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रविवार, 19 अप्रैल 2020

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
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स्मित की रेखा अधर पर, लोढ़ा थामे हाथ।
स्वागत अद्भुत देखकर, लोढ़ा जी नत-माथ।।
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है दिनेश सँग चंद्र भी, देख समय का फेर।
धूप-चाँदनी कह रहीं, यह कैसा अंधेर?
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एटीएम में अब नहीं, रहा रमा का वास।।
खाली हाथ रमेश भी, शर्मा रहे उदास।
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वास देव का हो जहाँ, दानव भागें दूर।।
शर्मा रहे हुजूर क्यों? तजिए अहं-गुरूर।
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किंचित भी रीता नहीं, कभी कल्पना-कोष।
जीव तभी संजीव हो, जब तज दे वह रोष।।
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दोहा उनका मीत है, जो दोहे के मीत।
रीत न केवल साध्य है, सदा पालिए प्रीत।।
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असुर शीश कट लड़ी हैं, रामानुज को देख।
नाम लड़ीवाला हुआ, मिटी न लछमन-रेख?
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आखा तीजा में बिका, सोना सोनी मस्त।
कर विनोद खुश हो रहे, नोट बिना हम त्रस्त।।
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अवध बसे या बृज रहें, दोहा तजे न साथ।
दोहा सुन वर दें 'सलिल' खुश हो काशीनाथ।।
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दोहा सुरसरि में नहा, कलम कीजिए धन्य।
छंद-राज की जय कहें, रच-पढ़ छंद अनन्य।।
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शैल मित्र हरि ॐ जप, काट रहे हैं वृक्ष।
श्री वास्तव में खो रही, मनुज हो रहा रक्ष।।
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बिरज बिहारी मधुर है, जमुन बिहारी मौन।
कहो तनिक रणछोड़ जू, अटल बिहारी कौन?
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पंचामृत का पान कर, गईं पँजीरी फाँक।
संध्या श्री ऊषा सहित, बगल रहे सब झाँक।।
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मगन दीप सिंह देखकर, चौंका सुनी दहाड़।
लौ बेचारी काँपती, जैसे गिरा पहाड़।।
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श्री धर रहे प्रसाद में, कहें चलें जजमान।
विष्णु प्रसाद न दे रहे, संकट में है जान।।
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१९.४.२०१८
श्रीधर प्रसाद द्विवेदी
सुरसरि सलिल प्रवाह सम, दोहा सुरसरि धार।
सहज सरल रसमय विशद, नित नवरस संचार।।
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शैलमित्र अश्विनी कुमार
आधा वह रसखान है,आधा मीरा मीर।
सलिल सलिल का ताब ले,पूरा लगे कबीर।
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कवि ब्रजेश
सुंदर दोहे लिख रहे, भाई सलिल सुजान।
भावों में है विविधता, गहन अर्थ श्रीमान।।
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रमेश शर्मा
लिखें "सलिल" के नाम से, माननीय संजीव!
छंदशास्त्र की नींव हैं, हैं मर्मज्ञ अतीव!!
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