, ओशो का संदेश
व्यर्थ रूढ़ि मत मानना, सुन मन का आदेश
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कुछ सुनना; कुछ सुनाना, तभी बनेगी बात
अपने-अपने तक रहे, सीमित क्यों जज़्बात?
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सुन ओशो की देशना, तृप्त करें मन-प्यास
कुंठाओं से मुक्त हो, रखें अधर पर हास
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ओ' शो करना जरूरी, तभी सके जग देख
मन की मन में रहे तो, कौन कर सके लेख?
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दोहा मैं लिखता नहीं, दोहा प्रगटे आप
कथ्य, भाव, रस आप ही, जाते दोहा-व्याप
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आज प्रियदर्शी बना है अम्बर, शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर
नेह की भेंट आप लाई हैं- चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर
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बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी, गंध में गंध घुल रही न्यारी
मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी- तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी
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जो मिला उससे है संतोष नहीं, छोड़ता है कुबेर कोष नहीं
नाग पी दूध ज़हर देता है, यही फितरत है, कहीं दोष नहीं
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बोल जब भी जबान से निकले, पान ज्यों पानदान से निकले
कान में घोल दे गुलकंद 'सलिल, ज्यों उजाला विहान से निकले
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